Sunday 31 March 2019

जीव की रंगत

देस बदला मिट्टी का रंग बदला
न बदली भीगी मिट्टी की महक
जन्म बदले तन की मिट्टी बदली
न बदली अंदर के जीव की रंगत

Twinkle Tomar Singh

आवारागर्दी

चाँद के साथ टहलने निकले थे हम
आस्माँ ने अपने लाल को ढाँप लिया
बादल के कंबल से, कहा
यूँ सिरफ़िरे संग आवारागर्दी नही करते

Twinkle Tomar Singh

Friday 29 March 2019

सद्गुरु ढाक लिया मोहे पापी पर्दा

वो गहने महंगे कपड़ों से लदी हुई लंगर कर रही थी। ऋतु मेरी सहेली जिसके मंगेतर को मैंने चुरा लिया था, मेरी ओर चली आ रही थी। गुरुद्वारे की पंगत में बैठकर अपनी हालत पर इतना दुख आजतक नही हुआ।

अचानक उसकी और मेरी नज़रें मिली। उसकी आंख की पुतली फैली फिर सामान्य हो गयी। मेरी थाली में खाने के साथ गंगाजल सी पवित्र आंसुओं की दो बूंदे भी परोस गयी। उसने नौकर को आदेश दिया देखना सब पेट भर के खाये।

गुरुद्वारे में सबद के शब्द गूंज रहे है- निर्गुण राख लिया...संतन का सदका...सद्गुरु ढाक लिया..मोहे पापी पर्दा..

Twinkle Tomar Singh

Wednesday 27 March 2019

रोटी

मैं गिन कर रोटी खाती थी
माँ लोई मोटी कर देती थी

Twinkle Tomar Singh

माँ नही मासी बनना है मुझे

श्रुति मेरी बात मानो। शादी के दस साल हो चुके हैं। कुछ न कुछ कॉम्प्लिकेशन्स लगे ही हुये है तुम्हारे साथ। आई वी एफ भी करा के देख चुकी हो । भगवान की मर्जी होती तो एक प्यारा सा बच्चा अब तक तुम्हारी गोद में होता आज। अब भगवान की मर्ज़ी नही है न तभी तो आज तक...... " तान्या श्रुति की बेस्ट फ्रेंड थी। उसे  समझाने के लिये ही स्पेशली टाइम निकाल कर आई थी।

श्रुति सिर झुकाये हुये प्यालियों में चाय उंडेल रही थी। बहुत ध्यान से उसकी बात सुन रही थी। फिर तान्या कोई नई बात नही कह रही थी। उसके माता पिता , रिश्तेदार, दोस्त, पड़ोसी, कलीग्स सब यही सलाह देते थे।

"श्रुति....मेरी बात सुन भी रही हो कि नही।" तान्या ने चाय की केतली उसके हाथ से ले ली। और उसे झिंझोड़ कर कहा।

"हाँ , बाबा सुन रही हूँ।" श्रुति ने जबरदस्ती मुस्कुराते हुये कहा। मुस्कान जब झूठी होती है तब आंखें चिल्ला चिल्ला कर सच बोलने लगतीं है। श्रुति की आंखों में साफ़ लिखा था मैं इस टॉपिक पर बात नही करना चाहती।

"श्रुति माय डिअर, तुम समझती क्यों नही। समय रहते एक औरत को माँ के रोल में आ जाना चाहिये। मेरी भाभी गायनोकोल्जिस्ट हैं उनका अपना हॉस्पिटल है। कई पेरेंट्स ऐसे आते है जो बच्चे को खासकर लड़कियों को पैदा होने के बाद अपनाना नही चाहते। कई बार तो कोई कुँवारी लड़की जो माँ बन जाती है उसका परिवार भी.........। खैर ये सब छोड़ो तुम हाँ बोलो तो तुम्हें तुरंत पैदा हुआ बच्चा मिल जाएगा। थोड़ी बहुत फॉर्मेलिटी बस तुम माँ कहलाने का सुख ले सकोगी।"  तान्या अपनी पूरी सामर्थ्य लगा कर श्रुति को समझाना चाहती थी। दोनों सहेलियां बचपन से साथ थीं। साथ पढ़ी, बड़ी हुई, शादी भी एक ही साल में दोनों की हो गयी। पर तान्या के दो प्यारे प्यारे बच्चे थे और श्रुति की गोद अब तक सुनी थी।

"तान्या तुम्हारी बात अपनी जगह बिल्कुल सही है। ज़्यादातर निःसंतान दम्पति यही करते हैं। पर मेरा सोचना कुछ और है।" श्रुति के इस घाव को जो कोई भी छू भर लेता है, वो आत्मविश्वास खो बैठती है , अनमनी सी हो जाती है। जैसे ठहरे पानी में किसी ने कंकड़ फेंक दिया हो। पर उसने पानी में बनी लहरों के स्थिर होने का इंतज़ार किया और संयत होते हुये बोली।

"क्या सोचना है तुम्हारा ? मैं भी तो सुनूँ जरा। तुम्हारी समझ में ये बात क्यों नही आती कि समय निकल जायेगा तो आगे बच्चा गोद लेने में तुम्हें ही परेशानी होगी। बच्चे की और तुम्हारी एनेर्जी मैच करना मुश्किल हो जायेगा।" तान्या लगभग खीजते हुये बोली। अगर उसका बस  चलता तो वो अपनी सहेली की खुशियों के लिये कुछ भी कर गुजरती।

" इन सब बातों पर मैंने विचार कर लिया है तान्या। इच्छा मेरी भी यही होती है। पर जानती हो मुझे क्या लगता मैं सिर्फ़ अपना स्वार्थ देख रही हूँ। मुझे एक बच्चा चाहिये और मैं इस भूख को मिटाना चाहती हूँ।" श्रुति की आवाज़ किसी गहरे खोह से आ रही थी। लेकिन उसके स्वर में किसी तपस्वी सी गंभीरता थी।

"श्रुति ... सही है जानू.. यही सही है। स्वार्थ नही है।"

"जानती हो। जब मैं किसी दम्पति को देखती हूँ जिनके बच्चे हैं। तो मेरे अंदर ये विचार आता है ये किस तरह अपने बच्चों के ग़ुलाम हो गये हैं। उनका पूरे जीवन की धुरी बस उनके बच्चे हो जातें है। बच्चों की पढ़ाई, उनकी सुरक्षा बस इसी फ़िक्र में उनका जीवन घुलता जाता है। और अगर उनकी आर्थिक स्थिति ज़्यादा अच्छी न हो तो भले ही अपना पेट काटना पड़ जाये, पर बच्चों के लिये अपने आप को कुर्बान कर देंगे।"

"हाँ तो इसमें नई बात क्या है ? सब यही करते हैं । प्रकृति का नियम है ये तो। देखो न चिड़िया भी अपने बच्चे की कितनी सेवा करती है।"

"तान्या मुझे गलत मत समझो। मैं जो कहना चाह रही हूँ उसे समझो। अपना बच्चा होते ही लोग इतने मजबूर हो जाते है कि अगर उनके आस पास किसी बच्चे को मदद की जरूरत हो, तो भी वो चाह कर नही कर पाते। अपने बच्चे के लिये जितना भी पैसा हो कम ही पड़ता है।"

"ये तो तुम बिल्कुल सही कह रही हो। मैं भी कमाती हूँ और तुम्हारे जीजा जी भी। पर देखो न आजकल पढ़ाई लिखाई, कपड़े, गृहस्थी का सामान सब इतना महंगा हो गया है कि पूरा ही नही पड़ता।" तान्या ने आह भरते हुये सोचा कि कबसे वो सोच रही है अगले महीने से उसके पड़ोस वाले वृद्धाश्रम में हर महीने कुछ दान कर दिया करेगी। पर वो अगला महीना कभी आ ही नही पाता।

"वही तो। मैं भी ऐसे ही किसी एक बच्चे की माँ नही बनना चाहती। मैं सिर्फ़ एक बच्चे से बंधना नही चाहती। मैं ऐसे तमाम लाखों बच्चों की मदद करना चाहती हूँ जो मजबूर है, कमजोर है, जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक नही है। फिर वो बच्चे मेरे पास पड़ोस में हो चाहे मेरे रिश्तेदारी में हों या मेरे घर में काम करने वाले लोगों के हो। मेरी चचेरी बहन की ही दो बेटियाँ हैं। उसकी आर्थिक स्थिति सही नही है। सबसे पहले मैं उन्हीं से शुरुआत करना चाहती हूं।" श्रुति की आंखों में नेह के डोरे झलकने लगे थे। दोनों बेटियां मासी से कितना प्यार करतीं थीं। फ़ोन पर तो रोज़ ही बात होती थी। और मिलने पर तो वे उससे ही चिपकी रहतीं थीं। श्रुति उन दोनों के लिये बहुत कुछ करना चाहती थी। पर उसका सारा पैसा आई वी एफ कराने में बह गया था।

श्रुति दुपट्टे के छोर को उंगली पर लपेटने लगी जैसे अपने अंदर उमड़ रहे ममता के भाव को मथ रही हो। "एक अपने बच्चे पर सारा प्यार, सारी ममता, और सारा धन लुटा दिया और अगर भविष्य में वो ख़राब निकल गया तो मुझे बहुत दुख होगा। स्वतंत्र रहकर ऐसे मैं असंख्य बच्चों की मदद कर सकतीं हूँ जिन्हें सहारे की जरूरत है। और वो सब के सब तो ख़राब भी नही निकल सकते न। जॉब से लौटने के बाद मेरा बचा हुआ दिन पूरा ख़ाली रहेगा ऐसे बच्चों को समर्पित करने के लिये। " श्रुति के अंदर का आत्मविश्वास कहीं दूर शून्य में खोई हुई आंखों से चमक रहा था।

"ओ माय डार्लिंग... यू आर सो जेनरस..! ये पॉइंट तो मैंने सोचा ही नही। फिर भी ये बहुत बड़ा निर्णय है। सब चीज़ें अच्छी तरह सोच लेना। बुढ़ापे में इनमें से कोई भी बच्चा काम न आया तो?" तान्या ने एक बहुत ही वाज़िब प्रश्न उठाया।

" तान्या, ये भी मैं सोच चुकी हूँ। जीवन की हर डोर ऊपर वाले के हाथ में है। क्या कभी कुछ हमारी प्लानिंग से होता है भला? मेरे साथ की जितनी निःसंतान महिलाओं ने आई वी एफ कराया सबके पास आज बच्चा है। मेरे पास ही नही। क्यों? प्लानिंग और मेडिकल साइंस से सब कुछ हो जाता फिर क्या था ? रही बात बुढ़ापे की तो जिस बगल वाले वृद्धाश्रम में तुम कुछ दान देना चाहती हो न वहीं मैं भी भर्ती हो जाऊँगी।"

"दोनों सहेलिया खिलखिलाकर हँसने लगीं। तान्या ने कहा- "तुम भी महान हो। गंभीर विषय में भी कॉमेडी घुसा देती हो। सच कहूँ तो मेरे दो लड़के हैं फिर भी इनमें से किसी एक पर भी मुझे भरोसा नही। कल को ये पढ़ाई पूरी करने के बाद, शादी के बाद कहाँ रहेंगे, हमें साथ रखेंगे या नही कुछ कहा नही जा सकता। मैं अपने पड़ोस वाले अंकल को देखती हूँ उनकी उम्र अस्सी साल है। वाइफ की डेथ हो चुकी है। बेटे विदेश में है। यहाँ अपने दिन काट रहे हैं बस।"

यस तान्या, यही तो मैं कहना चाहती हूँ। तुम्हारे पास ऑप्शन नही था। मेरे पास ऑप्शन है। एक बच्चे के स्कूल से लौटने का घर पर बैठकर इन्तज़ार करने से अच्छा है मैं सौ बच्चों को स्कूल भेजने का इंतज़ाम कर सकूँ। मैं स्वतंत्र रहकर बहुत कुछ कर सकती हूँ। जब मेरे पास दो विकल्प है कि माँ बनूँ या मासी तो मेरे अंदर से यही पुकार आती है-मुझे माँ नही बनना मुझे ज़्यादा से ज़्यादा जरूरतमंद बच्चों की मौसी बनना है।

©® Twinkle Tomar Singh


Tuesday 26 March 2019

न घर की न नौकरी की

'सर , मुझे थोड़ा जल्दी छुट्टी चाहिये आज। मेरे बेटे की पेरेंट्स टीचर मीटिंग है।" सांत्वना सिंह ने (जो कि एक अध्यापिका हैं)बड़े संकोच के साथ हलक से शब्द निकाले।

"अभी चार दिन पहले ही तो आप हॉफ डे लीव लेकर गयी थीं,मिसेज सिंह। ऐसे कैसे काम चलेगा? आपकी अनुपस्थिति में आपका क्लास कौन पढ़ायेगा ? बच्चे शोर मचाने लगते हैं। " प्रिंसिपल ने कुर्सी पर बैठे बैठे ठसक के साथ कहा।

"जी समझती हूँ सर। मेरा बेटा अभी छोटा है। उसकी तबीयत थोड़ी ख़राब थी तो उसे डॉक्टर के पास लेकर जाना था उन दिन। प्लीज् आज छठे घंटे के बाद छुट्टी दे दीजियेगा।" सांत्वना ने लगभग गिड़गड़ाते हुये शब्दों में कहा।

"ठीक है जाइये। पर अब इस महीने नो हॉफ लीव।" प्रिंसिपल ने अहसान सा जताया पर साथ में एक चाबुक भी लगा दिया।

मन मसोस के सांत्वना स्टॉफ रूम में आयी। बोतल में से पानी निकाल कर पिया। घड़ी की तरफ देखा तो छटा घंटा लगने में 15 मिनट बाकी थे। 15 मिनट में 50 बातें उसके दिमाग में घूमने लगीं। उत्सव, उसका बेटा, कितनी शिद्दत से स्कूल में उसका इंतज़ार कर रहा होगा। हमेशा ही उसकी ये शिकायत रहती है मैं उसके स्कूल के किसी भी फंक्शन में देर से पहुँचती हूँ। पिछली बार तो उसकी परफॉरमेंस निकल गयी थी तब पहुँच पायी थी। टन टन टन करके छह घंटे लगे तो सांत्वना अपनी तन्द्रा से बाहर आयी। झटपट उसने अपना बैग उठाया स्कूटी में डाला और फुल स्पीड में जान जोखिम में डालकर चलाते हुये ले गयी । कैसे भी हो उसे जल्दी से जल्दी उत्सव के पास पहुंचना हैं।

जैसे ही वहां पहुंची देखा तो उत्सव मुंह फुला कर क्लास में सबसे पीछे बैठा है। उसे देखते ही बोला - "आज फिर लेट कर दिया न आपने। मेरी मैम कितनी बार आपको पूछ चुकी है। सबके पैरेंट आ के चले भी गये।"

"अरे मेरा राजा बेटा ट्रैफिक में फंस गयी थी मैं। चल तेरी टीचर से तेरी खबर लूँ।"

जैसे तैसे मीटिंग निपटा कर सांत्वना घर पहुंची। फिर वही खाना, कपडे, महरी से काम करवाते करवाते शाम हो गयी। विराज के आने का वक़्त हो गया। सोचने लगी विराज आ जाएं तो ही चाय चढ़ाऊँ।

घंटी बजी , दरवाजा खोला तो विराज ने स्माइल तक नहीं दी। बल्कि नाराज होते हुये अंदर आये और शिकायती लहजे में कहने लगे - "क्या हो गया है तुम्हें आजकल?  आज लंच ब्रेक में सबके साथ टिफ़िन खोला तो देखा सिर्फ़ पराठे हैं। सब्जी रखना ही भूल गयी थी तुम। मिस्टर शर्मा ने दी अपनी सब्जी। व्यंग्य भी मारा भाई मेरी पत्नी तो बस हाउस वाइफ है इसलिए एकदम परफेक्ट है मेरे लिये।"

"ओ माय गॉड" सांत्वना ने दांतों से जीभ काटी। "सुबह सुबह तीन तीन टिफ़िन लगाती हूँ। गलती से भूल गयी होंगी। जाने दो। मैं अच्छी सी चाय बनाती हो तुम्हारे लिये।"

"रहने दो। मैं खुद बना लूँगा। कल चीनी डालना भूल गयीं थी तुम। मम्मी को बिना चीनी चाय चाहिये सबको नही। " विराज खीजते हुये बोला।

सांत्वना सर झुका कर रसोई में चली गयी। और कुछ बोलना मतलब भारत पाकिस्तान का युद्ध। फ़िलहाल चाय बना कर उसने रेडी कर दी। तब तक मम्मी जी भी वॉक से वापस आ गईं । सब चाय पी ही रहे थे,अपने दिन भर की बातें शेयर कर कर रहे थे कि मम्मी जी ने कहा - "बहु मेरा चश्मा बनने को दिया था।" सांत्वना ने अपराध भावना के साथ उत्तर दिया - मम्मीजी स्कूल से जल्दी में लौटी तो भूल गयी, कल जरूर से ले आऊँगी।" मम्मीजी जी कहा-" कोई बात नही बहु। बस सुंदरकांड पढ़ने में दिक्कत होती है इसलिये कहा। " सांत्वना ने मन में सोचा कि जब कोई बात नही तो ये सुनाने की क्या जरूरत थी।

सारा काम निपटा कर जब सांत्वना रात में बिस्तर पर गयी तो पूरे दिन का घटनाक्रम उसके दिमाग में घूमने लगा। सोचने लगी नौकरी और घर के बीच में पिस कर न नौकरी ही ढंग से कर पा रही है और न ही घर ठीक से देख पा रही है। न प्रिंसिपल खुश है न बेटा न पति न सास न रिश्तेदार। सबको खुश रखने की कोशिश में उसकी अपनी ख़ुशी गुम हो गयी है इसका किसी को ख़्याल ही नही। घड़ी देखी तो साढ़े बारह बज रहा था। उसने आँखे बंद करके सोने की कोशिश की। सोयेगी नही तो सुबह जल्दी उठ नही पायेगी और फिर से शिकायतों की झड़ी ही लग जायेगी।

दोस्तों एक कामकाजी महिला के मन की व्यथा बहुत कम लोग समझ पाते हैं। सबको सन्तुष्ट करना ही उसकी ज़िन्दगी की प्राथमिकता हो जाती है। एक दोहरे गिल्ट कॉन्शेंस के साथ उसे जीना होता है। घर पर उसे नौकरी के काम लाकर पूरे करने होते है और नौकरी पर हो तो उसे घर को वक़्त न दे पाने की अपराध भावना सताती है। आत्मग्लानि की भावना एक परछाई की तरह साथ चलती है उसके। घर में नौकरी की फ़िक्र और नौकरी पर घर की चिंता। जब तक घर के सब लोग मिल कर सहयोग न करें तब तक उसकी ज़िन्दगी की मुश्किलें हल नही होती।

ट्विंकल तोमर सिंह

Sunday 24 March 2019

अपना टाइम आ गया

अभी मैं सो कर उठी ही थी। आंखें मल रही थी, अंगड़ाइयों की कसरत शुरू की ही थी कि रसोई से कुछ गुनगुनाने की आवाज़ सुनाई थी। कानों पर जोर देकर सुना तो पता चला पतिदेव की आवाज़ है। वो एक गाना चला है न आजकल " अपना टाइम आयेगा' ...बस बस वही पूरे जोश, उल्लास, ख़ुशी, आनंद, रैप और बेसुरे आलाप के साथ गाया जा रहा था।

आधी जागी आधी सोई , बिस्तर छोड़कर मैंने मोबाइल फ़ोन हाथ में उठा कर किचेन की ओर प्रस्थान किया। देखा चाय तैयार हो चुकी थी और टोस्टर में ब्रेड डाल दी गयी थी। टोस्टर में ब्रेड का टोस्ट बनाते बनाते मेरी तरफ पति देव ने रहस्यभरी मुस्कान फेंकी और टोस्ट को टॉस किया। फिर मुठ्ठी तान तान कर नारे लगाने वाली स्टाइल में गाने कम चिल्लाने ज्यादा लगे - "अपना टाइम आयेगा, अपना टाइम आयेगा।'

मैंने सोचा आज इनका दिमाग पूरी तरह खराब हो गया है। एक तो मुझसे पहले उठ गये, दूसरा चाय, टोस्ट खुद बना रहे हैं, तीसरा इतने खुश है सुबह सुबह। खैर मैंने उफ़ करते हुऐ अपनी आंखें नाचायीं और इनको ऐसी नज़रों से देखा जैसे कि ये वास्तव में पागल हो गये हों, फिर अपने मोबाइल का लॉक खोला और वाट्सअप मेसेजेस चेक करने लगी।

फैमिली ग्रुप में पापा का एक टेक्स्ट पड़ा था। मेरा भाई 18 महीनों के बाद भारत आ रहा था तो पापा ने लिखा था तुम भी दो हफ्ते के लिये घर आ जाओ। मन मयूर ख़ुशी से नाच उठा। सारी सुस्ती जाती रही। तुरंत अपने भोले पतिदेव को मैंने आवाज़ लगायी और पूछा - "हनी, वो बड़ा वाला सूटकेस तुमने कहाँ रख दिया था ?"

मेरा इतना पूछना था कि वो हुर्रे चिल्लाते किचेन से बाहर आये , मुझे बड़ा जोर का इग्नोर मारा, मेरी बात का जवाब देना तो दूर रहा। अपना मोबाइल फ़ोन उठाया तुरंत अपने बेस्ट फ्रेंड को फ़ोन मिला दिया। कह रहे थे - " सनी, अपना टाइम आ गया साले।"

अब जाकर मुझे सारा मामला समझ आया।

ट्विंकल तोमर सिंह

Friday 22 March 2019

गमले का पौधा

कमर के नीचे का शरीर पैरालिसिस से बेकार हो चुका था। रोहन को लगता था गमले में लगे पौधे की परछाई उसे उसकी औकात बताने के लिये ही कमरे में आती है।

"देख तू गमले में लगा पौधा हो गया है। दूसरों की दया पर आश्रित।"

जब व्हीलचेयर पर बैठकर वो घर जाने लगा, उसने बाहर देखा वो अकेला हरा पौधा पूरे वातावरण को सकारात्मक बनाये हुये था। उसे लगा वो कितना गलत था।

घर आकर उसने बक्से से कैनवस, रंग और ब्रश निकलवाये। आज उसकी बनाई पेंटिंग्स बहुत घरों के ड्राइंगरूम में पॉजिटिविटी बिखेर रहीं हैं।

©® Twinkle Tomar Singh

Monday 18 March 2019

चीयर लीडर्स

एक दिन तुम भी देखोगे
जिन पगडंडियों को रचते
हुये तुम आ गये हो
उन पर घास नही जमी है
रास्ते के अगल बगल
घास के तिनके
घास के फूल
चीयर लीडर बन के
तन के खड़े हैं, झूमते हैं
पीछे आने वालों के लिये
आत्मतृप्ति की चैन भरी साँस
यूँ भी आती है कभी कभी !

©® Twinkle Tomar Singh

Wednesday 13 March 2019

भूसी भी कीमती है

"बुआ इस उम्र में भी इतनी मेहनत करती हो। बड़िया अचार पापड़ ख़ुद बना बना के बेचती हो। तुम्हारे बेटे नही है क्या ?" रमैया बुआ बड़ी तेजी से सूप में दाल को फटक कर भूसी कंकड़ अलग कर रहीं थीं।

मैं इस शहर में अभी कुछ दिन पहले ही पढाई करने के लिये आयी थी। बगल की छत पर अक्सर रमैया बुआ बड़ी, पापड़, आचार सुखाते हुए देखती थी। एक दिन रहा नही गया और उनसे ये प्रश्न पूछ ही डाला।

रमैया बुआ ने सर उठा कर मेरी ओर देखा फिर अपने सूप को फटकारने में व्यस्त हो गयीं , सर नीचे किये किये ही बड़े शांत ढंग से उन्होंने जवाब दिया - "हैं क्यों नही। बड़े शहर चले गये है सब।"

अब तो मेरी जिज्ञासा और जाग गयी। "तो तुम क्यों नही गयीं उनके साथ।"

"गयी थी एक बार कुछ महीनों के लिये। बहु को बेटा हुआ था तो लड़का आकर बुला ले गया था।" बिना किसी जोश के रमैया बुआ ने दाल से कंकड़ बीनते हुये उत्तर दिया।

"फिर वापस क्यों आ गयीं? वहीं रहतीं पोता भी खिलाती मन भी बहला रहता ।" ज्यादा कचोटना अच्छा तो नही लग रहा था, पर नारी मन अपनी खुजली दूर किये बिना शांत भी नही हो सकता न।

"देखो बेटा, जिस भूसी को गाय बड़े मन से खाती है वही भूसी अगर अन्न के साथ मिल जाये तो किसी काम की नही रहती। उसे बेकार समझ कर फटक कर निकाल दिया जाता है। ऐसे ही इंसान को भी अपनी कीमत का खुद अंदाज़ा होना चाहिये। " ऐसा लगा रमैया बुआ का दिल मैंने दुखा दिया था।

" माफ़ करना बुआ। मेरा आपका दिल दुखाने का कोई इरादा नही था।" मैंने तुरंत अपनी गलती सुधारनी चाही।

अरे बेटा, ऐसी कोई बात नही। मन जहाँ भी रमे वही खुशी मिल जाती है।  मेहनत वहाँ भी दिनभर करनी पड़ती थी। यहाँ करती हूँ तो चार पैसे तो हाथ आते हैं। वहाँ न पैसे हाथ में मिलते थे, न नाम मिलता था, ऊपर से घर और पोते की देखभाल में कोई कमी रह जाये तो बेटे से डाँट मिलती थी वो अलग। जीवन के अंतिम पड़ाव में हूँ, उनके लिये मैं भूसी समान ही सही मेरा भी अपना कोई वजूद है, कोई कीमत है,
जो थोड़ा बहुत कमाती हूँ उतनी ही सही। " रमैया बुआ के चेहरे पर आत्मसम्मान का दर्प चमक रहा था।
Twinkle Tomar Singh

भूख न देखे टूटी थाल

सब्जी को रोटी के एक टुकड़े में लपेट कर बड़े साहेब ने मुँह में डाल कर चबाना शुरू किया। "आजकल किसी भी चीज़ में कुछ स्वाद ही नही रहा।"

" मीरा...क्या आज अरहर दाल बिन खटाई की बना दी क्या ?" गरम दाल को चम्मच से सुड़कते हुये साहेब ने अपनी पत्नी को आवाज़ दी जो रसोई से सलाद ला रहीं थीं।

"क्या हुआ जी? सब कुछ डाला है कली खटाई, टमाटर धनिया मिर्चा सब। अब फसल में ही स्वाद न हो तो कोई क्या करे ?" मीरा ने साहेब की थाली में बड़ी मुश्किल से जगह बनाते हुये सलाद परोसा। दो तरह की सब्जी, दाल, रोटी, चावल, अचार,चटनी,पापड़ सब पहले से ही थाली में जगह घेरे बैठे थे ।

"वही तो। बचपन वाला वो स्वाद रहा ही नही। स्कूल जाने से पहले, मुझे याद है, हम लोगों को अम्मा सिर्फ़ दाल चावल कटोरे में डाल के दे देतीं थीं। क्या स्वाद था वाह। अब नकली खाद, फ़र्टिलाइज़र, इंजेक्शन देकर फसल उगाएंगे तो कहाँ से सब्जी और दाल चावल रोटी में स्वाद आयेगा। बस पेट भरने को खा लो। तृप्ति तो मिलने से रही। " - साहेब ने रोटी सब्जी में  ढेर सी चटनी लगा कर कौर मुंह के अंदर धकेला।

" अरे, मुनिया कितनी बार कहा अपने बच्चे को अपने पास बैठाया करो। जब साहेब खाना खाया करें तो इनसे दूर रखा करो।" मीरा ने मुनिया को आवाज़ दी। ( चटोरा कहीं का, इनके खाने को नज़र लगा देता है। तभी तो इनको खाने में स्वाद नही आता। - मीरा ने मन में घृणा के साथ कहा।)

मुनिया आयी और डपट कर अपने बच्चे को गोद में उठा कर ले गयी। जाते जाते भी बच्चे की निग़ाह साहेब की थाली पर ही टिकीं थी। कोने में ले जाकर अपने बाबू को पुचकारने लगी - "भूख लगी है न बचवा। बस अभी पोछा लगा लूँ फिर घर चल कर देतीं हूँ।"
बचवा की लार अभी तक बह रही थी और आंखों में एक अजीब से लालच में डूबी हुई भूख थी। मुनिया अपने दो साल के बच्चे के मन की बात अच्छी तरह समझ रही थी, जो अभी ठीक से बोल भी नही पाता था।

साहेब के डकार लेने की आवाजें आने लगीं। मीरा मेमसाब डाइनिंग टेबल से खाने पीने का सामान हटा कर रसोई में रखने लगीं। मुनिया के अंदर की माँ ने बड़े संकोच से साथ कहा- "मालकिन, अगर दाल चावल बचा हो थोड़ा सा दे दीजिये। बचवा भूखा है शायद।"

"अरे हाँ क्यों नही। एक आदमी भर का खाना मैं हमेशा ज़्यादा बनाती हूँ।" - मीरा ने कहा - (वैसे भी इसे नही दूंगी तो उनका खाना पचेगा नही।) - मन में वितृष्णा से बुदबुदाते हुये महरी के लिये अलग से रखे हुये  बर्तनों में दाल चावल परोसने लगीं।

मुनिया ने दाल चावल साना , कौर बना कर बचवा को खिलाने लगी। बचवा लपक लपक के खा रहा था। दो कौरों के बीच का इंतज़ार भी उसे सहन नही हो रहा था। मुनिया ने बीच में एक कौर अपने मुँह में भी डाला, भूख उसे भी बड़ी जोर की लगी थी। पर बचवा का पेट भरना जरूरी था पहले। पर उसे ये नही समझ आया कि साहेब क्यों कह रहे थे खाने में स्वाद नही है।

©® Twinkle Tomar Singh

Saturday 2 March 2019

जन्मदिन

सूरज निकलने पर यदि उस ओर मुंह करके खड़े है तो परछाईं पीठ के पीछे रहेगी। पूरा दिन यूँ ही बीत जाये इसी दिशा की ओर मुंह किये तो पायेंगे परछाई दोपहर में सबसे छोटी और शाम ढलते ढलते सबसे लंबी दिखती है।

जीवन की भी दोपहर बीत जाती है और शाम की ओर बढ़ने लगती है। कल तक जो परछाईयाँ दिखती भी नही थीं, आज अपना कद बढ़ाते बढ़ाते डराने लगती हैं। जीवन की सुबह और दोपहर में बेखौफ़ रहने वाले भी  डरने लगते है कि शाम होगी तो न जाने क्या होगा?

जितना भी कस के गाँठ बांध लो, उम्र ख़र्च हो ही जानी है तो जन्मदिन का जश्न क्यों? कम होती संपदा पर भला कैसी प्रसन्नता?

बहीखाते में सुख दुख का हिसाब दर्ज़ हुआ
वक़्त की पोटली से साल एक और खर्च हुआ

बहुत कुछ पाया, बहुत कुछ पाने की हसरत रह ही गयी। ईश्वर के सामने सिर झुकाती हूँ तो कभी कुछ मांगती नही, बस धन्यवाद देती हूँ जो कुछ दिया उस के लिये। शिकायतें बहुत है उससे,पर क्षमा कर दिया उसे भी मैंने।

फिर भी जन्मदिन ऊर्जा से तो भर ही देता है, कुछ तो ख़ास अनुभव होता ही है। जश्न इस बात का आने वाला कल मुट्ठी में है। कुछ हँसी बाँटी जाये, कुछ दुख पढ़े जाये। सम्पदा बस इतनी ही कुछ तो अच्छा काम किया ही होगा। बहुत से पल व्यर्थ में फिसल भी गये तो क्या, जो घड़ी जी लेंगे वही रह जानी है।

समय की धारा में उमर बह जानी है।

जन्मदिन मुबारक हो टि्वंकल !







द्वार

1. नौ द्वारों के मध्य  प्रतीक्षारत एक पंछी किस द्वार से आगमन किस द्वार से निर्गमन नहीं पता 2. कहते हैं संयोग एक बार ठक-ठक करता है फिर मुड़ कर...