Sunday 15 May 2022

पूंजी निवेश



कठिन दिन है।

कठिन इसलिए कि एक शिक्षक का दिन श्याम-पटल, चॉक, डस्टर, पुस्तक में कट जाए तो वो सरल है। 

निर्धन क्षेत्र से अभाव का भाव लिये छात्राओं के हाथ से 'नोट' लेना , गिनना, कम होने पर ये सोचना क्या इसकी पूर्ति करने लायक धन है मेरे थैले में, कटे-फटे 'नोट' होने पर शिक्षिका होने के नाते एक हल्की सी झिड़की देना, कुछ 'नोट' एकदम न चल पाने की स्थिति में वापिस कर देना, वापिस पाने वाले के चेहरे पर नया नोट न ला पाने की विवशता को पढ़ना, फिर डायरी में कम-अधिक-सही राशि दर्ज़ कर लेना। 

गुरु का ये कार्य तो नहीं !

उसने सारी राशि मेरी मेज़ पर बिखेर दी। मैं समय-सीमा बीत जाने के बोध से पहले से झुंझला रही हूँ। 

"ये क्या है? इतने फुटकर पैसे? अब इनको गिनने में न मालूम कितना वक्त लगेगा।"

एक रुपये के सिक्के, दो रुपये के सिक्के, दस का नोट , बीस का नोट... सबसे बड़ा एक ही नोट है...सौ का..वो भी तुड़ा मुड़ा सीला अपने अस्तित्व पर शर्माता हुआ। 

सौ बच्चों की कक्षा में अक्सर फ़ीस में कोई न कोई 'नोट' नकली, कटा-फटा, बिल्कुल न चल पाने वाला आ ही जाता है। क्लर्क हमारी त्रुटि बता कर लेने से इनकार कर देता है। भरपाई हमें ही करनी पड़ती है। 

गर्मी, उमस पहले से ही मन को चुभ रही है। और चुभ रहा है ये फुटकर पैसे गिनना। गिनते गिनते अचानक से याद आयी एक मिट्टी की गुल्लक। अपने घर के बच्चों को देखा है उसमें पैसे डालते हुये.... दो सौ का नोट....पाँच सौ का नोट...!! 

हाथ पसीज जाते हैं....थम जाते हैं...मैं उसकी आँखों में देखकर पूछती हूँ...

"ये पैसे क्या गुल्लक फोड़कर लायी हो?" 

"जी,मैम...पापा ने कहा है दो महीने बाद फीस के पैसे दे पाएंगे।" लड़की धीरे से बोलती है। 

मैं उसकी आँखों से अपनी आँखें हटा लेती हूँ। मैं नहीं चाहती वो अपनी शिक्षिका को द्रवित देखे। द्रवित होना कोमल भाव है। मुझे सशक्त छवि ही रखनी है! 

मैं पैसे गिनने लगती हूँ , मन में कहती हूँ....पढ़ती रहना लड़की....ईश्वर करे तुम्हारी गुल्लक कभी ख़ाली न हो..और प्रत्यक्ष में उससे कहती हूँ...

"ठीक है...जाओ...रसीद कल मिलेगी।" 

दृढ़ता के साथ कह सकती हूँ ये दुनिया का सबसे सुंदर 'पूंजी निवेश' है ! 

(My Experience With Students)

 ~टि्वंकल तोमर सिंह



Saturday 7 May 2022

धूप छाहीं ज़िन्दगी में रंग






हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का.....श्वेत- श्याम फ़िल्म में लाल दुप्पटा! क्या विरोधाभास है ! ज़रा सोचिए उस दौर में कैसे यक़ीन दिलाया गया होगा कि नायिका जिस दुपट्टे को लहरा रही है वो लाल ही है। दर्शकों की कल्पना से रंग लिये होंगे। दर्शकों के साथ एक छल किया गया। गीत के बोलों से उन्हें यकीन दिलाया गया, दुपट्टा लाल है, दर्शक मान बैठे दुप्पटा लाल है। क्या पता वास्तव में वो किस रंग का था...काला था या नीला था। 

काले और सफेद रंगों में सीमित पर्दे पर नायिका जब राजकपूर से कहती है, " राज...तुम्हारी नीली आँखें..." 
नीली? श्वेत और श्याम पर्दे पर नीला रंग कैसे दिखता भला? ये तो दर्शकों ने तब जाना जब फ़िल्मी कैनवास पर रंग बिखरने शुरू हुए। तो फिर श्वेत और श्याम पर्दे पर कैसे उस समय उन पर मरने वाली लड़कियाँ अपनी कल्पना में राजकपूर की नीली आँखों से आँखें चार करती होंगी? 

श्वेत-श्याम टीवी के पर्दे पर हमारी पीढ़ी के बच्चों ने बहुत बार रंग ढूंढने कोशिश की। और मजे की बात ये है कि हमें दिख भी जाते थे। कहीं किसी कोने में मटमैला लाल या भूरा, कभी चमकदार नीला, कभी सतरंगा। हम उतने से ही ख़ुश हो जाते थे। वास्तव में टेक्नोलॉजी के आदिम युग में सस्ते टीवी के सस्ते काँच पर प्रकाश जब अपवर्तन-परावर्तन का खेल खेलता था तो यूँ ही भ्रम पैदा कर देता था। कुछ दिनों बाद ब्लैक एंड व्हाइट टीवी को रंगीन बनाने की कोशिश यूँ की गई कि रंगीन काँच पर्दे के आगे लगा दिए गए...कभी लाल..कभी पीले..कभी हरे... कभी नीले...या कभी कभी एक ही साथ चारों रंग के। अब जो भी बोलता-चित्र चलता थोड़ा तो रंगबिरंगा लगता। इतने से ही रंगों से हम ख़ुश थे, तृप्त थे। हमें अधिक की तो चाह ही नहीं थी। 

देखा जाए तो इन बातों में गहरा दर्शन छुपा है। हर किसी को आसानी से जीवन में रंगीनी प्राप्त नहीं होती। विरले होंगे जिन्हें जीवन में विधाता ने सारे सुख दिए हैं या सारे रंग दिए हैं। अधिकतर लोगों को असुविधा में, अतृप्ति में, अभाव में ही जीवन काटना पड़ता है। यह स्वीकार कर लेना होता है अपनी तो ज़िन्दगी यूँ ही है श्वेत और श्याम। तो क्या जीवन का आनंद मनाना छोड़ देंगे? जीवनोत्सव को अगले जन्म तक स्थगित कर देंगे? क्यों नहीं अपनी कल्पना से रंग ले लेते हैं कुछ इस तरह जैसे पुराने समय में काली-सफेद फोटोग्राफ को ऊपर से रंगकर थोड़ा सा रंग-बिरंगा कर लिया जाता था ? 

अरुणिमा सिन्हा एक आम यात्री की तरह ट्रेन के डिब्बे में बैठी थीं। तभी कुछ बदमाश लोग आए और उनसे उनका कीमती सामान छीनने की कोशिश करने लगे। विरोध करने पर उन लोगों ने उन्हें डिब्बे से बाहर पटरी पर फेंक दिया। दूसरी ओर से आती तेज गति की गाड़ी उनके पैरों के ऊपर से गुज़र गयी। कुछ ही पलों में उनकी ज़िंदगी से दुर्भाग्य ने सारे रंग छीन लिये। पर ये उनकी ही ज़िद थी। उन्होंने जीवन को श्वेत-श्याम नहीं रहने दिया। आर्टिफिशियल पैरों के सहारे उन्होंने हिमालय की चढ़ाई की और एवरेस्ट पर चढ़कर सूर्योदय देखा। उस सूर्योदय से उन्होंने सारे रंग अपने जीवन में वापस ले लिये। 

कुछ लोगों को उदास रहने की बीमारी होती है। वो जीवन में सुख नहीं दुःख गिन-गिन कर बताते रहते हैं। सुख उनके लिये बस यूँ ही है जैसे रोज़ सूरज का निकलना। यह सारी रंगबिरंगी दुनिया उनके लिये काली-सफेद है। उन्होंने आसानी से मिलने वाली हर चीज़ को सस्ती व महत्वहीन मान लिया है। उन्हें वो सब कुछ मिला है जिसके लिये दूसरे लोग संघर्ष कर रहे हैं, फिर भी वो दुखी हैं। उन्हें आभारी होना नहीं आता। हमें प्रतिदिन आसानी से प्राप्त हो जाने वाली चीजों के लिये ईश्वर का कृतज्ञ होना चाहिए। जैसे पीने का स्वच्छ पानी घर बैठे मिल रहा है, नेमत नहीं है तो क्या है? ज़रा उनसे पूछिये जो दस मील दूर से पीने का पानी सिर पर ढो कर लाते हैं। 

खलील जिब्रान कहते हैं," मुझे अपने प्राणों को रंगने दे; मुझे सूर्यास्त निगलने दो और इंद्रधनुष पीने दो।" कितना सुंदर दर्शन है। प्रकृति की हर चीज़ में रंग है, सुंदरता है, जीवन रस है। दुनिया को रंगों से भर देने वाला सूर्यास्त सामने हो और हम अपनी उदास आत्मा लिये बैठे रहें, तो हमसे बड़ा मूर्ख कौन है? सात चमकदार रंग लिए मन पर उमंगों का तीर छोड़ने को तैयार 'इंद्रधनुष' आकाश पर सजा हो और हमारे मन में एक भी रंग न जगे, तो हमारे भीतर ही कोई कमी है। 

उदासी बड़ी ख़तरनाक बीमारी होती है। यह पूरा ब्रह्माण्ड खा जाती है फिर भी आत्मा को बोझिलता के दलदल में डुबोये रखती है। इससे बचने का मात्र एक ही उपाय है, अपने रंग स्वयँ तलाशिये। यह जीवन एक कोरे कैनवास की तरह हैं। इसमें रंग-बिरंगे चित्र हमें ही भरने हैं। बच्चों सा सरल हृदय रखना होगा, जो अतीत में रहकर दुखी नहीं होते, भविष्य का सोच कर चिंतित नहीं होते। बस वर्तमान से अपने दिन को उज्ज्वल बनाते रहते हैं। मन में उमंग हो तो लुप्तलोचन सूरदास जी को भी नटखट कान्हा की 'ईस्टमैन कलर छवि' के दर्शन हो जाते हैं। 

(जनसत्ता के सभी संस्करणों में संपादकीय पेज़ पर आज दिनाँक 07/05/22 को प्रकाशित लेख।) 


~टि्वंकल तोमर सिंह

द्वार

1. नौ द्वारों के मध्य  प्रतीक्षारत एक पंछी किस द्वार से आगमन किस द्वार से निर्गमन नहीं पता 2. कहते हैं संयोग एक बार ठक-ठक करता है फिर मुड़ कर...