Thursday 30 January 2020

ये कैसा बसंत

धरती के श्रृंगार की ऋतु है बसंत। शिशिर ऋतु की ठिठुरन को पीछे धकेल कर बसंत आ कर जैसे सबको अपने आलिंगन में लेकर राहत देना चाह रहा है। हर तरफ बसंत के गुणगान गाते हुये लेख, कवितायें दिख रहीं हैं। आम्र मंजरियों की सुगंध, कोयल-पपीहे की टेर, पलाश के प्रेम के रंग, सरसों का उल्लास हर कविता का श्रृंगार बना हुआ है। 

मोबाइल और किताबों से सिर उठा कर चारों ओर देखो तो जिस उल्लास से बसंत के स्वागत की दुंदुभी बज रही है, वैसा बसंत है कहाँ? 

तारकोल की सड़क के किनारे, कंक्रीट के जंगल के बीच भय से सर उचका कर देखते हुये, किसी पार्क में हरियाली की जिम्मेदारी उठाये हुये इक्का दुक्का पेड़ों पर एक निर्धन स्त्री के श्रृंगार जैसा दिखता है बसंत। 

बरसों बीत गए इतराती हुई तितलियों का झुंड देखे हुये। आगामी पीढ़ी के बच्चे नहीं जानते कैसी लगती है तितली हथेली पर पराग के रंगीन कण छोड़ कर जाती हुई। जुगनू को मुठ्ठी में बंद कर उन्हें टिमटिमाते देखना क्या होता है? आँगन में कूद कूद कर दाने चुगती हुई गौरैया कैसा सुख देती है? बुलबुल लाल कलगी की पगड़ी लगाये कितनी सुंदर दिखती है?

पर फिर भी बसंत मुस्कुरा रहा है। कम ही सही पेड़ों पर,बेलों पर नयी कोपलें जैसे अब तक सिर छुपा कर बैठी थीं, अब भय मुक्त होकर मुस्काती हुई सिर उठाने लगीं हैं। 

हम खुश हैं कि गमलों में लगे बौने पौधे प्रसन्न दिख रहे हैं। क्यारियों में, टोकरियों में पाव भर फूलों की रंगत दिखने लगी हैं। 

स्वागत है तुम्हारा ऋतुराज बसंत ! 

मर्मर की सुमधुर नूपुर-ध्वनि,
अलि-गुंजित पद्मों की किंकिणि,
भर पद-गति में अलस तरंगिणि,

तरल रजत की धार बहा दे
मृदु स्मित से सजनी!
विहँसती आ वसन्त-रजनी!

धीरे धीरे उतर क्षितिज से
आ वसन्त-रजनी!

(काव्य पंक्तियाँ- महादेवी वर्मा जी) 

~ टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ। 


Wednesday 29 January 2020

सब्र का फल मीठा

धैर्य रखो, अच्छा समय आएगा। 

इस मंत्र को जपते जपते एक उम्र बीत जाती है। 
फिर बस उम्र बीत जाती है। धैर्य, प्रतीक्षा, विश्वास...परन्तु कब तक? अपनी रेलगाड़ी पैसेंजर बनी खड़ी रही। पर वो जो स्टेशन मास्टर है, दूसरी रेलगाड़ियों को धड़ाधड़ पास देता रहा। 
जहाँ पहुँचना था, वहाँ बहुत देर से पहुँचे तो क्या पहुँचे? 
आँसू, अपमान, ठेस, पीर, रिक्तता.....प्रतीक्षा में जहर की तरह घुल जाते हैं। 

अंत में सब्र का मीठा फल क्या इस कड़वाहट को हर लेगा? 

~टि्वंकल तोमर सिंह

Monday 27 January 2020

कांटा


कम्पास का कांटा
उत्तर की ओर लगा रहा
जहाज के कप्तान को 
दिशा भूलने का भय नहीं 

मन में पड़ा एक कांटा
उसकी ओर लगा रहा
पोखर में डोली उसकी नाव
हर दिशा अस्थिर ही रही

©® टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ। 

Wednesday 15 January 2020

वो पतंग नहीं उड़ाती




पड़ोस की छत की 
मुंडेर पर से झाँकते हुये
विस्मय ने पूछा

क्यों? 
आज मकर संक्रांति है
पतंग नहीं उड़ाओगी? 

आँगन में सिल पर
चटनी पीसती हुई लड़की की
कुचली हुई उमंग ने पूछा,

पतंग उड़ाने के लिए
कितना आकाश चाहिये होता है? 

बहुत अधिक नहीं,
बस छत भर काफी होता है। 

अच्छा..?
मुट्ठी भर आकाश है मेरे पास
बताना तो
कितनी दूर पतंग जायेगी? 


©® टि्वंकल तोमर सिंह











द्वार

1. नौ द्वारों के मध्य  प्रतीक्षारत एक पंछी किस द्वार से आगमन किस द्वार से निर्गमन नहीं पता 2. कहते हैं संयोग एक बार ठक-ठक करता है फिर मुड़ कर...