Tuesday 29 October 2019

मुझे मेरी मम्मी जी वापस चाहिए

"तुम्हारी सास इतने चटकीले कलर पहन लेती है?" नेहा ने अपनी सहेली ऋतु से कहा जो अपनी सास के लिये साड़ी पसंद कर रही थी।

" हाँ...क्यों...क्या ख़राबी है इन रंगों में।" ऋतु ने पलट कर पूछा।

" ख़राबी कुछ नहीं...मेरा मतलब है कि तुम्हारी सास तो अभी कुछ ही महीने पहले.....मेरा मतलब....तुम्हारे ससुर को गुज़रे हुये अभी डेढ़ महीना ही तो हुया है न ऋतु?" नेहा थोड़ा अटकते अटकते बोला। 

" हाँ... नेहा...तो उससे क्या हुआ?...तुम शायद ये कहना चाहती हो कि उन्हें सफ़ेद या हल्के रंग पहनने चाहिए...है न?" ऋतु ने मंद मंद मुस्काते हुये कहा। 

" ऋतु मैं तुमको हर्ट नहीं करना चाहती। बस यूँ ही मन में आया तो पूछ लिया।" नेहा ने शर्मिंदा होते हुये कहा। 

" इट्स ओके...मुझे बुरा नहीं लगा। जानती हो मेरी सास को हमेशा से चटक रंग बहुत पसंद थे...वो कभी फ़ीके रंगो के कपड़े नहीं पहनती थीं।" ऋतु जैसे अतीत में चली गयी थी। 

" पापा जी के गुज़र जाने के बाद जब मैंने उन्हें सफ़ेद साड़ी में देखा....." इतना कहकर ऋतु की आँखें नम हो गयीं। नेहा उसकी पीठ सहलाने लगी। ऋतु ने रुमाल निकाला और अपनी छलक आयी आँखों को पोछ डाला। फिर आगे कहने लगी," जब मैंने उन्हें सफ़ेद साड़ी में देखा तो मुझे बहुत बुरा लगा...पापाजी के चले जाने के बाद वो एकदम बुझ सी गयीं थीं...उनको देखकर मैं बस ये सोचती रहती थी... क्यों बनाई गई ये रीत?....जो बुझ गया है बुझा ही रहे इसलिये?..."

" रंगों का अपने मन पर कितना असर पड़ता है जानती ही हो...आपने आस पास ढेर सारे रंग हों तो मन भी प्रफुल्लित हो जाता है...सबसे बड़ी बात....मुझे लगता ही नहीं था कि वो मेरी सास हैं। मुझे लगने लगा था कोई और मेरे साथ इस घर में रहने लगा है....सफेद साड़ी में लिपटी कोई अनजान महिला...जिसे मैं पहचानती तक नहीं..." ऋतु खोई खोई कहती जा रही थी। 

" फिर एक दिन मैंने मम्मी का हाथ पकड़ा और उनकी अलमारी खोलकर उसके सामने उन्हें खड़ा कर दिया....क्या करेंगी आप इन सब साड़ियों का?...इनमें से कुछ तो आप जीते जी सीने से लगा कर रखेंगी क्योंकि पापाजी ने आपको ला कर दी थी..कुछ आप मुझे या दीदी को दे देंगी...पर उससे क्या हासिल होगा?"

" मम्मी... पापा गये हैं....आप वहीं हैं...पापा भी आपको ऊपर से इस रूप में दुखी देखते होंगे तो ख़ुश नहीं होते होंगे। सफ़ेद साड़ी पहन कर आपको कौन सी उपलब्धि मिल जा रही है? क्या मैं जानती नहीं आपको चटक रंग कितने पसंद है?...मुझे मेरी मम्मी जी वापस चाहिये...रंग बिरंगी....मेरा नहीं तो शोमू का ही ख़्याल कर लीजिये। डेढ़ साल का है... सफ़ेद साड़ी में जबसे आपको देखा है आपसे पास जाने तक से डरता है...उसे उसकी दादी वापस दे दीजिये।" 

"जब इतना मैंने उन्हें समझाया तब जाकर उन्होंने वापस रंग बिरंगी साड़ियां पहननी शुरू की है...नेहा...इससे क्या फर्क पड़ता है कि वो विधवा है?...रंगों पर भगवान ने सबको अधिकार दिया है।" ऋतु मुस्कुरा दी और नेहा भी। 


©® टि्वंकल तोमर सिंह, लखनऊ।



Monday 28 October 2019

लोहे की कढ़ाही

नये जमाने की बहू थी....पढ़ी लिखी समझदार। एक दिन बाज़ार से नॉन स्टिक कढ़ाही ले आयी। " ये देखिये मम्मी जी। ये नये तरह की कढ़ाही चलती है अब। लोहे की कढ़ाही की तरह जलती नहीं है। न ही इसे घंटों घिस घिस कर माँजना  पड़ता है। बस स्क्रबर से ही साफ़ हो जाती है।" 

" पर बहू क्या इसमें बनी सब्जी में स्वाद आयेगा? और फिर कहते है इसमें बनी सब्जी से आयरन...." सास ने थोड़ा हिचकते हुये कहा। 

बीच में ही बहू ने बात काट दी..." स्वाद तो मसाले और सब्जी में ख़ुद ही होता है, मम्मीजी जी... कढ़ाही का इससे क्या लेना देना...और आयरन तो आजकल अच्छे खानपान और गोलियों से मिल जाता है। " मॉर्डन बहू ने नई नवेली कढ़ाही बर्तनों के बीच सजा दी। 

नयी नवेली नॉन स्टिक कढ़ाही पुराने बर्तनों के बीच में एकदम रानी की तरह इतरा रही थी। उसका रुतबा ही अलग था। कहाँ वो इतनी महँगी, नाज़ुक सी, कोमल सी, सहेज कर रखी जाने वाली चीज़। कहाँ वो पुरानी लोहे की बदसूरत सी कढ़ाही, जितना भी पटको कुछ असर नही होता था उस पर। कुछ दिनों तक लोहे की कढ़ाही उपेक्षित सी इधर उधर पड़ी रही। उसमे जंग लगने से वो और बदसूरत हो चुकी थी। आख़िरकार उससे ऊबकर बहू ने उसे महरी को दे दिया। 

समय बीता बहू माँ बनी, बच्चों में ख़ुद का ख़्याल रखना भी भूल जाती थी। आयरन की गोली तो क्या रोटी खाने तक का समय उसके पास नहीं रहता था। एक दिन चक्कर खा कर गिरी। डॉक्टर ने ब्लड टेस्ट कराया, मालूम पड़ा हीमोग्लोबिन सात-आठ पहुँच गया था। डॉक्टर ने जम कर डाँट लगाई। कहा," खान पान सुधारिये अपना। जीवन शैली बदलिये। सब्जी किसमें पकाती है आप? "

" नॉन स्टिक कढ़ाही में।" बहू ने सहमते हुये उत्तर दिया। 

" उफ़्फ़ ये आज कल की लड़कियाँ।" डॉक्टर पुरानी थीं और बहुत अनुभवी थीं।" आप को एक सलाह देती हूँ नॉनस्टिक का प्रयोग बंद करिये। नयी खोजों में पता चला है नॉन स्टिक बहुत हानिकारक होता है। ऐसा करिये लोहे की कढ़ाही में खाना बनाइये, स्पेशली हरी पत्तेदार सब्जियाँ...आयरन की कमी अपने आप दूर हो जायेगी। गोलियों पर भी बहुत अधिक निर्भर रहना ठीक नहीं है।" 

मुँह लटका कर बहू बाज़ार गयी, वहाँ से एक लोहे कढ़ाही लाकर घर में बर्तनों बीच में सजा दी। " मम्मीजी डॉक्टर ने कहा है लोहे की कढ़ाही में सब्जी बना कर ही खानी है।" बहू ने अपनी सास से थोड़ा सकुचाते हुये कहा। सास रसोई में ही खाना पका रही थीं। 

सास ने बर्तनों के बीच में रखी लोहे की कढ़ाही की ओर देखा। लोहे की कढ़ाही और सास दोनों एक दूसरे को देखकर मुँह दबाकर हँसने लगीं।  

©® टि्वंकल तोमर सिंह, लखनऊ।

Saturday 19 October 2019

पगड़ी दी लाज

पगड़ी दी लाज

ऑस्ट्रेलिया स्थित उसके घर पर पत्थर फेंके गये, उसे ब्लडी इंडियन कहकर अपमानित किया गया, बेइज्ज़त करने वाले स्लोगन और पोस्टर्स उसके घर की चारदीवारी के अंदर फेंके गये।


'वाहेगुरु....पगड़ी दी लाज राख्यो"- नस्लवाद का शिकार होने की पीड़ा उसके आँखों से अश्रु बनकर बह रही थी। वह अपने घर के एक अँधेरे कोने में बैठा इन सारे चाबुकों को बरदाश्त कर रहा था।

हताश होकर ऑस्ट्रेलियन यूनिवर्सिटी में कार्यरत उस प्रोफ़ेसर ने श्रीगुरुग्रंथसाहिब खोली। प्रणाम करके उसने आँखें बंद कर ली। एक ही क्षण में उसकी बंद आँखों में उसका गाँव, सरसों का खेत, कच्ची मिट्टी के घर, आम के बगीचे, गाँव के बीचोंबीच लहराता पीपल का पेड़, पेड़ के नीचे चौपाल, उसके सरपंच पिता सब एक साथ सजीव हो उठे।

"मेरे वतन, तुमने मुझे भर भर के सम्मान दिया मुफ़्त में। पर मैं उसकी कदर न कर सका। अगर चाहूँ तो वो सम्मान,वो आदर, वो प्यार यहाँ सोने के सिक्के देकर भी नहीं खरीद सकता।" श्रीगुरूग्रंथसाहिब सीने से लगा कर वो उस बच्चे की तरह रोने लगा, जो अजनबियों से भरे मेले में अपनी माँ का हाथ छूट जाने पर गुम हो जाता है।


©® टि्वंकल तोमर सिंह
        लखनऊ।


बुरा वक़्त

सबसे निम्नतम स्तर का संघर्ष होता है अपने आप को स्वस्थ रखने की जद्दोजहद। 

किसी और व्यक्ति के साथ, सराहना, सहारे की क्या आशा रखना, जब तुम्हारा अपना शरीर ही साथ न दे रहा हो।

इससे बुरा वक़्त जीवन में और क्या होगा जब आप के शरीर में ऊर्जा का स्तर निम्नतम हो जाये। चाहे शारीरिक बीमारी के कारण, चाहे मानसिक बीमारी के कारण। और आप अपने तन और तदानुसार मन से एक तगड़ी लड़ाई लड़ रहे हों।

सही ऊर्जा के विद्युत् से ही सब कुछ सधा रहता है  घर, परिवार, मित्र,रिश्तेदार, नौकरी, संगी- साथी, अधिकारी सब। ये ऊर्जा है आपके पास तो आप दाता बने रहते हैं - 'डोनर'। जब आपके जीवन के प्याले से ये रस रिस जायेगा, तो आप किसे कुछ दे पायेंगे? 

आपसे भूल होगी, चूक होगी, कर्तव्य निर्वाह नही हो पायेगा। आप डोनर नहीं रहेंगे तो एक एक करके सब कन्नी काट जायेंगे। जो अपना ध्यान रखने के लिये ही संघर्षशील है वो दूसरे का ध्यान भला कैसे रख पायेगा ? पर इस बात को कोई समझेगा नहीं। 

याद रखिये, ज़िन्दगी में आरक्षण नहीं मिलता। कहीं भी किसी बिंदु पर। आप स्वस्थ है, ऊर्जावान है, सफल है तभी आपकी जय जयकार है। आप लंबे समय के लिये अस्वस्थ हुये तो लोगों के लिये आप झेलाऊ हो जायेंगे। आप जीवन में असफल हुये तो वो सब जो आपके पक्ष में थे, आपसे प्यार करते थे, जाने अनजाने आपको कोसने लगेंगे । 

सब बर्दाश्त कर लेना। बस एक बात दोहराते रहना - " कोई भी व्यक्ति बुरा नहीं होता, वो भी नही जो तुम्हारा दिल दुखा दे, वो भी नहीं जो साथ छोड़कर चला गया। बुरा सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारा वक़्त होता है।" 

~ Twinkle Tomar Singh

Friday 18 October 2019

चुभन

" ये क्या बहू ? बिछिया कहाँ गयी तेरी?" सावित्री देवी ने कड़क आवाज़ में पूछा।

" वो मम्मीजी...वो..चुभ रही थी तो उतार दी।" बहू ने पैरों को साड़ी के अंदर पीछे करते हुये कहा। 


" कितनी बार समझाया है मत उतारा करो। सुहाग की निशानी है। समझ ही नहीं आता ये आज कल की लड़कियों को। न बिछिया पहनेगीं, न हाथ में भर भर चूड़ियाँ पहनेगीं , न पैरों में पायल। हम तीन तीन बिछिया पहन कर दिन भर काम करते थे। और एक ये हैं नाज़ुक महारानी। नौटंकी है बस।" सावित्री देवी का बड़बड़ाना शुरू हो गया था। 


रिमझिम ने सास का बड़बड़ाना सुना तो चुपचाप कमरे में जाकर अपने ज्वैलरी बॉक्स से बिछुवे निकाले और अपनी सूजी हुई पैर की उंगलियों पर बेदर्दी के साथ चढ़ा दिये। सास की बातों से उसका मन आहत हो गया था। मन को मिली पीड़ा के आगे शरीर को मिली पीड़ा कोई अहमियत नहीं रखती। 

उसी शाम रिमझिम की ननद का अपने मायके आना हुया। तीन दिन रुकने का प्रोग्राम था उसका। आधुनिक परिधान में सजी धजी, अपने स्ट्रेट बालों को लहराते हुये वो कार से उतरी। उसे देखकर सावित्री देवी के सीने से तो जैसे ममता का सागर संभाला ही नहीं जा रहा था। ड्राइंगरूम में आकर रिमझिम की ननद ने अपने जूते खोले और उतार कर एक तरफ़ रख दिये। उसके पैरों में बिछिया नहीं थी। 

सावित्री देवी की पैनी नज़र बिन बिछिया के पैरों पर जम गयी। " अरे सोना, तूने बिछिया नहीं पहनी?" टोके बग़ैर उनसे नहीं रहा गया। 

"अरे मम्मा, आज कल दिल्ली में कोई नहीं पहनता। और फिर जूते पहनो तो गड़ती है बिछिया।" सावित्री की सोना बेटी ने लापरवाही से उत्तर दिया। 

" हाँ ठीक है बेटी। तुझे तो रोज़ ही जूते पहन कर काम पर जाना है। कहाँ रोज़ रोज़ उतारोगी और पहनोगी।" सावित्री ने सोना की बात का समर्थन करते हुये कहा। कहते है ममता अंधी होती है। पर उसे अपनी संतान का दर्द कुछ ज़्यादा ही अच्छे से दिखायी देता है। 


रिमझिम जो पानी लेकर आयी थी, अपनी सास की बात सुनकर आश्चर्य से उनका मुँह ही देखती रह गयी। सावित्री उससे नज़रें नहीं मिला पा रही थी। 


©® टि्वंकल तोमर सिंह
        लखनऊ।


Thursday 17 October 2019

मानव मूर्ख लकड़हारा

"पापा क्या खरगोश इसी ट्री के नीचे आराम करने के लिये रुका था?" नन्हे से बच्चे ने अपने पापा से पूछा।

" हाँ बेटा यहीं रुका था।" पिता ने उत्तर दिया। 

" मैंने स्टोरी बुक में सेम इसी ट्री की फ़ोटो देखी थी न, इसलिये पहचान गया।" ये कहते हुये बच्चा ख़ुशी से फूल गया।

"हाँ बेटा, यू आर वेरी इंटेलीजेंट। और वो चिड़िया भी इसी पेड़ पर रहती थी जो अपने बच्चों को खाना खिलाने के बाद आग में कूद गई थी।" पिता ने बच्चे से संवाद बनाये रखने के लिये एक और कहानी उसे याद दिलायी।

"यस पापा, मुझे याद है वो स्टोरी भी। और वो वुडकटर भी इसी पेड़ की डाल पर बैठा था न, जो डाल को काट रहा था।" बच्चे ने फिर उत्साह के साथ कहा। 

"हाँ बेटा।" पिता ने एक ठंडी साँस लेकर छोड़ते हुये उत्तर दिया। पिता की आँखों में एक गहरी पीड़ा उभर आयी। पिता ने आस पास नज़र दौड़ायी, मैदान का इकलौता पेड़ था वो। किताबों में पढ़ी हुयी कहानियों में जिस पेड़ का बार बार ज़िक्र आता है वो पेड़ अब उनके घर के आस पास बचे ही नहीं थे। पिता ने अपना समय याद किया जब पेड़ उनके लिये कोई अजूबी वस्तु नहीं होते थे। आज पाँच किलोमीटर दूर कार चला कर ये वृहद वृक्ष दिखाने के लिये पिता को पुत्र को लेकर यहाँ आना पड़ा था। 

पिता को लगा अगर ध्यान से सुनो तो कहानियाँ अलग ही दास्तान सुनाती हैं। खरगोश की तरह मानव भी आराम करता था पेड़ के नीचे कभी। हर संभव सहूलियत ली उसने उनसे। 

जैसे उस पक्षी ने अपने बच्चों के लिये स्वयँ को मिटा दिया, वैसे ही प्रकृति ने मानव को अपना बच्चा समझकर अपना सब कुछ उसे सौंप दिया, मिटा दिया स्वयँ को उसकी आवश्यकताओं के लिये।

पर आख़िर में मनुष्य वही मूर्ख लकड़हारा साबित हुआ जिसने उसी डाल को काट डाला जिस पर वो बैठा हुआ था। 

©® टि्वंकल तोमर सिंह, लखनऊ। 
 
       

Wednesday 16 October 2019

उसके साथ निभा लोगे ?

"तो फिर?" मैंने अपनी आँखों से आख़िरी बार उसकी आँखों की तलाशी लेनी चाही। शायद अब भी कहीं कुछ मिल जाये।

"फिर यही कि बच्चे तुम्हारे साथ रहेंगे और मैं मिलने आऊँगा हर महीने।" उसने भी ये शब्द बड़ी कठिनाई के साथ निकाले थे हलक से।

"ठीक है, फिर यही सही।" मैंने अपना पर्स उठाया और एक हारे हुये जुआरी की तरह टेबल छोड़ कर उठ गई। न मालूम क्यों लग रहा था। ये रोक लेगा। कह देगा ग़लती हो गयी। माफ़ कर दो। नहीं रह सकता तुम्हारे बिना। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मेरी सारी सेवा, कर्तव्यपरायणता, गृहस्थी बनाने की दिन रात की मेहनत और उससे भी ऊपर उसके लिये मेरा समर्पण सब व्यर्थ गया।

आँखों में आँसू टपकने के लिये जैसे बस प्रतीक्षा ही कर रहे थे कि ये दृश्य बदले तो लावा की तरह फूट पड़ें। अंदर से पूरी की पूरी नम हो चुकी थी। उस एक क्षण कितना ख़ाली कितना बेबस महसूस किया मैंने। कैसे कहूँ रोना भी है तो तुम्हारे ही कंधे पर।

'तुम्हारा कंधा' पर वो तो अब किसी और का हो चुका था। गृहस्थी और दो बच्चों में फँसी मैं ये देख ही नहीं पायी कि कितनी मोटी, बेडौल, अनाकर्षक हो गयी हूँ। दिन भर की थकी-मांदी बिस्तर पर उसका साथ ही नहीं दे पाती हूँ। पाँच मिनट उसके पास बैठ कर उससे बात करने का वक़्त ही नहीं है मेरे पास।

फिर....वो कब दूसरी की ओर झुकता चला गया पता ही नहीं चला।

वो अभी भी सिर झुकाए टेबल पर बैठा था। मैंने धीरे धीरे कदम दरवाजे की ओर बढ़ा दिये थे। हारा हुआ जुआरी भी एक आख़िरी चाल खेल कर जाता है शायद इस बार उसकी जीत हो जाये। शायद ये दाँव चल जाये।

मैं पीछे को पलटी। वो बिल पे करके उठने ही जा रहा था। मैं अपने अंदर की बरसात को जज़्ब करते हुये उसके पास पहुँची और उसकी आँखों में आँखें डाल कर मैंने पूछा- "बस इतना बता दो तुम इतने श्योर कैसे हो कि मेरे साथ निभा नहीं पाये, पर उसके साथ निभा लोगे?"

©® टि्वंकल तोमर सिंह
        लखनऊ।

Sunday 13 October 2019

अरे मोरा सैया सायको

कल रात को मैंने एक बड़ी ज़ोरदार रोमांटिक फ़िल्म देखी जिसमें हीरो हीरोइन में सच्चा वाला प्यार हो जाता है फिर वो विवाह के बंधन में बंध जाते हैं। फिर उसके बाद शुरू होते है उनके बीच पति पत्नी वाले झगड़े। और फिर आख़िर में पत्नी का एक्सीडेंट होता है, पति को उसकी अहमियत पता चलती है। वो उसे बेतहाशा मिस करने लगता है। फिर आख़िर में सब कुछ ठीक होकर फ़िल्म ख़त्म ही जाती है।

अब आप पूछेंगे इसमें क्या ख़ास बात है। तो ख़ास बात ये है कि मुझे भी अचानक ने अपने बगल में सोये हुये आधे से ज़्यादा बिस्तर पर कब्ज़ा किये हुये पति पर बेतहाशा प्यार आने लगा। जैसे लगा कि भगवान ने मेरी आँखें खोल दीं क्यों तू बेकार में पति से छोटी छोटी बातों पर लड़ती है? दुनिया तो आनी जानी है। कल क्या हो किसको पता? इसलिये हे नारी! सारे अहँकार मिटा दे और आज से सिर्फ और सिर्फ अपने पति को समर्पित हो जा। नो झगड़ा नो लड़ाई !

तो दूसरे दिन मैं समय पर उठ कर चाय बना कर अपने कमरे में ले आयी। पति अभी बिस्तर से उठे भी नहीं थे। मुझे ऐसे आँखे फाड़ फाड़ कर देखने लगे जैसे मैं नहीं पड़ोसी की पत्नी सुबह सुबह उनके लिये चाय बना कर लायी हो। " क्या हुआ ?" मैंने अभिमान वाली जया भादुड़ी की तरह अपने गीले बालों को झटकते हुये अदा के साथ कहा। पहले तो जो पानी की बूंदे उनकी नाक में अवैध रूप से घुस गयीं उसके कारण उन्हें दस नॉनस्टॉप छींकों का जुर्माना भरना पड़ा। और मुझे अपने फ़िल्मी रोमांस का कचरा होते दिख रहा था। पर मैंने अपनी जया भादुड़ी सरीखी मुस्कान को कतई धूमिल नहीं होने दिया।

पतिदेव थोड़ा संभले फिर बोले - "सब ठीक तो है तुम्हारे मैके में?" मैं सोच रही थी कि अभी ये अमिताभ की तरह मुझे अपने पास खींच लेंगे और कहाँ इन्होंने ऐसा बकवास का प्रश्न दाग कर सारा मज़ा किरकिरा कर दिया। " क्यों मायके का क्या लेना देना इस सुबह की चाय से?" मैंने खीज छुपाने का पूरा पूरा प्रयास किया।

" अरे वो मुझे लगा कि तुम अपने मायके जा रही हो इसलिये इतनी जल्दी तैयार होकर टिप टॉप होकर बैठी हो। वर्ना सुबह दस आवाज़ देने से पहले कहाँ एक कप चाय नसीब होती है।" पति ने अख़बार उठाते हुये कहा जो मैं फ़िल्मी स्टाइल में ट्रे में रखकर लायी थी।

सच बोलूँ तो अंदर ईगो हर्ट हो ही गया था। पर उसे फिर बच्चे की तरह पुचकार कर चुप बैठा दिया। " अरे नहीं अभी कहाँ कोई मौसम है मायके जाने का। कोई शादी ब्याह नहीं पड़ना अभी। कोई भाई बहन भी नहीं लौट रहे वहाँ।" मैंने नकली मुस्कान से अपने चेहरे को सुंदर बनाये रखने का भरकस प्रयास किया। सच कहूँ तो बड़ा बुरा लग रहा था, दस मिनट हो गये थे पर प्रेम के दो बोल न निकले उन दरार पड़े होंठों से।

"अच्छा, तो फिर क्या किसी सहेली के साथ घूमने जाने का प्रोग्राम है?" निर्विकार भाव लिये सपाट चेहरे से एक और प्रश्न आया।

अब तो जले पर नमक हो गया ये तो। हद हो गयी पिज़्ज़े में एक्स्ट्रा चीज़ झट से नज़र आ जाती है। और मेरी आँखों में उन्हें अपने लिये ये प्यार का एक्स्ट्रा डोज़ अभी तक नज़र ही नहीं आया?

" नहीं जी। बात ये है कि आज से मैंने सोचा है कि तुमसे कभी किसी बात पर झगड़ा नहीं करूँगी। अरे ज़िन्दगी दो दिन की है कब क्या हो जाये क्या पता।" शर्माते हुये मैंने सारे इमोशन्स अपने शब्दों में उंडेल दिये थे। " जानते हो,आई लव यू सो मच।"

इसके बाद जो उन्होंने किया आप ही बताइए क्या किसी पति को ऐसा करना शोभा देता है? मेरी ओर पांच सेकेंड तक उन्होंने सशंकित नज़रों से ऐसे देखा जैसे कि इमरान खान मोदी के पास शांति वार्ता का प्रस्ताव लेकर आये हो। फिर अचानक से वो बिस्तर से कूद कर उठे। बेड के बगल के स्टूल पर रखे हुये अपने डेबिट और क्रेडिट कार्ड को उन्होंने बीनकर तुरन्त अपने पर्स में रखे, पर्स पड़ोस में खड़ी अपनी अलमारी में सुरक्षित स्थान पर रखकर उसे लॉक करके चाभी अपनी जेब में डाल कर बैठ गये। और फिर चाय का कप अपने हाथ में लेते हुये बोले- "आई लव यू टू।"

©® टि्वंकल तोमर सिंह

Monday 7 October 2019

दालमोठ की सब्जी

रेणु, सुशीला ऑन्टी आ रहीं हैं आज शाम को। उनको आलू टमाटर की सब्जी और मक्के की रोटी बहुत पसंद है। यही बना लेना आज खाने में।" रेणु की सास उसे निर्देश दे रहीं थीं।

"जी मम्मी जी। " रेणु ने आज्ञाकारी बहू की तरह उत्तर दिया। रेणु बहू तो आज्ञाकारी थी पर उसकी एक आदत बड़ी बुरी थी। वो थी फ़ोन पर बात करने की। हर समय उसके मायके से कोई न कोई फ़ोन करता रहता था कभी मम्मी,कभी पापा, कभी छोटी बहन, कभी भाभी कभी कोई अड़ोसी पड़ोसी। और इन सब से वक़्त बच जाये तो उसकी अपनी सहेलियों से उसकी फ़ोन पर बात होती रहती थी।

सुशीला ऑन्टी के आने से पहले रेणु ने खाना बनाने की तैयारी शुरू कर दी। आलू टमाटर की सब्जी उसके हाथ की बहुत स्वादिष्ट बनती थी। बढ़िया प्याज़ भून कर ढेर सारे टमाटर हरी मिर्च डाल कर उसने बढ़िया सब्जी तैयार कर डाली।

बस एक ही गड़बड़ ही गयी। सब्जी बनाते समय वो कान में इयर प्लग लगा कर फ़ोन पर अपनी मम्मी से बात कर रही थी। किसी महत्वपूर्ण विषय पर उसकी माँ से बात चल रही थी। " अरे हाँ मम्मी, तो भाभी को समझा दो न चाचा जी से ऐसे न बोला करें।" अब आप तो जानते ही हैं औरत जब अपनी माँ से बात करे और वो अपनी भाभी की बुराई भलाई वाली बातें तो उसे अपने आस पास की दुनिया की कोई ख़बर कहाँ रह जाती है। बस यही वो वक़्त था जब गड़बड़ हुई। एक गैस पर वो चाय बना रही थी और दूसरी गैस पर उसने सब्जी चढ़ा रखी थी। उसे ध्यान नहीं रहा और उसने गर्म मसाले की जगह दालमोठ सब्जी में डाल दी। और बेख्याली में उसके हाथ से डिब्बा फिसला और ढेर सारी दालमोठ नीचे खौलती हुयी सब्जी में गिर गयी।

डालने के बाद उसका ध्यान गया कि उसने क्या कर दिया है। "अच्छा मम्मी बाद में बात करती हूँ।" कहकर उसने फ़ोन काटा। और दाँतों से जीभ काट ली। अब क्या करे? सास को बताया तो वो काट डालेंगीं। पहले ही मना कर चुकी हैं वो कि खाना बनाते समय फ़ोन पर बात मत किया करो।

पर और कोई चारा नहीं था। उसने सास को डरते डरते बताया कि क्या गड़बड़ हो चुकी है। पहले तो सास ने सिर पीट लिया। पर अब दूसरी सब्जी बनाने का वक़्त भी नहीं था। तो सास ने कहा- " चलो तुम इसी को डाइनिंग टेबल पर सजाओ। मैं देखती हूँ क्या किया जा सकता है।"

रेणु ने डरते डरते वही सब्जी डोंगे में डालकर डाइनिंग टेबल पर रख दी। डिनर का टाइम हो गया था। सुशीला ऑन्टी हँसते हुये आयीं और कुर्सी पर बैठी। रेणु ने सबको खाना सर्व किया। सुशीला ऑन्टी ने एक कौर मुँह में डाला ही था कि उनके मुँह से निकला-"बहू, सब्जी तूने बनाई है?"

रेणु ने डरते हुए कहा- " हाँजी ऑन्टी।"

सुशीला ऑन्टी ने दूसरे कौर में सब्जी भर भर के ली फिर कहा- "वाह क्या बात है। ये किसकी सब्जी है? इसमें कौन से मसाले डाले हैं बहू?

रेणु को कुछ समझ न आया क्या कहे। तभी बीच में लगाम अपने हाथ में लेते हुये रेणु की सास ने कहा- "सुशीला मेरी बहू बहुत गुणी है। जानती हो ये किस चीज़ की सब्जी है?"

"किस चीज़ की?" सुशीला ऑन्टी चटकारे लेते हुये सब्जी खाती जा रहीं थीं।

"अरे ये दालमोठ की सब्जी है,दालमोठ की सब्जी। तुमने तो कभी नाम भी न सुना होगा। आजकल बहुयें न, बहुत होशियार हैं। वो क्या चला है आजकल...हाँ... यू ट्यूब...उसी से देखकर ये दिनभर नयी नयी डिश बनाया करती है।" रेणु की सास ने बात संभाल ली थी। फिर उन्होंने रेणु की तरफ मुस्कुरा कर देखा, रेणु की जान में जान वापस आ चुकी थी।

" वाह। मिथलेश (रेणु की सास) बहू हो तो ऐसी। दालमोठ की सब्जी तो मैंने कहीं सुनी ही नहीं आज तक। एक मेरी बहू है कोई नयी चीज़ बनाती ही नहीं।" सुशीला ऑन्टी सब्जी भर भर कर खाती जा रही थी। " बहू मुझे रेसिपी बताना ज़रा। मैं भी अपनी बहू से बनवाउंगी।"

" वो ऑन्टी पहले प्याज़ भूना , मसाला डाला ज्यादा से टमाटर डाले.आलू डाल कर पकाया....आखिर में दालमोठ डालकर बंद कर दिया। बस हो गया।" रेणु पूरे मन से एक एक्सपर्ट शेफ की तरह रेसिपी बता रही थी।

तृप्त होकर सुशीला ऑन्टी ने रेणु को आर्शीवाद दिया और अपने घर चली गयीं। रेणु ने अपनी सास के एक नये रूप के दर्शन किये थे। आज से पहले उसे वो ममतामयी सास दिखीं ही नहीं थीं जो एक माँ की तरह उसका साथ दे। रेणु ने सास के पैर छूते हुये कहा- "थैंक्यू मम्मी जी। आपने मेरी इज्जत रख ली। मान गये आपको। बात संभालना कोई आपसे सीखे।"

सास ने उसके गाल पर हल्की सी चपत लगाते हुये कहा- "अरे चलो। चलो अंत भला सो सब भला।"

पर कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। कुछ दिनों बाद सुशीला ऑन्टी की बहू की रेणु के पास फोन आया। " अरे रेणु आखिर कौन सी स्पेशल सब्जी बना के खिला दी थी मेरी सास को, जो रोज़ तुम्हारा नाम रटती हैं। ये दालमोठ की सब्जी क्या बला है? जैसा उन्होंने बताया वैसे कई बार मैंने बनाया पर उनको वो स्वाद नहीं मिल रहा।"

रेणु हँसने लगी- "बहन वो स्वाद आयेगा भी नहीं। इसके लिये तुम्हें भी खाना बनाते समय फ़ोन पर बात करना होना और फिर एक ऐसी सास चाहिये जिसके आशीर्वाद से कोई भी सब्जी टेस्टी हो जाये।"

©® टि्वंकल तोमर सिंह

Saturday 5 October 2019

चादर की सिलवटें

"जानती थी मायके से लौट कर आऊँगी तो पूरा घर बिखरा मिलेगा। कोई चीज़ यथास्थान नहीं मिलेगी। कपड़े सोफे पर हैं, जूठे चाय के कप मेज पर हैं। जूते चप्पल इधर उधर हैं।" रेणुका ने अभी अभी अपने घर में प्रवेश किया था। बीस दिन के लिये वो अपने मायके गयी हुई थी। आज लौटी है। फ्लैट की एक चाभी उसके पर्स में हमेशा रहती है। इसलिये उसे कोई दिक्कत नहीं हुई।

उसके पति अभिषेक शाम तक ड्यूटी से लौट कर  आयेंगे। तब तक उसने सोचा पूरा घर ठीक ठाक कर दूँगी। बैग एक किनारे लगा कर उसने अपने बेडरूम का दरवाजा खोला। दरवाजा खोलते ही उसे सामने अपना बिस्तर नज़र आया।

बिस्तर के दायें हिस्से पर अभिषेक लेटते हैं और बायें हिस्से पर रेणुका। ये अघोषित बंटवारा पहले दिन से ही हो गया था। अब चाहे अभिषेक घर पर हों या न हों रेणुका बायें हिस्से पर ही लेटती थी। और अभिषेक की भी अपनी तरफ़ ही लेटने की आदत थी।

थोड़ा पास आने पर रेणुका ठिठक गयी। बिस्तर के दोनों तरफ़ सिलवटें हैं। " ये कैसे हो सकता है? अभिषेक कभी भी इस तरफ नहीं सोयेंगे।"

"फिर....क्या कोई और...."

"नहीं नहीं....ऐसा नहीं हो सकता...शायद उनका कोई दोस्त....या रिश्तेदार...."

" पर रोज़ रो फ़ोन पर बातें होतीं है। हर रात सोने से पहले दिन भर का हाल बताते थे वो फ़ोन पर। फिर ऐसे कैसे कि कोई आये और वो बतायें न..."

"तो क्या....कोई दूसरी..."

"हे राम..." दोनों हाथों से सिर थाम कर रेणुका बिस्तर पर धम्म से बैठ गयी।

बीते समय की कई बातों की तहें खुलने लगीं।

"इतनी रात में कौन तुम्हें वाट्सअप कर रहा है? " रेणुका ने एक रात पूछा था। कई दिनों से अभिषेक फ़ोन पर कुछ ज़्यादा लगे रहते थे विशेषकर व्हाट्सएप पर। फ़ोन लेकर खाना खाने के बाद टहलने निकल जाना....फ़ोन इंगेज़्ड आने पर बताना कि दोस्त से बात कर रहा था।

एक बार रेणुका की सहेली ने बताया था अभिषेक  किसी सुंदर हमउम्र महिला के साथ कॉफ़ी हाउस में बैठे थे। रेणुका ने पूछा तो संक्षिप्त सा उत्तर दिया कि बिज़नेस-मीट थी।

रेणुका कड़ी पर कड़ी जोड़ने लगी। इसका मतलब उसका ये शक़ उसकी ग़लतफ़हमी नहीं है।

अचानक से वो उठी और बिस्तर झाड़कर सिलवटें हटाने लगी। चादर खींच खींच कर उसने सारी सिलवटें हटा दीं। बिस्तर फिर से सही दिखने लगा।

रिश्तों में पड़ी सिलवटों को वो किस प्रकार हटाएगी ये वो सोच रही थी।

बर्दाश्त करे...चुप रहे कुछ न कहे। या फिर चीखे चिल्लाये...लड़ाई,झगड़ा....तलाक़?

या फिर....

उसने फ़ोन निकाला अपने कॉलेज़ के एक पुराने दोस्त का नंबर लगाया। "हेलो रेयांश... कैसे हो? हाँ आज अचानक ही याद गयी तुम्हारी। और क्या चल रहा है?...........!!!"

पति के अंदर जलन की भावना बहुत प्रबल होती है ये वो अच्छी तरह जानती थी।

©® टि्वंकल तोमर सिंह

Friday 4 October 2019

गर्व है

"अरे बाबा ये लास्ट मेट्रो थी।आप चढ़े नहीं इसमें।"गार्ड ने पूछा।तेज़ बारिश में छाता थामे एक बुजुर्ग आये थे जो प्लेटफॉर्म को विदा कहती मेट्रो-ट्रेन की ओर नम आँखों से ताक रहे थे।

मेट्रो जाने के बाद बाबा धीरे धीरे कदम रखते हुये स्टेशन के बाहर जाने लगे।उनके चेहरे पर आत्मसंतोष के भाव थे।

अचानक स्टेशन के बाहर पैर रखते ही कई मीडियावालों ने उन्हें घेर लिया।"रामप्यारे जी आपको कैसा लग रहा है,आप जिंदगी भर रेलवे-स्टेशन पर सफाईकर्मी रहे और आज आपकी बेटी मेट्रो में ड्राइवर है?"कई माइक उनकी ओर तने हुये थे।

"गर्व है।"धीरे से उन्होंने कहा।

©® Twinkle Tomar Singh

द्वार

1. नौ द्वारों के मध्य  प्रतीक्षारत एक पंछी किस द्वार से आगमन किस द्वार से निर्गमन नहीं पता 2. कहते हैं संयोग एक बार ठक-ठक करता है फिर मुड़ कर...