Friday, 7 May 2021

रबींद्रनाथ टैगोर और विक्टोरिया ओकाम्पो

दो अलग-अलग संस्कृतियों और दो भिन्न राष्ट्रों से आने वाले दो पूर्णतः अपरिचित व्यक्तियों के मिलन को, विशेषकर जब वे अपरिचित एक स्त्री और पुरुष हों, किस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है? क्या प्रेम का कोई और रूप हो सकता है जैसे कि आध्यात्मिक प्रेम या प्लेटोनिक प्रेम?

1924 में, जब रवींद्रनाथ टैगोर पेरू की यात्रा पर जाते समय बीमार पड़ गए, तो उन्हें ब्यूनस आयर्स में उतरना पड़ा। यहाँ उनकी मुलाकात विक्टोरिया ओकाम्पो से हुई। विक्टोरिया ने टैगोर की गीतांजलि के आंद्रे गिडे के फ्रेंच अनुवाद को पढ़ रखा था। उसके लिए टैगोर एक आदर्श मूर्ति थे। वह एक समर्पित प्रशंसक की तरह लगन से उनकी देखभाल करती थी। इसी समय लगभग दो महीने साथ रहने के दौरान था कि इन दो लेखकों के मध्य एक बहुत ही भावुक संबंध विकसित हुआ। 

टैगोर जी की पत्नी की बहुत वर्ष पूर्व ही पच्चीस वर्ष की अवस्था में बीमारी से मृत्यु हो चुकी थी। विक्टोरिया ने न केवल मन लगा कर उनकी सेवा की अपितु उन्हें उनके अंदर छुपी एक विशेष प्रतिभा से भी परिचित कराया। 

स्वास्थ्यलाभ कर रहे टैगोर जी के हाथ में उन्होंने ब्रश और रंग थमा दिए। विक्टोरिया की प्रेरणा से उन्होंने अपने अंदर की रचनात्मकता को एक नई विद्या से विस्तार दिया- 'चित्रकला'। गुरुदेव ने लगभग 2000 की संख्या में चित्र बनाये और ये सारे चित्र उनके अंतिम वर्षों में उनकी उंगलियों से चमत्कार के रूप में बाहर निकले। 

टैगोर जी ने विक्टोरिया एक नाम दिया- 'विजया' यद्यपि बांग्ला में 'व' नहीं होता है, उसकी जगह 'ब' का ही प्रयोग किया जाता है। अतः नाम लिखने का सामान्य बंगाली तरीका है 'बिजोया'। पर संभवतः, उन्होंने शाब्दिक रूप से विक्टोरिया का 'वी' ही लिया। विक्टोरिया का अर्थ भी है - विजय। 

एक दिव्य प्रेम संबंध टैगोर जी के भारत लौटने पर भी ज़ारी रहा। उन्होंने एक दूसरे को अनगिनत ख़त लिखे तथा उनके मध्य कई उपहारों का आदान प्रदान हुआ। 

'द वीक' के अनुसार विक्टोरिया ने अपनी आत्मकथा में कहा है “एक दोपहर, जब मैं उसके कमरे में गयी थी,वे कुछ लिख रहे थे, मैं उस पृष्ठ की ओर झुक गयी जो मेज पर था। अपना सिर मेरी ओर उठाए बिना,उन्होंने अपनी बाँह बढ़ा दी और उसी तरह जैसे कोई एक शाखा पर फल पकड़ता है, उन्होंने अपना हाथ मेरे एक वक्ष पर रख दिया। 
मैंने उस घोड़े की तरह अपने अंदर कंपकपी अनुभव की जिसे उसका मालिक तब थपथपाता है जब वो आशा भी न कर रहा हो। मेरे अंदर का प्राणी एकाएक रोने लगा। तब मेरे अंदर के दूसरे व्यक्ति ने उस प्राणी को चेतावनी दी, 'शांत रहो ... मूर्ख' यह केवल एक बुतपरस्ती सरीखा लाड़प्यार है। हाथ ने शाखा छोड़ दी, उसके बाद लगभग अभौतिक दुलार किया। लेकिन उन्होंने फिर दोबारा कभी ऐसा नहीं किया। हर दिन वह मुझे मस्तक पर या गाल पर चूमते थे और मेरी एक बाँह को थामकर कहते थे, "कितनी सर्द बाहें।" 

इनके संबंध में बहुत सी बातें बहुत विस्तार से नेट पर पढ़ने को मिल जाएंगी। रबींद्रनाथ टैगोर ने विक्टोरिया ओकाम्पो के साथ अपने संबंधों को कुछ यूँ परिभाषित किया, "कुछ अनुभव उस खज़ाने की तरह होते हैं जिसका असल जीवन से कोई लेना-देना नहीं होता. मेरा अर्जेंटीना वाला एपिसोड कुछ ऐसा ही था।" 

चलते चलते ये भी बता दूँ इस प्लेटोनिक प्रेम के समय विक्टोरिया ओकाम्पो की आयु थी 34 वर्ष और रबीन्द्र नाथ टैगोर जी की वय थी 63। 

~टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ। 

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