Thursday 29 August 2019

वचन दिया

एक विदा-पुष्प
तुम्हारे नाम का

नदी में
प्रवाहित करने से पहले
तौल लिया था
अपने रिक्त मन का भार

तुला में इस ओर
अब जितना भी
भारी रहे मन

उस ओर नही रखूँगी
तुमसे आस का कोई बाट
ये वचन दिया !

©® टि्वंकल तोमर सिंह

देह माटी

बारी सबकी आनी थी। पर पीतल की मटकी इतरा रही थी। लौह की मटकी सकुचा रही थी। जल कुंड पर घट भर पानी दोनों को बराबर मिला। न किसी को कम,न किसी को अधिक।

मोक्ष का जल भी माटी-देह के घड़ों में भेद नही करता।

©® टि्वंकल तोमर सिंह

ज़रा सी आहट होती है तो दिल पूछता है

रेडियो पर गाना चल रहा है....

"जरा सी आहट होती है तो दिल पूछता है
कहीं से वो तो नही...कहीं ये वो तो नही....."

मैं दोपहर बीतने के बाद अलसायी सी बिस्तर पर पड़ी हुई हूँ। मेरे कान समेत सभी पांचों इंद्रियां दरवाजे की हर आहट पर लगी हुई है। कब दरवाजे की घंटी बजे और उनके दर्शन हों। तभी दरवाजे की घंटी बजती है....टन्न टन्न... मन मयूर नाच उठता है। अहा...लगता है जिसका इन्तज़ार था वो आ गया।

मैं प्रफुल्लित होकर भागती हूँ। जैसे कि पैरों में रोलर स्केट्स लग गये हो। उल्लास के साथ मैं दरवाजा खोलती हूँ।
पर सामने खड़े व्यक्ति को देखकर मेरी सारी खुशी काफ़ूर हो जाती है ....
मन मे सड़ा सा भाव आता है ..अच्छा रोज रोज चीनी मांगने वाली भाभी आयी हैं।

" आइये भाभी जी। क्या हुआ फिर चीनी खत्म हो गयी है?" मैंने अपने सड़े से मुँह पर चॉकोलेट स्माइल की कोटिंग करते हुये कहा।

"अरे नेहा जी, क्या बताये। कल चीनू का मन हुआ लड्डू खाने का। सारी चीनी उसी में ख़त्म हो गयी। आज इनको बोला है लौटते में चीनी लेते आयेंगे। तब तक मैंने सोचा आपसे ले लूँ इसी बहाने थोड़ी गपशप भी हो जाएगी।" चीनू की मम्मी अपने खींसे निपोर रहीं थीं।

मेरा आंखें उनसे परे दरवाजे के बाहर झाँक रहीं थीं। मन में सोच रही थी, " क्या हुआ उसको? उसके आने का वक़्त तो हो गया है।"

आधा घंटा मेरा सफलतापूर्वक बर्बाद करने के बाद चीनू की मम्मी मटक कर चल दीं। मेरा इंतज़ार अभी भी खत्म नही हुआ था। दरवाजे की घंटी से ज़्यादा मधुर कोई संगीत नही था मेरे लिए इस समय। फिर वही दरवाजे पर आहट का इंतजार। फिर से घंटी बजी टन्न टन्न। मेरे रूखे चेहरे पर मुस्कान की एक्सप्रेस रेलगाड़ी धड़धड़ करती हुई गुज़र गयी। फिर से वही सब कुछ, प्रफुल्लित मैं, पैरों में रोलर स्केट्स, उल्लास के साथ दरवाजा खोलना पर ये क्या....ये तो वो आये हैं....

वो कौन ? अरे वही रोज रोज खिटपिट करने वाले 'वो' आये है.. जिनसे सात जन्मों तक खिटपिट का संबंध हैं। क्या मालूम कितने जन्मों का काउंट डाउन पूरा हो चुका है काश कोई तरीका होता जानने का। ख़ुशी काफ़ूर ही चुकी थी फिर से। नकली मुस्कान के साथ मैंने कहा," अरे आप, इतनी जल्दी कैसे आ गए?"

"वो आज काम जल्दी निपट गया। सब निकल रहे थे तो मैं भी निकल लिया। जल्दी से चाय पिलाओ। मैं गरमागरम समोसे लाया हूँ।" पतिदेव टाई ढीली करते हुये बोले।

" हाँजी बिल्कुल। आप हाथ मुँह धोकर बालकनी में बैठिये। मैं बस दस मिनट में आ रही हूँ।" मैंने पूरी चाशनी में लपेट कर शब्द बोले कि कहीं मेरे मुँह के सड़े से एक्सप्रेशन वो पढ़ न लें। चाय बनाते समय भी कान दरवाजे पर लगे हुये थे। " हाय अब तो समय भी निकला जा रहा है। क्या हो गया? भगवान सब सही रखना।" मुझे घबराहट होनी शुरू हो गयी थी।

इसके बाद मैं पतिदेव को चाय वगैरह देने में व्यस्त हो जाती हूँ। पर चाय समोसा कुछ भी मजा नही दे रहा। सब बेस्वाद है। जब तक जिसका इंतज़ार है वो न आये मेरे लिये पूरी दुनिया सूनी है। रेडियो पर गाने पर गाने बजते जा रहे है।...."आ जा रे अब मेरा मन घबराये.... देर न हो जाये कहीं देर न हो जाये...." हाय ये रेडियो वाले भी बड़े बेदर्द हैं चुन चुन कर दर्द वाले गाने ही सुनायेंगे।

आप विश्वास नही मानेंगें पर मुझे एक पल का चैन नही था। अभी भी मेरी कान समेत छह इंद्रियां दरवाजे की ओर लगी हैं। ( ध्यान दीजिए अबकी बार छह इन्द्रियाँ... इस बार छटी इन्द्री भी दरवाजे की ओर सूरजमुखी के समान ही ताक रही है) धीरे धीरे आस भी छूटती सी लग रही है।

फिर से दरवाजे की घंटी बजती है...टन्न टन्न।  मेरे मन में फिर से उल्लास जागता है। जैसे भक्त मंजीरा मनका सब छोड़कर भगवान का स्वागत करने पहुंचता है, वैसे ही मैं चाय समोसा सब छोड़ छाड़ के दरवाजे की ओर भागती हूँ.....

और देखो, जिसका मुझे इंतज़ार था वो आ ही गया। अबकि बार सामने खड़े व्यक्तित्व को देखकर मेरा मन उसके चरणों मे लोटने जैसा हो जाता है। पर मन पर काबू कर लेतीं हूँ। " धैर्य रखो धैर्य" अंतर्मन से आवाज़ आती है।

"देखो वो आ गया...देखो वो आ गया.." रेडियो पर गाना बजने लगता है।

मन में उमंग के साथ जोर शोर से प्रेमभाव  उमड़ता है मन होता है गले ही लगा लूँ। रूठूँ.. नाराज़ होऊँ... डाटूँ...." इतनी देर क्यों लगा दी। पता भी है मैं कितना परेशान हो रही थी। मुझे तो लगा कि तुम...."

अरे अब क्या बताऊँ कौन आया है । वही आयीं है । मेरे बर्तनों के साथ खिटपिट करने वाली 'वो' आ गयी हैं... 'वो' अरे वही जिसे हम कामवाली कहते हैं। जिनका इंतज़ार हमें पति, पड़ोसन, मायकेवाले, कूरियर वाले आदि की अपेक्षा सबसे ज़्यादा रहता है। दो दिन की छुट्टी लेकर गयीं थीं महारानी। आज आना था तो रात से ही मैंने सारे बर्तन ढेर कर रखे थे। बार बार दिल धड़क रहा था आज न आयीं तो ये सारे बर्तन मुझे ही घिसने होंगें। खैर अंत भला सो सब भला। चलिये महरी महिमा पुराण ख़त्म हुआ आप भी जाकर चाय नाश्ता करिये।

©® टि्वंकल तोमर सिंह

Saturday 24 August 2019

मेरे देश की धरती सोना उगले

"सुनो जी तुमसे कब से कह रही हूँ छह महीने बाद बिटिया की शादी है अभी से पैसे का इंतज़ाम करना क्यों नही शुरू कर देते हो।" कलावती ने अपने पति फिर से उसी बात को याद दिलाया जो बात वो रोज़ाना उसे याद दिलाती है।

"कर तो रहा हूँ। गया था साहूकार के पास । कह रहा था खेत गिरवी रख दो ले जाओ पैसा। पहले ही कहे देता हूँ पुरखों की जमीन गिरवी न रखूँगा।" सुखिया ने हुक्के में तम्बाकू भरते हुये कहा। ये तम्बाकू ही थी जो उसका एकमात्र सहारा थी। अपनी परेशानियों को वो हुक्के से गुड़गुड़ा कर धुआँ धुआँ कर देना चाहता है। परेशानियाँ तो उसकी कम नही होती थी पर उसे फूँकने के अभिनय में ही कुछ फूँकने का सुकून मिल जाता था।

हुक्का फूँकने के बाद उसने पत्नी से खाना लगाने को कहा। खाने में सिर्फ रोटी प्याज़ और नमक था। उसके बेटे मोहना ने खाने से इन्कार कर दिया। " मैं नही खाऊंगा रोज रोज ये बकवास खाना। एक आलू की सब्जी भी नही बन पाती तुमसे मेरे लिये।"

"मोहना खाना है तो चुपचाप खा लो। वरना फूट लो यहाँ से कल से ये भी नही मिलेगा।" सुखिया ने खाँसते हुये कहा।

"कह दिया न नही खाऊँगा। आपने मेरे स्कूल की फीस के पैसे का इंतजाम किया ? मास्टर जी ने नाम काट दिया है। मेरे सब दोस्त जा रहे है स्कूल मैं ही बस साइकिल का पहिया डंडी मार मार कर घुमा रहा हूँ और कुछ काम नही मेरे पास।" मोहना ने थाली खिसकाते हुये कहा।

"स्कूल की फीस का इंतज़ाम किया?.. " सुखिया ने शब्दों को चबाते हुये उसकी नकल उतारी। "कहाँ से लाऊँ पैसे? पिछले साल फसल भी अच्छी नही हुई। इस बार अभी तक बारिश नही हुई। खेत सूखे जा रहे हैं। क्या करना है पढ़ाई-वढ़ाई करके। कुछ काम खोज। दो पैसे ही घर में आयेंगे।"

मोहना रूठकर अपने बिस्तर पर चला गया। माँ आवाज़ देती रही। " खाना खा ले बेटा। बापू की बात का बुरा मत मानना। बारिश न होने से उनके खेत ही नही दिमाग़ का रस भी सूख गया है। तू खाने पर नाराज़गी मत दिखा रे।" इस तरह एक और रात बीत गयी।

सुबह होते ही सुखिया अपने खेत की ओर चल देता। गुड़ाई निराई करके उत्तर दिशा की ओर ताकता रहता था। नीले आसमान पर रुई सा उड़ता एक बादल का टुकड़ा भटकते हुये भी इधर न आता। धरती तरसती, सुखिया की आँखें तरसती पर भगवान को ज़रा भी दया न आती।
" अरे राम...कुछ तो छीटें भेज दे इधर। पूरी तरह बर्बाद करके ही मानेगा क्या।" सुखिया सूखी सी आवाज़ में बड़बड़ाता।

देखते देखते चार महीने बीत गए। खेत सूख कर धरती की दरारों में बदल गये। सुखिया की समस्या का कोई निदान न हुआ बल्कि उसकी निराशा बढ़ती गयी। उसका अवसाद हुक्के की गुड़गुड़ में भी न उड़ सका। बेटा नाराज़,पत्नी दुःखी, वो ख़ुद अपनेआप से परेशान। बरसात ने जैसे इस ओर न आने का पक्का इरादा कर लिया था।

तभी एक अनहोनी घटना घट गई। सुखिया की पत्नी कलावती सीढ़ियों से फिसल कर गिरी। उसे भारी चोट आई थी। आनन फानन में अस्पताल में उसे भर्ती कराया गया। मालूम पड़ा उसे दाहिने पैर की हड्डी टूट गयी है। कुछ पचास हजार का खर्चा बताया डॉक्टर ने। "कोढ़ में खाज।" सुखिया ने सिर पीट लिया। " अब कहाँ से लाऊँ वैसे। हे राम तेरी परीक्षायें ही नही ख़त्म होतीं।"

सुखिया खेत के कम अस्पताल के चक्कर ज़्यादा लगाने लगा। रोज पिता पुत्र खाना बना कर अस्पताल ले जाते। दिन भर वहीं रहते। रात में रुकने की जगह नही थी तो घर पर ही रहते थे।

कलावती शर्मिंदगी से मरी जा रही थी। "क्यों न वो संभाल के चल सकी। पति का दुख बंटाने की जगह और बढ़ा दिया। पता नही कहाँ से पैसे का इंतज़ाम किया होगा। कुछ बोलते भी नहीं। बस चुप रहतें हैं।" दोनों पति पत्नी में अबोला चल रहा  था।

तीसरे दिन उसके पैर का ऑपरेशन हुआ। एक हफ़्ते बाद आज अस्पताल में उसकी आख़िरी रात थी। लेटे लेटे सोच रही थी। "कल अस्पताल से छुट्टी मिल जायेगी तो पति की ख़ूब सेवा करेगी। जितना उसने कष्ट दिया है सब धो कर रख देगी।" सोचते सोचते उसकी आँखों से आँसू बरसने लगे। तभी उसने देखा अस्पताल की खिड़की के शीशे पर बूँदे चमक रहीं हैं। कलावती को एक क्षण कुछ समझ नही आया। उसकी आँखें भीगीं हैं या सच में शीशे पर बूँदे पड़ने लगीं हैं।

थोड़ी देर में बूँदे बढ़ती गयीं और साथ साथ बूँदों के बरसने का संगीत पूरे वातावरण में गूँजने लगा। कलावती भीगी भीगी आँखें लिये ही मुस्कुराने लगी। मन में ही अपने पति से उसका अबोला टूट गया। अदृश्य सुखिया से वो कहने लगी, " सुनते हो मोहना के बापू, हमारे कष्ट के दिन अब समझो बस गये।" उस ने भुइयां देवी को भी मन ही मन धन्यवाद दिया, "देवी मैया बस किरपा बनाये रखना।"

दूसरे दिन अस्पताल में उसे कोई लेने नही पहुँचा। उसकी आँखें बार बार सुखिया का चेहरा ही ढूँढ रहीं थीं। पर काफी समय इन्तज़ार करने के बाद भी सुखिया नही आया तो किसी तरह अपने पड़ोस में रहने वाले कल्लू की सहायता से वो घर पहुँची। कल्लू की माँ भी उसी अस्पताल में भर्ती थीं।

घर पहुंचकर उसने देखा तो पाया कि घर पर सन्नाटा था। रसोई में आग तक नही जली थी। किसी अनहोनी की आशंका ने उसके मन को बेचैन कर दिया था। छड़ी के सहारे पैर टेकते टेकते अपने खेत की ओर भागी। "मोहना के बापू, अरे ओ मोहना के बापू। देखो मैं आ गयी।" आवाज़ लगाते हुये जोश से वो जितना तेज भाग सकती थी भागी जा रही थी। खेत पहुंचकर उसने देखा बहुत भीड़ लगी है। भीड़ को चीरते हुये अंदर पहुँची तो देखा मोहना एक किनारे खड़ा पागलों की तरह रोये जा रहा है। और पेड़ पर सुखिया की गीले कपड़ों से लदी लाश झूल रही है। कोई कह रहा था। " अरे रात में ही झूल गये है दद्दा। थोड़ा सबर कर लेते तो बारिश देख लेते तो ये सब न होता।"
साहूकार कह रहा था, " अरे मैंने तो पहले ही कहा था, मन नही है तो मत रखो अपने खेत गिरवी। राम राम।"

कलावती को इसके आगे कुछ नही सुनाई दिया। वो अचेत होकर गिर पड़ी। कहीं दूर गीत बज रहा था " मेरे देश की धरती सोना उगले..."
" अरे भैया, मेरे देश की धरती किसान को निगले..." भीड़ में से कोई ठंडी सांस भरकर कह रहा था।

©® टि्वंकल तोमर सिंह



Thursday 22 August 2019

नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है

उनकी पोस्टिंग एक इंटर कॉलेज में सरकारी अध्यापिका के तौर पर सीतापुर के सुदूर इलाके में हुई थी। ग्रामीण क्षेत्र था सुख सुविधाओं से दूर। आस पास सब जगह गरीबी का साम्राज्य फैला हुआ था। जो बच्चे पढ़ने आते थे वो भी बहुत गरीब थे। न उनके पास यूनिफार्म थी न पैरों में जूते। सर्दियों में भी वो बिना स्वेटर और बिना जूते के चले आते थे।

अपने देश की ऐसी हालत देखकर उसे बहुत तरस आता था। सरकारी अध्यापक की भी एक सीमा होती है। वो मैडम जितना कर सकती थी करती थी पर कितना? सर्वोपरि तो उसने ठान रखा था वो जितना जी जान से पढ़ा सकती है उतना इन्हें पढ़ाएगी। उसका विषय अंग्रेजी था जिसमें बच्चों को रंचमात्र भी दिलचस्पी नही थी। आठवें तक लगता था कुछ अंग्रेजी पढ़ी ही नही फिर अचानक इतनी कठिन अंग्रेजी कैसे पल्ले पड़ती?

फ़िलहाल अध्यापिका महोदया अपने कर्तव्यों की पूर्ति करती रहतीं थीं और उन्होंने सोच रखा था भले ही ऐसा लगे मैं दीवार को पढ़ा रही हूँ, मैं इन्हें पढाऊँगी जरूर। कहीं से तो परिवर्तन शुरू होगा।

कभी कभी कुछ विशेष महीनों में आधे से ज्यादा विद्यार्थी अनुपस्थित रहते थे। उपस्थित बच्चों से पूछो तो मालूम पड़ता था," जी वो खेत गये है।"
" खेत में क्या करने गये है।" अध्यापिका पूछती।
" जी वो गेहूँ कट रहा है। वहीं लगे हैं।" जो आठ दस बच्चे आते वो जवाब देते।
"फिर तुम लोग क्यों नही गये? तुम भी चले जाते यहाँ क्या करने आये हो? " अध्यापिका गुस्से से पूछती क्योंकि बच्चों की अनुपस्थिति उसके साक्षरता मिशन में बाधा थी।
"हमारे पास खेत नही हैं।" बच्चे सिर झुकाकर शर्मिंदा होकर बोलते।
पर उनसे ज़्यादा शर्मिंदा अध्यापिका हो जाती थी ये प्रश्न पूछकर। उसे समझ नही आता वो सहानुभुति दिखाये या तरस।

मेहनत से पढ़ाने के बावजूद जब बच्चों के कान पर जूँ नही रेंगती तो वो खीज जाती थी। कभी किताब नही कॉपी नही। " कॉपी कहाँ गयी?" वो पूछती। " जी वो बह गयी।" विद्यार्थी अपनी भाषा में बोलता। " बह गई ? क्या गोमती में बह गई? लखनऊ से आई अध्यापिका को नही पता था 'बह गयी' से उनका तात्पर्य है खो गयी। पूरी कक्षा खीं खीं करती रहती मैडम की अज्ञानता पर। और मैडम उनकी लापरवाही पर अपना सिर पीट लेतीं। एक कॉपी खो गयी मतलब दूसरी अब साल भर नही आएगी।

मैडम के प्रयास बढ़ते जा रहे थे और उनकी निराशा भी। उनको लगता," कैसे समझाऊँ, नन्हे मुन्नों बच्चों तुम्हारी मुठ्ठी में क्या है। तुम अपनी तकदीर ख़ुद बदल सकते हो अगर चाह लो तो।"

एक दिन मैडम ने लंबा चौड़ा भाषण दिया इसी विषयवस्तु पर। "पढ़ लिख लोगे तो क्या नही कर सकते। देश के कितने बड़े नेता गाँव के स्कूलों से ही पढ़कर निकले। कोशिश तो करो। अंग्रेजी पढ़े बिना मगर आज गुज़ारा नही। मोबाइल भी चलाना है तो अंग्रेज़ी आनी जरूरी है।"

कक्षा में पीछे से एक आवाज़ आती," अरे मैडम आप क्यों हम लोगों को इतना पढ़ाना चाहती है, करना तो हमें खेती ही है, या बस दुकान पर बैठना हैं।" और पूरी कक्षा ठहाकों से गूँज जाती।

मैडम जी भी कम नही थी तड़केदार जवाब देतीं थीं। " हाँ हाँ जानती हूँ, तुम लोगों को तो बस एक इंटर की डिग्री चाहिये। क्योंकि जब शादी तय होती है तो पूछा जाता है लड़का क्या करता है?.... जी लड़का इंटर फेल है।...बस तुम लोगों ने इसी उपलब्धि के लिये ही तो यहां एडमिशन लिया है।"

बच्चे भी मुस्कुराते और मैडम भी।

तभी उसी वर्ष मिड डे मील योजना शुरू हुई। कक्षा छह सात आठ वालों को भोजन मिलता था बस। अध्यापिका महोदया की मिड डे मील में ड्यूटी लगी थी। काम था सभी बच्चों की गिनती करके रोज रजिस्टर में लिखना और मध्यावकाश में खाना बंटवाना।

एक नन्हा राजू अक्सर मैडम की नजरें छुपा कर रोटियां अपने बस्ते में छुपा लेता था। कितने दिन छुपता मगर। मैड़म ने पकड़ ही लिया एक दिन। " क्या है राजू तुम्हारे हाथ में पीछे क्या छुपा रहे हो?"
दूसरे लड़के ने गवर्नर बनते हुये अपने हाथ से उसका रोटी वाला हाथ आगे कर दिया। बच्चों की इस नोंक झोंक पर मैडम मुस्कुराईं और पूछा," क्या हुआ? इसे छुपा क्यों रहे थे?"

राजू चुप जैसे उससे कोई अपराध हो गया हो। दूसरे लड़के ने बताया," मैडम जी ये रोटियां अपने घर ले जाता है।"

"क्या बात है राजू? यहाँ क्यों नही खाते रोटी?"मैडम ने जोर देकर पूछा।

"मैडम जी, वो...वो...जी मैं अपनी गाय के लिये रोटी ले जाता हूँ। उसका चारा पूरा नही पड़ता न।" राजू ने सकुचाते हुये बोला।

ज़्यादा कुरेदने पर मालूम पड़ा ऐसा एक राजू ही नही है अकेला। कक्षा के कई बच्चे है जो कि जिस दिन रोटी मिलती है तो वो अपने घर ले जाते है कोई अपनी माँ के लिये , कोई अपने भाई के लिये, कोई अपनी गाय के लिये.....

मैडम निःशब्द और स्तब्ध हो गईं। सोचने लगीं," मैं क्या इन बच्चों को साक्षर करूँ, ये तो पहले से ही साक्षर हैं, मानवता में, भारतीय संस्कृति में, हृदय की सरलता को जीवित रखने में।" नम हो आयीं आंखों को एक नई दृष्टि मिली थी।

©® टि्वंकल तोमर सिंह


Friday 16 August 2019

बूढ़े मसूड़े

दादी ने अभी ही अपनी ऐनक उतार कर उनके बेड के पास रखे स्टूल पर एक तरफ रखी थी। दूसरी तरफ एक काँच के गिलास में उनके नकली दाँतों का एक पुराना गंदा सा सेट पानी में पड़ा हुआ था। "पुराना सा गंदा सा" जब भी वो उसको देखतीं न जाने क्यों उन्हें वो अपने स्वयँ के अस्तित्व का एहसास सा दिलाता लगता था।

ऐनक पहने रहने से आँखों में उतर आयी नमी को पोंछना संभव कहाँ है? बन्द आँखों पर अपनी उंगलियों को फिरा कर हल्के से छलक आये आँसुओं को पोछा जैसे कि अपने मन को समझाया हो हरीश के पिता की तस्वीर उन्हें ऐसे रोता देखेगी तो दुःखी हो जाएगी।

हर समय दादी दादी कहकर आगे पीछे फिरने वाले पोते ने उनकी आँखों की ये चोरी पकड़ ली थी। " दादी रो मत मैं हूँ न। जब मेरे दाँत गिरेंगे न तो तुम ले लेना। भगवान जी तो मेरे दूसरे दाँत उगा देंगे। मैं तो अपने दाँत पेड़ के नीचे ही दबा देता हूँ। मुझे उनका क्या काम। तुम लगा लेना अपने मुँह में फिर तुमको चबाने में कोई दिक्कत नही होगी।"  छह साल का नन्हा श्रवण अपनी तोतली जबान में बोल रहा था।

दादी छलक आयी आंखों को पोछते पोछते अपने पोते की इस बात पर मोहित हो गयीं, तपते तवे पर जैसे किसी ने ठंडे दूध के कुछ छींटे डाल दिये हो। उनकी छाती में ममता का सागर उमड़ आया। उन्होंने पोते की बलैया ली। " तू ही मेरा श्रवण कुमार है रे पुत्तर। जल्दी से बड़ा हो जा।"

पोते ने अभी अभी माँ और दादी की बातचीत सुनी थी। फिर ये देखा  था कि उसकी माँ को रसोई में बर्तन पटकती जा रही थी और बड़बड़ाती जा रही थीं। " इनको दाँतों का नया सेट चाहिये। पुराने सेट से काम नही चला सकतीं। पैसे तो जैसे पेड़ पर उगते हैं। ससुर तो जैसे करोड़ों की संपत्ति छोड़ कर गए हैं हमारे नाम। नया सेट चाहिये।" मुँह बिचकाते हुये वो बोल रही थी।

"दूध के दाँत बूढ़े मसूड़ों में कहाँ फिट होंगें रे।" दादी पोते को समझा रहीं थीं। शायद कहना चाह रहीं थी बूढ़ी चीज़ ही कहाँ कहीं फिट होती है रे?  बूढ़े मसूड़े पोपले मुँह के अंदर से खोखली सी हँसी हँसते हुये झाँक रहे थे।

©® टि्वंकल तोमर सिंह

Monday 12 August 2019

कामकाजी हूँ चरित्रहीन नही

"देख देख आज फिर वही उसको घर छोड़ने आया है।" पड़ोसन ने दूसरी पड़ोसन को कोहनी मारकर दिखाया। सामने निहारिका अपने कलीग की कार से उतर रही थी। "अपना ख़्याल रखना और कुछ ज़रूरत हो तो फ़ोन कर लेना।" कार में बैठे हुये शख़्स ने निहारिका से कहा। निहारिका ने मुस्कुरा कर जवाब दिया "श्योर।" फिर उसने वेव किया और कार वहाँ से चली गयी।

इतना सा ही दृश्य निहारिका की दोनों पड़ोसिनों के लिये कुछ भी काल्पनिक कहानी बुनने के लिये काफ़ी था। " देखा कैसे हँस हँस कर बात कर रही थी। मैं तो कहती हूँ शर्त लगा लो दोनों में कुछ चल रहा है।" पड़ोसन नंबर एक बोली।

"अरी बहन मैं भी अंधी नही हूँ। जब पति पत्नी से कम कमाये तो उसकी पत्नी ऐसी ही आवारा हो जाती है। इनकी महत्वकांक्षा इतनी बढ़ जातीं हैं कि पैसे प्रमोशन के लिये कुछ भी कर सकतीं हैं।"   पड़ोसन नंबर दो ने चटखारे लेते हुये कहा।

"मैं तो कहती हूँ कि हर कामकाजी औरत जब आदमियों के बीच आठ आठ घंटे काम करेगी तो थोड़ी बहुत हँसी ठिठोली न हो, हो ही नही सकता। एक हम लोग है अपने पति के अलावा किसी भी दूसरे आदमी से बात करते संकोच लगता है, भले ही वो हमारा रिश्तेदार क्यों न हो। और एक ये हैं रोज तितली बनकर निकलती है। किसलिए क्या हम समझते नही?" पड़ोसन नंबर एक ने अपने सती सावित्री होने की जैसे इन शब्दों में घोषणा कर डाली हो। साथ में निहारिका के फैशन स्टाइल को लेकर उनके मन में कितनी घृणा है कितनी ईर्ष्या है उसका पता भी दे डाला।

"सही कह रही हो बहन। पता नही कैसे इनके पति इन्हें बर्दाश्त कर लेते हैं। क्या आँख पर पट्टी बांध रखी है? जब हमें दिखता है तो क्या उसे नही दिखता होगा? कमाऊ बीवी की तो लात भी अच्छी लगती है। हुँह।" पड़ोसन नंबर दो को ये बोलकर गहरी आत्म संतुष्टि मिली थी। क्योंकि पहले इच्छा उनकी भी थी काम करने की पर परिवार की इच्छा के विरुद्ध कर न सकी। अब उनकी हालत खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे जैसी हो गयी थी।

"अरे दिखता सब होगा। देख लेना ज़्यादा दिनों तक वो भी बर्दाश्त न कर सकेगा। लिख कर रख लो यही हाल रहा तो आने वाले कुछ सालों में इनका तलाक पक्का है।" पड़ोसन होने के नाते इन्हें दूसरे का भाग्य बाँचने का भी अधिकार मिल गया था फौरन पड़ोसन नंबर एक ने सटीक भविष्यवाणी कर डाली।

"हाय राम। देख लो कुछ लोगों के लिये नौकरी शादी से भी बढ़कर होती है। ठीक भी है कोई पति आखिर किसी चरित्रहीन औरत को कब तक बर्दाश्त करेगा। स्वाभिमान भी कोई चीज़ होती है। " अचानक से पड़ोसन नंबर दो की संवेदनशीलता जाग उठी थी और समाज के गिरते स्तर की चिंता उन्हें सताने लगी थी।

अब अचानक पड़ोसन नंबर एक के दिल में ममता जाग गयी, "क्या कहती हो अगर इनका तलाक हो गया तो इनका बेटा किसके पास रहेगा?"

"मुझे तो लगता है अपने पापा के साथ ही रहेगा। इसके रंग ढँग देख कर तो नही लगता कि ये बेटे को अपने पास रखेगी।" पड़ोसन नंबर दो पहले ही निहारिका को चरित्रहीन घोषित कर चुकी थी अब चरित्रहीन औरत कहाँ परिवार बना कर रख सकती है।

"अरे चलो बहन हमें क्या लेना देना दूसरे की ज़िंदगी से। वो जाने उनका काम जाने।" पड़ोसन नंबर एक ने अपना सामान समेटा जैसे कि अपना फैलाया रायता समेट के ले जा रही हो।

" हाँ बहन सच है हमें क्या करना, कोई जाता है भाड़ में तो जाये।" पड़ोसन नंबर दो ने गहरी साँस ली और अपने घर चल दी।

और इस तरह बस एक छोटी सी घटना को बढ़ाते बढ़ाते दोनों पड़ोसिनों ने न केवल निहारिका को चरित्रहीन साबित कर दिया बल्कि उसके भविष्य का फैसला भी सुना दिया।

बस बात इतनी सी थी कि शेखर जो निहारिका के साथ ही काम करता है कभी कभी एमरजेंसी में उसे उसके घर ड्राप कर देता है। उस दिन भी निहारिका की ऑफिस में तबीयत ख़राब हो गयी थी। तभी उसने जाते जाते पूछा था कि किसी और चीज़ की जरूरत हो तो फ़ोन कर लेना क्योंकि उस दिन उसका पति शहर से बाहर था।

अगर निहारिका अपनी दोनों पड़ोसिनों की बातें सुन लेती वो शायद चिल्ला कर यही कहती - " कामकाजी हूँ इसका मतलब ये नही है कि चरित्रहीन हूँ आप कौन होती हैं मुझे मेरे करैक्टर का सर्टिफिकेट देने वालीं।"

कामकाजी महिलाओं को जाने अनजाने लोगों की ऐसी चुभती नज़रों का सामना करना पड़ता ही है। उन्हें दूसरों से हँसता बोलता देखकर लोगों के मन में ऐसे ही विचार आते हैं। लोगों को तो बस अपना ख़ाली समय काटने के लिये गॉसिप के लिये मटीरियल चाहिए होता है फिर इसके लिये किसी के चरित्र पर लाँछन ही क्यों न लगना पड़े।

©® टि्वंकल तोमर सिंह

द्वार

1. नौ द्वारों के मध्य  प्रतीक्षारत एक पंछी किस द्वार से आगमन किस द्वार से निर्गमन नहीं पता 2. कहते हैं संयोग एक बार ठक-ठक करता है फिर मुड़ कर...