दीवाली पर कुछ घरों में दिखते हैं
छोटे छोटे प्यारे प्यारे मिट्टी के घर
माँ से पूछते हम क्यों नहीं बनाते ऐसे घर?
माँ कहतीं हमें विरासत में नहीं मिली यह परंपरा.
हम बच्चे बचपन से देखते थे इन खिलौने जैसे घरों को,
सोचते थे अपनी गुड़िया के लिए बनाएं ऐसा ही घर
इनमें आँगन भी था, छत भी, बगीचा भी, दूर्वा-क्षेत्र भी
पर बनाने के नाम पर
घर के बाहर पड़ी बालू में
पर्वत की चोटी पर
खोह या गुफा जैसा एक घर बनाना ही आया
कभी कभी मंदिर भी बनाया
और इन तक पहुँचने के लिए छोटी छोटी सीढ़ियां भी
ये रेत के घर थे,
रेत के ही आधार पर टिके हुये,
कितना टिकते फिर भला?
कंक्रीट के जंगलों में
आज भी हम बनाते हैं ऐसे ही रेत के घर
जिनमें न आँगन है, न छत, न बगीचा, न दूर्वा-क्षेत्र
इन घरों तक पहुँचने के लिए
मिली हैं लम्बी-लम्बी सीढ़ियां
सीढ़ियां चढ़ते समय हम ये भूल जाते हैं
सीढ़ियां ऊँचाई तक जब पहुँचाती है तो
मिट्टी से दूर कर देतीं हैं.
जिन्हें विरासत में नहीं मिले थे
आँगन वाले, छत वाले, बगीचे वाले, दूर्वा-क्षेत्र वाले घर
उन्हें तो किश्तों पर भी मिले रेत के ही घर
जिन्हें मिला था विरासत में नीम के पेड़ वाला आँगन
उन्होंने क्यों चुन लिया
मिट्टी वाले घर को छोड़ कर रेत वाले घर में रहना?
~टि्वंकल तोमर सिंह