Sunday 30 September 2018

अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे

अवंतिका को लखनऊ से सीतापुर रोज बस से अपडाऊन करना पड़ता था। कभी कभी बस खचाखच भरी होती थी। फिर भी वो उसमें चढ़ जाती थी घर पहुंचने की जल्दी में। उसे अपने एक साल के बेटे आयुष का चेहरा पास बुला रहा होता था, जिसे सोता छोड़ कर उसे सुबह सुबह 100 किलोमीटर दूर नौकरी पर जाना पड़ता था।

बस में आते जाते वो एक चार पांच अधेड़ उम्र के आदमियों का एक ग्रुप देखती थी । ये आदमी थोड़ा बुली टाइप के लोग थे। ये कभी भी किसी महिला को खड़े देखने के बावजूद अपनी सीट उसके लिये नही छोड़ते थे। उनका कहना था अगर ऐसे हम रोज़ रोज़ अपनी सीट छोड़ने लगे तो हो गयी डेली पैसेंजरी।

एक बार अवंतिका की तबियत बहुत खराब थी। उसे महीना चल रहा था, कमर दर्द से बेहाल थी। बस में एक सीट खाली देखकर ही वो चढ़ी थी, पर जब तक वो उस सीट तक पहुंचती कोई और आकर उस पर बैठ गया। 

अपनी हालत पर उसे खुद दया आने लगी। क्यों कर रही है वो ये नौकरी? उसकी आँखों से आंसू बरबस बहने लगे.....आधे रास्ते में एक सीट खाली हुई, तब जाकर उसे थोड़ा आराम मिला। पर उन आदमियों के ग्रुप में से किसी ने भी उसे परेशान देखकर भी अपनी सीट नही छोड़ी।

एक दिन चमत्कार हो गया। जब वो बस में चढ़ी तो उसी ग्रुप के एक श्रीमान ने अपनी सीट छोड़ते हुये कहा - " आइये मैडम, आप बैठ जाइये। हम आधा एक घंटा खड़े भी रह लेंगें तो कोई हर्ज नही।"

अवंतिका ने कुछ संकोच किया फिर बैठ गयी। वो श्रीमान उसके पास ही खड़े थे। बस की रॉड में लगे हत्थों को पकड़ कर झूलते हुये। कभी कभी बस के ब्रेक लगने के साथ उससे टकरा भी जाते। अब अवंतिका का दिमाग दूसरी ओर दौड़ने लगा। अपने ब्लाउज़ का गला उसे अचानक ही ज़्यादा बड़ा लगने लगा। वह अपनी साड़ी का आँचल खामख्वाह ही फिर से एडजस्ट करने लगी। बार बार वो नज़रे उठा कर उन अधेड़ उम्र के श्रीमान की ओर देखती कि उनकी नज़रे किधर है? 

वो श्रीमान भी उसकी ओर देखकर मुस्कुरा देते। अब अवंतिका का सन्देह गहराता जा रहा था। इन्होंने अपनी सीट देकर कोई अहसान नही किया है बल्कि ये उस सीट की कीमत वसूल रहे है।

"उफ़्फ़.... पुरुष नीच ही रहेगा....! "

तभी पीछे से उनके किसी मित्र ने पूछा - "क्यों यार सदानंद आज मामला क्या है ? अपनी सीट छोड़ कर खड़ा क्यों है तू "

"अरे यार... बिटिया की सरकारी प्राइमरी स्कूल में नौकरी लग गयी है। डेली 80 किमी सफ़र करके जाती है। कहती है पापा लोग कितने बदतमीज़ होते है। जेंटलमैन हो तो अपनी सीट किसी महिला के लिये छोड़ देना चाहिये न उनको? "

"बस क्या बताऊँ, अब किसी भी महिला को बस में परेशान देखता हूँ तो उसकी याद आ जाती है।"

अवंतिका ने राहत की सांस ली। स्त्री का दिमाग कुछ पूर्वाभासों के कारण हमेशा गलत ही सोचता है। उसने बेकार ही संदेह किया। पर उसे आज कक्षा में पढ़ाये हुये मुहावरों का स्मरण हो आया जिनमें से एक था - अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे। 

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Tuesday 18 September 2018

वायू प्रदूषण

हिमानी मैम क्लास में जैसे ही घुसी आकाश विकास एक दूसरे की ओर देख के मुस्कुरा उठे।

"क्या हुआ आकाश ? कोई खास बात ?"

"मैम जी, सोशल साइंस के सर ने प्रोजेक्ट बनाने को दिया था। विकास को इसमें A ग्रेड मिला है।"

" तो ये तो अच्छी बात है। इसमें हँसने वाली क्या बात है ?"

"मैम जी,प्रोजेक्ट पर्यावरण प्रदूषण पर था।"

"अच्छा तो ?"

"अ.. अ..कुछ नहीं मैम जी..."

"अरे बोलो तो हिचको नही.."

"मैम जी, इसने वायु प्रदूषण का उदाहरण लिखा था कि हिमानी मैम जब स्कूल के गेट की चढ़ाई पर कार चढ़ाती है तो उनकी कार बहुत धुआं देती है।
सर ने आपका नाम देखकर इसे A ग्रेड दे दिया। कहा वेरी गुड।"

Twinkle Tomar

Monday 17 September 2018

सबसे खूबसूरत औरत

" कितने साल पहनोगी ये साड़ी? पुरानी हो गयी है।"

"ये तुमने शादी की पहली सालगिरह पर दी थी। तब तुमने कहा था इस साड़ी में मैं दुनिया की सबसे खूबसूरत स्त्री लग रही हूँ।"

"पर अब दस साल हो गये है इसे। किसी को दे दो।"

टिया ने बेमन से साड़ी कामवाली को दे दी।

एक दिन कामवाली उसी साड़ी में गाना गुनगुनाते हुये काम कर रही थी।

"क्या बात है गुलाबो, आज बहुत खुश हो।"

"मेमसाब , आज मेरी शादी की पहली सालगिरह है। मेरा आदमी बोला तुम इस साड़ी में दुनिया की सबसे खूबसूरत औरत लग रही हो।"

Twinkle Tomar

Saturday 15 September 2018

चुम्बक


कहते है
अदना सा
लोहे का टुकड़ा
रूप बदल जब
चुम्बक बन जाता है
अपने से बारह गुना भारी
खालिस लोहे के टुकड़ों को
खींच लेता है

सुबह की
किरणों में नहाई
कॉफी मग में डूबी
खिड़की से आती हवा से
बाल सुखाती हुई
कुछ अदा से बैठी
अपने में मगन
एक चंचल लड़की
अनजाने ही
कई लौह पाषाण हृदयों को
अपनी ओर
खींच लेने वाली
चुम्बक बन जाती है
है न !

Twinkle Tomar

Tuesday 11 September 2018

दिये की लौ में खोट

एक 'चतुर' नौजवान एक कॉलेज में पढ़ता था। उसको 'स्त्री का मौन मुखर है' इस विषय पर प्रतियोगिता में भाषण देना था। उसकी मित्र एक पढ़ाकू लड़की थी, उसने इस विषय पर  एक लेख तैयार किया था। 'चतुर' नौजवान ने उसका रजिस्टर देख लिया और तुरंत गणना कर ली कि इसे भाषण के रूप में पढ़ा जा सकता है।

उसने तुरंत मोबाइल से भाषण की फोटो खींची । घर पर एक कागज में लिखा और अच्छे से रट लिया।
कार्यक्रम में जब उसने वही भाषण अच्छे से सही भाव भंगिमाओं के साथ पढ़ा तो उसकी बहुत वाह वाह हुई। और प्रथम पुरस्कार के लिए उसका नाम चुन लिया गया।
लड़की के एक मित्र ने उसे इस कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग सुनाई।लड़की हैरान रह गयी बिना उसकी अनुमति के उसके लेख का प्रयोग किया गया। उसी के शब्द और कहीं पर उसे क्रेडिट तक नही दिया गया।

लड़की ने अकेले में बड़ी 'उदारता' के साथ उस नौजवान से इस विषय में बात की। उनकी काफी सरस और सहज बातचीत इस विषय पर हुई। नौजवान ने उसे भरोसा दिलाया - बहन, मैं ऐसा सोच भी कैसे सकता हूँ ? मैं मां सरस्वती का उपासक हूँ, 'विद्या' का पुजारी हूँ। अवश्य ही मुझसे भूल हुई है। आगामी पुरस्कार वितरण में जब मुझे पुरुस्कार के लिये बुलाया जाएगा , मैं आपका नाम लेकर इस गलती को सुधार दूंगा कि इसका श्रेय आपको जाता है।

पुरस्कार वितरण हुआ ,तारीख बीत गयी। नाम न लिया जाना था न लिया गया।

फिर एक दिन उस 'चतुर' नौजवान से उस लड़की ने उसके दो दोस्तों के सामने इस बात का जिक्र कर दिया । उसने तुरंत चाशनी से भी मीठे मधुर शब्दों में कहा - "मौका मिला तो जनता के सामने मंच पर मैं अपनी इस बहिन को श्रेय जरूर दूंगा।"

लेकिन उसने ऐसा किया नही।

एक बार पुनः कॉलेज में एक वाद विवाद, साहित्य, कविता पर कार्यक्रम होने थे। उन्हीं मित्रों में से एक मित्र ने लड़की से अनुमति लेकर उसी लेख में प्रयुक्त कविता की कुछ पंक्तियों को लड़की के नाम के साथ पढ़ा और साथ में ये जिक्र भी किया ये जो नौजवान महोदय मेरे साथ बैठे है , इन पंक्तियों को मुझसे पहले कई बार पढ़ चुके है। ये जरूर मेरी बात से सहमत होंगे।
अब उस 'चतुर' नौजवान का मुंह देखने लायक था।

" आप विद्या के कितने ही बड़े पुजारी क्यों न हों, अगर आपकी नीयत में खोट है तो आपके विद्या के मंदिर स्थापित शुद्ध देसी के दिये की लौ में भी खोट रहेगा।"

Twinkle Tomar

हिन्दी है हम

सुनयना ने कॉफी का मग उठाया और बालकनी में कुर्सी पर अपनी पसंदीदा जगह पर जा बैठी। आज का दिन उसके जीवन में विशेष था। अतीत की किताब से एक भूला बिसरा पन्ना फिर उसकी आँखों के आगे नाच गया था।

सुनयना अतीत की गहराइयों में उतराने लगी।
पंद्रह वर्ष पहले की सपनीली रात की छाप आज भी उसके ज़ेहन में ताज़ा है जब वो अभिनय ठाकुरों की पत्नी बनकर अपने ससुराल पहुंची थी। घर भर के लोगों ने उसका भव्य स्वागत किया था। जेवर गहनों से उसे लाद दिया गया था मुंह दिखाई में। उसकी सखियाँ उसकी किस्मत से जल रही थी। हिंदी मीडियम से पढ़ी सुनयना इतनी भाग्यशाली निकली कि उसे एक मल्टी नेशनल कंपनी पर उच्च पद पर आसीन बढ़िया सैलरी पाने वाला दूल्हा मिल गया।

शादी के कुछ दिनों बाद सुनयना जब अभिनय के साथ उसके ऑफिस की पार्टी में जाती तो सबसे हाय हेलो के आगे कुछ बोल ही नही पाती थी। उसकी कंपनी में काम करने वाले सभी लोग इंग्लिश में ही बात करते थे। सुनयना उनकी बात पूरी समझ लेती थी और अपने मन में इंग्लिश के पूरे वाक्य भी बना लेती थी। पर उसे बोल पाने का साहस नही कर पाती थी।  जब अभिनय के दोस्त उनके घर आते थे तब भी यही होता था। उसके गले में शब्द घुट कर रह जाते थे। दोस्त समझते थे भाभी जी रिजर्व्ड हैं या फिर dumb हैं।

अभिनय को भी लगने लगा कि उसने सुनयना की डिग्री देखकर, उसकी सुंदरता पर मोहित होकर  उससे विवाह तो कर लिया पर सुनयना उसके लायक नही है। कल को अगर अभिनय को फॉरेन में शिफ्ट होने पड़ा तो सुनयना वहां कैसे एडजस्ट कर सकेगी? अकसर उसकी खीज़ सुनयना पर निकलती।

"कितनी dumb हो , हिंदी में एम ए की डिग्री लेकर बैठी हो। इंग्लिश का तो एक सेंटेंस नही बोल सकती। इंग्लिश स्पोकन कोर्स ही जॉइन कर लो।"

सुनयना उसे क्या समझाती? हिंदी मीडियम से पढ़ी लड़की उच्च शिक्षित होकर भी हिंदी भाषी ही रह जाती है। इंग्लिश स्पोकन कोर्स वैसे ही है जैसे एक लंगड़े का बैसाखी लेकर चलना। बैंगलोर जैसे बड़े शहर में इंग्लिश कम आने के कारण उसके ज्ञान का कोई महत्व ही नही रह गया।

धीरे धीरे सुनयना को समझ आने लगा कि उसे इस घर में वो सम्मान नही मिल सकता जो मिलना चाहिए।  अभिनय का सुनयना से विवाह बस इस आधार पर चल रहा था कि उसे अपना घर चलाने के लिये ,माता पिता की सेवा करने के लिये, सेक्स के लिये एक HIV मुक्त स्त्री का शरीर चाहिये था।

सुनयना का स्वाभिमान अधिक दिनों तक उस घर के घुटन भरे माहौल में उसे कैद न रख सका। एक दिन सब कुछ छोड़ छाड़ कर वो अपने मायके वापस आ गयी। माता पिता ने समझाया, पर खानदान में उनकी बदनामी वाला उनका विलाप उसे डिगा नही सका।

पढ़ाई ही अब उसका हथियार थी जीवन की जंग को जीतने के लिये। देखते देखते उसने बी एड किया। और देश भर के नामी गिरामी विद्यालयों में जहां हिंदी टीचर की भर्ती का विज्ञापन निकलता फ़ौरन फॉर्म भर देती। अंततः उसका चयन मुम्बई के विख्यात मदनानी इंटरनेशनल स्कूल में हिन्दी अध्यापिका के पद पर हो गया।

जल्दी ही उसने सफलता की सभी पायदानें हिंदी भाषा पर सशक्त पकड़ के कारण नाप डाली। पत्र पत्रिकाओं में उसके हिंदी लेख छपने लगे। शहर भर में जहाँ कहीं भी हिन्दी पर सेमिनार होते, हिन्दी भाषा के उत्थान के लिये गोष्ठी होती, हिंदी साहित्य के प्रचार प्रसार के लिये कोई सम्मेलन होता ,वहां सुनयना सिंह का नाम जरूर आता।

मुम्बई जैसे शहर में जहां इंग्लिश और मराठी का बोलबाला है ,वहाँ रईस खानदान के 'इंग्लिश स्पीकिंग पीपल' अपने बच्चों को हिन्दी की ट्यूशन पढ़वाने के लिये उसके आगे लाइन लगा कर खड़े रहते थे।

आज स्कूल ओवर होने के बाद उसने देखा एक ग्यारह बारह साल का लड़का अपनी मॉडर्न मॉम के साथ उसकी ओर आ रहा था।

लड़के ने गुड आफ्टरनून विश किया और मां ने बोला - "Mam , this is my son Aryan. Would you please give tuition to my son for Hindi ?"

सुनयना बिना झिझके आत्मविश्वास के साथ बोल रही थी-  "क्यों नही ? क्या परेशानी है इसको हिंदी में ?

" Well, he cannot write words correctly in Hindi. And he is not able to frame sentences. Hindi essays are far beyond his capacity. "

सुनयना हँसते हुये बोली " कोई बात नही, ये सब बहुत बड़ी बात नही है। मैं इसे जरूर पढ़ाऊंगी। हम हिंदुस्तानी है, अगर हमें हिन्दी न आये तो ये बहुत शर्म की बात है। मैं नही चाहती भाषा को लेकर कैसी भी शर्मिन्दगी किसी भी बच्चे को झेलनी पड़े।"

" शुक्रिया मैम, मुझे लगा आप इतना बिजी है। शायद आपके पास वक़्त न हो। इसलिये मैं परेशान थी।" - अबकी बार महिला अपनी इंग्लिश छोड़कर हिन्दी में आभार व्यक्त करने को मजबूर हो गयी थी।

"कोई बात नही आप इसे छोड़ जाइये। मैं स्कूल ओवर होने के बाद यहीं ट्यूशन देती हूँ। आप एक घंटे के बाद आ जाइयेगा।"

सुनयना आर्यन की ओर मुख़ातिब होकर बोली-
" अच्छा बेटा , हम आज एक निबंध लिखने की कोशिश करेंगे। कोई आसान सा टॉपिक लेते है।..उम्म ...हाँ.... मेरे पिता मेरे आदर्श ..!
क्या नाम है तुम्हारे पिता का ? "

" अभिनय ठाकुर" ....!

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Sunday 2 September 2018

राधा बिना कान्हा अधूरा

प्रतिष्ठा देवी अपनी पोती के जन्म से ज्यादा खुश नही थी। उनकी बहू प्रगति एक मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत थी। दोनों बेटा और बहु एक संतान से अधिक नही चाहते थे, क्योंकि एक ही बच्चे को अच्छी शिक्षा दीक्षा देना बहुत मंहगा और जिम्मेदारी वाला कार्य है।

एक बेटी के जन्म ने पोते के जन्म की आगे की सभी संभावनाओं पर क्रॉस लगा दिया था। खानदान के विस्तार की चिंता प्रतिष्ठा देवी के चेहरे की रेखाओं में स्पष्ट दिखने लगी।

प्रगति का सिजेरियन ऑपेरशन हुआ था इसलिये वो जल्दी घर गृहस्थी के काम संभालने में अभी सक्षम नही थी। प्रतिष्ठा देवी पैर पटकते हुए सारे काम निपटाती और अपने भाग्य का मातम मनाती जाती। पोता होता तो सभी काम खुशी खुशी करती।

धीरे धीरे समय बीत गया। और बच्ची भी थोड़ी बड़ी हो गयी। तभी प्रतिष्ठा देवी के बेटे आधुनिक ने एक नई सोसाइटी में फ्लैट ले लिया और वो सब वहां शिफ़्ट हो गये। इस सोसाइटी में कई तरह के रंगारंग कार्यक्रम होते रहते थे। हर त्योहार उल्लास के साथ मनाया जाता था।

जन्माष्टमी का त्योहार आ गया था। छोटे लड़कों को कान्हा जी का रूप धरना था और छोटी लड़कियों को राधा जी के रूप में तैयार होना था।

प्रगति बहुत मन से बाज़ार से बेटी के लिये एक खूबसूरत मोर के पंख की डिज़ाइन वाला लहंगा चुन्नी लायी। उसे खूब अच्छे ढंग से तैयार करने लगी।

"हां हां सजा ले बेटी को राधा बना के। पोता होता तो आज के दिन कान्हा के रूप में देख कर छाती में ठंड पड़ जाती।" - प्रतिष्ठा देवी ने ताना देते हुये कहा।


प्रगति ने ध्यान नही दिया। जानती थी उनके अंदर की खीज़ खाई हुई सास बोल रही है। वो अपनी बेटी को चूड़ी, बिंदी, पायल,से सजाती रही।

"हे राम, मेरे घर में भी एक कान्हा जी भेज देते तो क्या चला जाता ? हरे राम हरे कृष्णा" , प्रतिष्ठा देवी ने गहरी सांस लेते हुये चुभते हुये शब्दों में कहा।

प्रगति चुपचाप सुनती जा रही थी, जानती थी पलट कर तर्क देने का कोई फ़ायदा नही है। आज शायद कान्हा जी के नाम का विलाप करते हुये वो खाना भी नही खाएंगी । वो जानती थी ये सब डायलॉग और खाना न खाने का नाटक उस पर दूसरा बच्चा करने के लिये प्रेशर बनाने के लिये किया जा रहा है।

लहंगा चोली पहना कर उसने बच्ची के सर पर पल्लू रखा। अपनी बेटी का राधा रूप देखकर वो खुद ही उस पर मोहित हो गयी। उसने बलैयां ली कि कहीं उसकी सुंदर राधा को उसी की नज़र न लग जाये । झट से काजल की डिबिया ले आयी और कान के पीछे टीका लगा दिया।

बच्ची छम छम करती, इतराती हुई अपनी दादी के पास पहुंची। अभी उसे इतनी समझ ही कहाँ थी कि दादी क्यों रूठी हुई थी?

"दादी, देखो मैं किसी लग रही हूँ?"

उसका सुंदर रूप देखकर प्रतिष्ठा देवी की आंखों में प्यार उमड़ आया। उन्होंने भी अपनी पोती की बलैयां ली ,आखिर वो थी तो उनके ही ज़िगर का टुकड़ा। बस मन में ये भाव आ रहा था -"काश ,तुम मेरी कान्हा होती !"

तब तक आधुनिक भी लौट आया। और सभी लोग नियत समय पर कार्यक्रम में शामिल होने को चल दिये। मंच सजा था, उद्घोषक महोदय ने अपना माइक संभाल रखा था। सब अपने बच्चों को सुंदर सुंदर तैयार करके लाये थे।

उद्घोषक ने घोषणा की सभी अपने बच्चों को मंच पर भेज दें। सजे धजे कान्हा जी और राधा जी ठुमकते हुए मंच पर पहुंच गये। मंच गुलज़ार हो गया था। उद्घोषक महोदय ने कान्हा और राधा का एक एक जोड़ा बना दिया। लेकिन एक समस्या आन खड़ी हुई, कान्हा तो ग्यारह थे,पर राधा सिर्फ दस। तभी म्यूज़िक ऑन कर दिया गया - " ओ राधा तेरी चुनरी ओ राधा तेरा छल्ला ओ राधा तेरी नटखट  नज़रिया....।

छोटे छोटे बच्चे गीत के बोलो पर अपने मन से एक्शन करने लगे। दर्शक उन्हें ठुमकते , गिरते पड़ते डांस करते देखते आनंद से फूले नही समा रहे थे। कोई फ़ोटो खींचने लगा तो कोई वीडियो बनाने लगा। सबको अपना बच्चा ही सबसे प्यारा लग रहा था। रंग बिरंगे वस्त्रों में सजे धजे बच्चों ने वाकई सम्मोहन कर दिया था दर्शकों पर।

बस दस जोड़े तो बहुत प्यारे और पूर्ण लग रहे थे। ग्यारहवां कान्हा जो अकेले ठुमक रहा था, वो थोड़ा नर्वस लग रहा था और बाकी जोड़ों की तरफ देख देख के डांस कर रहा था। बीच बीच में रुक जा रहा था। जब कान्हा और राधा का एक दूसरे का हाथ पकड़ कर नाचने वाला स्टेप आया तो वो अकेले ही चक्कर लेने लगा। उसको देखकर लोग हंसी से लोट पोट हो जा रहे थे। लोग पेट के बल गिरे जा रहे थे।

मगर प्रतिष्ठा देवी की आंखें उस कान्हा को देखकर जलमग्न हो गयीं। जैसे कान्हा ने अपना मुंह खोलकर यशोदा मां को ब्रह्मांड के दर्शन करा दिये थे, वैसे ही इस छोटे से नटखट कान्हा ने उन्हें आज एक अद्भुत ज्ञान के दर्शन करा दिये। वो उस छोटे से कान्हा में अपना पोता देखने लगी। उन्हें लगा ये अकेला पड़ गया कान्हा उनका पोता भी हो सकता था। अगर सभी सिर्फ कान्हा ही चाहेंगे तो राधा कहाँ से आयेंगी ? ऐसे तो राधा के बिना कान्हा अधूरा रह जायेगा !
©® Twinkle Tomar

द्वार

1. नौ द्वारों के मध्य  प्रतीक्षारत एक पंछी किस द्वार से आगमन किस द्वार से निर्गमन नहीं पता 2. कहते हैं संयोग एक बार ठक-ठक करता है फिर मुड़ कर...