Saturday 24 October 2020

कोलकाता कालीघाट मंदिर

कोलकाता का भ्रमण दक्षिणेश्वर में माता के दर्शन से शुरू होकर काली घाट मंदिर में स्थापित सिद्ध पीठ वाली माता पर समाप्त हुआ।

अष्टमी के दिन राम कृष्ण परमहंस जी की दक्षिणेश्वर वाली माता के दर्शन इतने आसान तो न थे। धूप तेज थी, तीन घंटे पंक्ति में लगा रहना पड़ा। न जाने कितने समय से हृदय में दबे विरह शूल से मुक्ति देकर आखिरकार माँ ने दर्शन दे ही दिए। थोड़ी निराशा हुई क्योंकि माँ ने सामने से नहीं साइड से दर्शन दिए। हम ही सामने वाली पंक्ति में नहीं लगे थे। गलती माँ की नहीं थी।

दर्शन के बाद हम मंदिर के सामने वाले मंडप में बैठ गए। ढोल बज रहा था। एक छोटा बालक मंजीरे पर साथ दे रहा था। कई भक्त हमारे साथ वहां बैठे इन अद्भुत क्षणों का आनंद उठा रहे थे।

तभी अचानक से हमारे सामने की भीड़ ,और मंदिर के सामने वाली पंक्ति की भीड़ छट गयी, और माँ ने अपने पूरे श्रृंगार और आकर्षण के साथ दर्शन दे दिए। एक जयकारा गूंजा पुरे परिसर में।

अद्भुत था वो क्षण, स्वतः ही अनवरत आँखों से अश्रु बहने लगे। 
हाँ, माँ थी वहाँ !

नवमी के दिन हमने कालीघाट वाली माँ के दर्शन करने चाहे। पर भीड़ ने हमारे हौसले की हवा निकाल दी। मैं सिर्फ सिन्दूर खेला का आनंद उठा कर होटल चली आयी।आखिरी दिन हमें सुबह मौका मिला माँ के दर्शनों का।

सिलसिला शुरू हुआ पंडो के प्रताड़ित करने से।
"दो मिनट में दर्शन करवा देंगे। आप अंग्रेज लोग कहाँ इतनी देर भीड़ में लाइन में लगेंगें।"

हमारा तर्क था-थोड़ा तो कष्ट सह लेना चाहिए।पर वो मक्खी की मंडरा कर, बरैया की तरह डंक मारने लगे।जब तक मैंने अपना आपा खोकर गुस्सा कर उन्हें अंट शंट बोलकर डाँट न लगा दी। नहीं मालूम था यही से मैंने उनकी शत्रुता मोल ले ली है।

ख़ैर एक घंटे पंक्ति में लग कर मंदिर के अंदर प्रवेश करने को मिला। माँ चुनरियों से ढकी थी। मजाल कि एक हलकी सी भी झलक मिल जाए। मैं निरंतर अपने मन में " ॐ जयंती मंगला काली भद्र काली कपालिनी दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमस्तुते !!" का जप कर रही थी।

हमारे सामने ही एक संपन्न से दिखने वाले दंपत्ति बिना पंक्ति के कहीं से प्रकट हुए, सीधे माँ के मुख के सामने ही उन्होंने लैंड किया। पुजारी जी ने उन्हें टीका लगाया, उनका नारियल फोड़ा, उनकी साडी माँ को पहनाई, दक्षिणा पर कुछ मोल भाव करके कुछ कड़क नोट अंदर किये और उन्हें मुस्कुरा कर विदा किया।

बाकी आम जनता को पुजारी जी ऐसे डाँट लगा रहे थे जैसे वो दर्शन करने आये हैं, तो उन्होंने कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया है। सही भी था,भीड़ से उत्पन्न होने वाली सारी गर्मी के जिम्मेदार भी हम ही लोग तो थे, जो उनके दिमाग में चढ़ रही थी।

दस दस रुपैया की दक्षिणा टोल टैक्स में वसूली जा रही थी सबसे। जो पहले से दस का नोट तैयार न रखे उस पर त्योरी चढ़ा कर गुस्से का चाबुक बरसा दिया जाता था। हमने डर के मारे दस का नोट तैयार रख लिया।

आखिरकार वो पल आया। जब माँ ने मुझे दर्शन दिए। बड़े बड़े विशाल नयन, बहुत ही सम्मोहनकारी मुख।

हमारी डोलची पंडित जी ने छुई भी नहीं, बस दस का नोट मेरे हाथ से ले लिया।

जैसे ही दर्शन हुए हमें आगे बढ़ने का इशारा किया गया। पर मैंने आँखें बंद की और अपने मन की अर्जी माँ के सामने लगानी शुरू की। एक वाक्य की मुराद थी, पर आधा ही बुदबुदा पायी कि किसी ने हाथ पकड़ के खींचा। आँखें खोली तो देखा एक बड़ी बड़ी आँखों वाली बंगाली पंडा महिला मुझे 10 सेकेण्ड तक वहां ठहर जाने के लिए बंगाली में नयनों में क्रोध विस्फारित करते हुए हड़का रही थी। इतने में मेरे पतिदेव का सब्र छूट गया और उन्होंने अपना एतराज जताया । पर एकता में बहुत शक्ति होती है। पंडे सारे एकजुट हो गए। हमने भी वहां से निकलना ही सही समझा।

ईश्वर दर्शन करते समय चरम का एक पल आता है, जहाँ आपकी आत्मा परम् आत्मा से एकसार हो जाती है। भले ही वो नैनो सेकेण्ड का हो।

पर क्योंकि हमने 1100 रुपये नहीं दिए , तो हम माँ के दरबार में वो चरम का नैनो सेकेण्ड खरीद नहीं पाये। माँ के सेवकों ने हमें वो एकाग्रता नसीब नहीं होने दी। 

बाहर निकलते निकलते मन कुछ अजीब से भावों से भर गया। 

मन ने पूछा - "माँ , तुम कहाँ थी?"

मैं मंदिर के नाभिक से दूर होती जा रही थी, मन में खुद ब खुद ये पंक्तियां चलती जा रही थी।

"खुदा के बन्दों को देखकर ही खुदा से मुनकिर है दुनिया।
कि ऐसे बंदे हैं जिस खुदा के वो कोई अच्छा खुदा नही है।"
(मुनकिर- नास्तिक) 

पर मन कहता है मेरी माँ अवश्य अच्छी होंगी। 

माँ ,मेरी ही एकाग्रता में कमी थी। आप तो अवश्य होगी वहां। ये मेरा विश्वास है। पर आवश्यक नहीं कि सबके मन में आस्था का सागर इतना अपरिमित हो। एक के भी मन में नास्तिकता का बीज पड़ा, तो ये रोग संक्रामक भी हो सकता है, माँ !

टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ। 

मोतियाबिंद

सवेरे से ही धनिया मेरे पास बैठी थी। एक घण्टे पहले ही आ गयी थी। उसे पूरा भरोसा था , आज दीवाली के दिन उसका लड़का उसे फ़ोन जरूर करेगा। 

जैसे ही मेरे फ़ोन की घण्टी बजती धनिया को लगता था कि उसी के लड़के का फोन है। पर मेरे किसी मित्र या रिश्तेदार की तरफ से फोन पर मिलने वाली बधाई सुनकर वो थोड़ा निराश हो जाती थी। 

"और कितनी देर बैठी रहोगी धनिया? उसने कहा था सुबह 9 बजे फ़ोन करेगा। अब तो ग्यारह बज चुके हैं। अपने घर जाओ। दीवाली की तैयारी करो।" मैंने रंगोली में रंग भरते हुये कहा। 

धनिया की आंखों में निराशा के हल्के से भाव आये। फिर बोली- लाइये ये वाला रंग हम भर देते हैं। जब तक रंगोली पूरी नहीं होती, हम आपके साथ रंग भरते रहेंगे। " 

धनिया की आस टूट जाये मैं भी नहीं चाहती थी। मैंने मुस्कुरा कर उसे अनुमति दे दी। 

धनिया का लड़का दिल्ली चला गया था। फिर कभी वापस आया ही नहीं। यहाँ धनिया अपनी मड़ैया में अकेले रहती थी। उसके दो बच्चे और थे। एक लड़की जिसकी शादी ही चुकी थी। और एक छोटा लड़का जो कई बरस हुये पीलिया, निमोनिया झेल न पाया , और भगवान को प्यारा हो गया। अब बड़ा लड़का ही उसके जीने की अंतिम आस थी। 

धनिया की आंखों में मोतियाबिंद ही गया था। उसे अपनी आँख का ऑपरेशन कराना था। उसे लगता था उसका बड़ा लड़का वापस आयेगा और उसका इलाज कराएगा। 

धनिया के एक सम्बन्धी चाचा दिल्ली किसी काम से गये थे वहाँ उनकी मुलाकात उसके लड़के से हुई। उन्होंने धनिया का पूरा हाल उसे बताया। उसका मोबाइल नंबर भी ले लिया। उन्होंने लौट कर बताया कि उसके लड़के ने दिल्ली में किसी फैक्ट्री में गॉर्ड की नौकरी ली है और वहीं उसने शादी करके अपनी गृहस्थी बसा ली है। 

धनिया को तनिक भी विश्वास न था। उसे लगता था उसका लड़का उससे पूछे बिना कपड़े तक नहीं पहनता था फिर शादी क्या करेगा। उसे क्या पता था कि दिल्ली जैसे बड़े शहर कितने भी सगे रिश्ते हों सबको पराया कर देते हैं। 

चाचा ने धनिया के बेटे का जो फ़ोन नंबर लाकर दिया था, धनिया ने जब उस पर कल मुझसे फ़ोन मिलवाया तो किसी औरत ने फ़ोन उठाया और कहा- "वो तो है नहीं।"

इधर से धनिया ने कहा- "हम उनकी अम्मा बोल रहे हैं।"

तो उधर से औरत ने कहा कल सुबह नौ बजे बात कराते हैं आपकी।
बस आज सुबह सात बजे धनिया मेरे साथ लगी है। अब तो बारह भी बज गये, पर उसका फ़ोन न आया। 

"भाभी न हो तो एक बार आप ही मिला लो, क्या पता भूल गया हो। या हो सकता है दीवाली की तैयारी में लगा हो।" 
धनिया ने कहा। 

मैंने उसका मन रखने के लिये फोन मिला दिया। पर मेरी अंदर की आवाज़ कह रही थी कि अब यहां कनेक्शन नहीं मिलने वाला। 

"हैलो.. सुखवान, धनिया...तुमसे बात करना चाहती है।" जब मैंने किसी आदमी की आवाज़ सुनी तो उसे धनिया का लड़का समझा। 

"यहाँ कोई सुखवान नहीं रहता। प्लीज़ इस नंबर पर फोन मत मिलायेगा कभी।" उधर से उत्तर आया। 

मैंने धनिया की तरफ देखा जो आंखों में आस भरे मेरी ओर देख रही थी। उधर से फोन कट चुका था। 

"क्या हुआ भाभी? " उसने पूछा। 

"कुछ नहीं धनिया। लगता है फोन ठीक से काम नहीं कर रहा। उधर से आवाज़ नहीं आ रही है।" मैंने बहुत धीमे से कहा। 

"अच्छा".. धनिया को जैसे मेरी बात का भरोसा नहीं हुआ। 
"अच्छा भाभी...कल फिर देख लेंगे।" इतना कहकर वो जाने लगी। 

मैं जानती थी कल भी फ़ोन नहीं आएगा। मैंने अलमारी से दस हज़ार रुपये निकाले। तब तक धनिया गेट तक पहुँच गयी थी। 

"धनिया ओ धनिया...." 

" हाँ, भाभी..." 

" तुम्हारे लड़के का फ़ोन नहीं लग रहा था। पर उसका मैसेज आया है। कह रहा है मेमसाब मेरी माँ को दस हज़ार रुपये दे दीजिए। जब मैं आऊँगा तब दे दूँगा। ये लो..पैसे। अपने मोतियाबिंद का इलाज करा लेना।" मैंने कहा।

धनिया की आँखों से आँसू ढुलक गये। उसके विश्वास की जीत हो चुकी थी। 

आंखों का मोतियाबिंद तो ठीक हो सकता है। मन की आँखों को सब स्पष्ट न दिखे वही ठीक है। 


टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ। 





Monday 19 October 2020

डेबिट कार्ड फ्रॉड

सामान्यतः मुझे नकदी की आवश्यकता पड़ती ही नहीं। मैंने एक खजांची रख छोड़ा है, जिससे मैं जितने भी नकद रुपये की माँग करूँ मुझे फौरन ला कर दे देता है। फिर भी कभी कभी ATM जाना आवश्यक हो जाता है। 

अब चूँकि रुपये पास में रखना चलन से बाहर हो चला है तो कभी कभी यूँ भी होता है कि घर में हज़ार रुपये कैश भी नहीं मिलते। ऐसे ही एक सुबह करीब सात बजे रुपये की सख्त जरूरत ने मुझे ए टी एम के द्वार ले जाकर खड़ा कर दिया। एटीएम पर मेरे सिवा कोई नहीं था। आस पास पड़ोस में भी काफी सन्नाटा था। तरह तरह की कहानियाँ सुनने को मिल चुकी हैं, तो मन एक आशंका से भर उठा। किसी ने पिस्तौल दिखा कर रुपये / ए टी एम छीन लिया तो? या किसी और प्रकार का छद्म मायाजाल रचा गया हो तो? जैसे कि पासवर्ड ट्रैकिंग वगैरह वगैरह।

पर ओखली में सर डालना मजबूरी थी, डाल दिया। मेरे जैसे अपनी ही मस्ती या कहो विचारों में डूबे इंसान के लिये ए टी एम पर सतर्कता बरतना पायलट बनने के लिये दी जानी वाली परीक्षा सरीखा हो जाता है। मैंने पूरी चतुराई और सतर्कता के साथ पैसे निकाले, बीच बीच में पीछे दरवाजे पर भी नज़र डाली, कि कहीं कोई घात लगा कर तो नहीं बैठा है।  फिर मशीन ने जब अपने सामने खड़े याचक को उसकी जरूरत भर के रुपये उगल दिए तो याद से मैंने ए टी एम निकाल कर कैश के साथ अपने पर्स में उदरस्थ कर लिया। 

अब जैसे ही पीछे मुड़ी तो देखा, एक कम वय का लड़का, लगभग 21-22 साल का मेरे ए टी एम से निकलने की ही प्रतीक्षा कर रहा है। पता नही क्यों मुझे मेरी छटी इंद्री ने कहा कि दाल में कुछ काला है। 

मैं जल्दी से अपनी स्कूटर पर आकर उसमें चाभी लगा कर उड़ने की फिराक में ही थी कि उस लड़के ने ए टी एम से बाहर निकल कर एक कार्ड दिखा कर पूछा," एक्सक्यूज़ मी, ये आपका कार्ड है? " 

मैं जैसे इस प्रश्न की ही प्रतीक्षा कर रही थी। मुझे लग रहा था कि ये कुछ ऐसा ही करेगा। मैंने मुस्कुरा कर कहा, " नहीं ये मेरा नहीं है।" जैसे किसी ने मेरे लिये चक्रव्यूह रचा हो, पर मैं विजयी होकर निकल आयी हूँ, उसी प्रसन्नता के साथ मैंने अपने चेतक में किक लगाई और वहाँ से निकल गयी। 

मगर मन में फ्रॉड का संशय बना रहा। कुछ दूर जाकर स्कूटर रोक कर मोबाइल निकाला और मैसेज चेक किया। ईश्वर का धन्यवाद है कि कोई भी अन्य पैसा निकालने जैसा मैसेज नहीं था। 

दरअसल मेरी एक कलीग ने ऐसी ही एक घटना बताई थी। जो कुछ मेरे साथ गया, उनके पड़ोस में रहने वाली एक उम्रदराज़ महिला के साथ भी हुआ था। परन्तु वो उसके झाँसे में आ गयीं थीं, और उन्होंने अपना कार्ड निकाल कर फ्रॉड के हाथ में दे दिया था। उसने उनका कार्ड बदल दिया था। पिन शायद उसने पीछे खड़े रहकर गौर कर लिया होगा। इसके बाद उनके घर पहुँचते पहुँचते एक बार 40000 रुपये और थोड़ी देर बाद 20000 रुपये उनके एकाउंट से निकल गये। घर पहुँचने पर जब उन्हें पता लगा होगा तब उन्होंने कार्ड ब्लॉक करवाया। 

अब इसी घटना के मेरे दिमाग़ में रहने के कारण मेरा दिमाग पहले से ही सतर्क था। दरअसल ये फ्रॉड महिलाओं, बुजुर्गों को टारगेट करते हैं, जिन्हें थोड़ा कार्ड वगैरह के बारे में कम जानकारी होती है। और अगर सुनसान जगह पर इन्हें इनका शिकार मिल जाये तो कहना ही क्या।


मैंने ये बात यहाँ इसलिए शेयर की है, पता तो हम सबको होता है, खबरें भी हम पढ़ते रहते हैं पर दिमाग की बत्ती कभी कभी लुटने के बाद जलती है। 

टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ। 

Thursday 15 October 2020

अतीत के चलचित्र

पुस्तक समीक्षा

"दु:ख एक प्रकार श्रृंगार भी बन जाता है, इसी कारण दुःखी व्यक्तियों के मुख, देखने वाले की दृष्टि को बाँधे बिना नहीं रहते।"

ये पंक्तियां ऐसी थीं कि जब से पढ़ी मन के अंतरतम में धंस कर रह गयीं। वो सारे चेहरे आँखों के सामने से सजीव होकर गुज़र गये जिनकी आंखों में दुःख का अंजन तीक्ष्ण रेखा बनाता हुआ सजा था। 

ये पंक्ति है एक बेहद विस्मृत पुस्तक से , जिसके आवरण पर उसकी पहचान के तौर पर लिखा है 'अतीत के चलचित्र'। 

महादेवी जी को पद्य साम्राज्ञी के रूप में ही जाना। बचपन से कोर्स में उनका एक न एक क्लिष्ट शब्दों और अर्थ से सजा काव्य हमारे हिन्दी ज्ञान और प्रेम की परीक्षा लेता रहा। उनका लिखा एकमात्र गद्य जो विद्यार्थी जीवन में मैंने पढ़ा वो था - गिल्लू। बालमन पर उस छोटे से गिलहरी की कहानी अमिट छाप न छोड़े, संभव ही नहीं। उस समय उसकी कहानी आँखों को गीला तो कर ही गयी थी, उसके बाद कई चिड़ियों के बच्चों को बचाने में प्रेरणास्रोत के रूप में भी कार्य करती रही।

 मुझे जो भी पुस्तक अत्यधिक प्रिय होती है, उसे मैं क्रय करके अपने किसी मित्र को उपहार में दे डालती हूँ। पता नहीं मुझे इसमें क्या तुष्टि मिलती है। ऐसे ही अपनी एक परम मित्र से मैंने पूछा- अतीत के चलचित्र पढ़ी है? तो उसने थोड़ा हिचकते हुये पूछा- पद्य है? तात्पर्य ये है कि महादेवी जी की रचनाओं के प्रति कुछ यूँ धारणा बन जाती है जैसे गणित के दुरूह सवाल। इसलिए कोई जल्दी उनकी पुस्तकों पर हाथ नहीं धरता। 

इधर मैंने एक के बाद एक महादेवी जी की कई गद्य रचनायें पढ़ डालीं। उनके बारे में कुछ कहना थाली में जुगनू रखकर सूर्य की आरती उतारने समान है। फिर भी कह रही हूँ इतना रस, इतनी संतुष्टि, एक एक कहानी अपने आप में एक उपन्यास सरीखी, भाषा का चमत्कार, गद्य में पद्य की करिश्माई सुवास...मन महके बिना रहे तो कैसे? 

उदाहरण के लिये

"वैशाख नये गायक के समान अपनी अग्निवीणा पर एक-से-एक लम्बा आलाप लेकर संसार को विस्मित कर देना चाहता था। मेरा छोटा घर गर्मी की दृष्टि से कुम्हार का देहाती आवाँ बन रहा था। "

"
सूखी-सूखी पलकों में तरल-तरल आँखें ऐसी लगती हैं, मानो नीचे आँसुओं के अथाह जल में तैर रही हों और ऊपर हँसी की धूप से सूख गयी हों !" 

"उसे घर भेजने का प्रबन्ध कर मैं जब फाटक से लौटी, तब धरती और मेरे पैर लोहा-चुम्बक बन रहे थे।" 

ये तो मात्र झलकियां हैं। 

आज जब अमीश और चेतन भगत को पढ़ने वाली पीढ़ी पागलों की तरह उनकी नयी पुस्तक की प्रतीक्षा करती है, तो ऐसे में 'अतीत के चलचित्र ' जैसी पुस्तकें दुबकी हुई अतीत की ही किसी खिड़की से झाँकती हुई प्रतीत होती हैं।

~ टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ। 

Tuesday 13 October 2020

पर्दे

मैं बाज़ार में शॉपिंग करने के लिये गयी थी। तभी एक महिला की आवाज़ पीछे से कान में आई।
"भैया...क्या आपके पास नीले रंग में बंधेज का दुप्पटा होगा?"

आवाज़ बहुत ही चिर परिचित थी। संध्या...मेरी सहेली की आवाज़ जैसी जिससे मैं पिछले पाँच सालों से मिली नहीं थी। 
 
उत्सुकता में पीछे मुड़कर देखा तो लगा शायद संध्या ही थी। पर पहचान में ही नहीं आ रही थी। इतनी पतली, स्लिम ट्रिम फिट...! आंखों पर स्टाइलिश गॉगल्स लगाये हुए।  मैंने हिचकते हुये पूछा.." संध्या..??" 

"अरे स्नेहा तू...?" संध्या ही थी। मुझे पहचानते ही बेहद खुश हो गयी।

 हम दोनों एक रेस्टोरेंट के कार्नर में बैठ कर बातें करने लगे। 
उसने बताया कि उसके पति का अभी ही ट्रांसफर हुआ है। अभी पिछले हफ्ते ही वो लखनऊ शिफ्ट हुई है। 

सबसे ज़्यादा जिस चीज़ ने मुझे आश्चर्य में डाल रखा था, वो था उसका वजन। कहाँ पाँच साल पहले वाली , सत्तर किलो वजन वाली, गप्पू सी संध्या। और कहाँ से एकदम पतली संध्या। पचास से एक किलो वजन भी ज़्यादा न होगा। 

मैं अपने बढ़े हुये वजन और बेडौल शरीर पर झेंपने लगी थी। पूरा दुप्पटा ओढ़ने पर भी मेरा निकला हुआ पेट मेरे वजन की खिल्ली उड़ा रहा था। मुझे कहीं न कहीं उससे जलन भी हुई। हुँह ,अच्छे घर में शादी हो गयी है। बस मैडम को करना ही क्या होता होगा अपनी फिटनेस पर ध्यान देने के सिवा। यहाँ गृहस्थी का ऐसा बोझ लदा हुआ है कि अपने ऊपर ध्यान देने की फुर्सत ही नहीं। 

संध्या अपनी बातें बताने में लगी हुई थी। और मैं कुछ और ही सोच रही थी। 
" मैडम के जलवे तो देखो। रेस्टोरेंट के अंदर भी गॉगल्स पहन कर बैठीं हैं। उफ़्फ़ ये फैशनपरस्त अमीरजादियाँ.." 

इधर उधर की बातों के बाद आखिरकार मेरी उत्सुकता ने मुझे पूछने पर मजबूर कर ही दिया है। " ये सब छोड़ ये बता तूने इतना वजन कम कैसे कर लिया? योगा, जिम ? बहुत फिट है तू यार। " 

संध्या अचानक से शांत हो गयी। उसका मुँह जैसे और छोटा सा हो गया। 

" हाँ जॉइन किया है न वजन कम करने के लिये। सारा योगा सारा जिम मेरा एक ही है- टेंशन। पति वैसे तो ठीक हैं,पैसों की भी कोई कमी नहीं है,  पर उनकी शाम से शराब पीने की आदत बहुत बुरी है। कंट्रोल ही नहीं है।  बच्चों को भी कभी कभी पीट देते हैं। मुझ पर भी हाथ...." संध्या की आँखें भर आयीं थीं। उन्हें पोछने के लिये उसने अपने गॉगल्स को उतारा। गॉगल्स हटाते ही उसकी आँखों के नीचे के काले गड्ढे स्पष्ट दिखाई दे गये ।

मुझे याद आया एक बार मैंने बाहर से उसके ससुराल की कोठी देखी थी। उसके ससुराल का वैभव मेरे सीने में गड़ गया था। उसके घर की खिड़कियों पर आलीशान भारी भारी पर्दे लगे थे। अंदर कुछ नहीं देखा जा सकता था। 

आज वही गलती फिर मैंने कर दी थी। किसी को भी बाहर से देखकर उसके बारे में राय नहीं बनानी चाहिए। 

मेरे मन में उमड़ी ग्लानि ने सारी जलन को धो दिया । 

टि्वंकल तोमर सिंह,
लखनऊ। 

Thursday 1 October 2020

Dewiness / नमी

#Dewiness

Just because 
there swim
Uncountable fish 
In the eyes
With unappeasable desire
To live the life to its full,
Maintaining a little dewiness
Becomes mandatory ! 

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#नमी 

आँखों में तैरती हैं
जीवन जी लेने का
लालच लिये 
असंख्य मछलियाँ
बस इसलिये 
कुछ नमी 
ज़रूरी है

~ Twinkle Tomar Singh 

द्वार

1. नौ द्वारों के मध्य  प्रतीक्षारत एक पंछी किस द्वार से आगमन किस द्वार से निर्गमन नहीं पता 2. कहते हैं संयोग एक बार ठक-ठक करता है फिर मुड़ कर...