Wednesday 27 April 2022

कक्षा कक्ष कभी बन्द नहीं होते

कक्षा कक्ष
----------------
विद्यालय विद्यालय होते हैं। ये और बात है कभी कभी किसी घर को स्कूल बना दिया जाता है। घर वाले स्कूल लचीले से होते हैं। उसमें स्केल से सीधी सीधी लाइन्स खींच दी गयीं हों ऐसी प्रतीति नहीं होती। ऐसे विद्यालओं में एक्स्प्लोर करने की संभावना अधिक होती है। जैसे मेरे विद्यालय में कुछ एक कमरे में कुछ अजीब सी सीमेंट से अलमारी जैसी आकृति बनी होती थी। उस पर हम लोग अपने बस्ते रख दिया करते थे। आज जब उसे अपनी स्मृति में दूर के फोकस से देखती हूँ तो पाती हूँ कि वो एक फायर प्लेस था। फिर मेरे मस्तिष्क ने पूरे स्कूल की संरचना का विश्लेषण कर डाला और पाया उसमें आंगन था, बैठक था, रसोई थी,  बाहर पोर्च था (शायद कार खड़ी होती होगी।), पोर्च के सामने छोटी सी गोल आकार की वाटिका। लाल रंग की एक बँगलानुमा इमारत। शायद किसी अंग्रेज ऑफिसर का बंगला रहा होगा या किसी संभ्रांत बंगाली का।

किसी घर को स्कूल न बनाया गया हो तो उनके बड़े नीरस आकार होते हैं। बीएड के दौरान विद्यालय के आकार के बारे में पढ़ाया गया था। एल आकार का, सी आकार का, ई आकार का। 

विद्यालय की इमारतों में दरवाजे अंदर की ओर बन्द नहीं होते। कक्षा के दरवाजों में अंदर से नहीं, बाहर की ओर सिटकनी/कुंडी/कड़ी होती है। शायद इसलिए कि कक्षा में अंदर से बंद करके बैठने की क्या आवश्यकता? बच्चों को तो यही लगता होगा कि विद्यालय के कक्ष सदैव खुले रहते हैं। पर खिड़कियों में सिटकिनियाँ होतीं हैं, क्योंकि अक्सर सर्दियों के मौसम में खिड़कियां बन्द करके बैठा जाता है। 

संभवतः दरवाजे में कमरे की अंदर की ओर कुंडी या सिटकनी न लगाने के पीछे खर्च कम करना ही उद्देश्य रहता होगा। 

इस पर सोचा जाए तो ये दार्शनिक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कक्षा-कक्ष वह कक्ष नहीं होता जहाँ एक निराश और हताश मन संसार से मुँह मोड़ कर कमरा बन्द करके बैठ जाये। ये मन का विकास करता है। 

विद्यालय वो स्थान हैं जहाँ विद्यार्थियों के मस्तिष्क को खुली सोच मिलती है, शिक्षा का प्रकाश मिलता है। यदि बच्चों को लगता है कि विद्यालय के कक्ष कभी बन्द नहीं होते.....

....तो उन्हें सही ही लगता है...!!

~ टि्वंकल तोमर सिंह

Thursday 21 April 2022

लिंग भेदभाव

लिंग भेदभाव
------------------
बचपन में भाई बहनों में लड़ाई होना आम बात है। हम भी अलग न थे। भाई से लड़ाई शुरू होती थी शास्त्रार्थ से और फिर हमारे अंदर बैठे नारायण याद दिला देते थे," सारे रिश्ते मोह माया है।" तो बस, शास्त्रार्थ महाभारत में बदल जाता। उस समय हमारे दो कमरे के राजमहल में तीर-धनुष, भाला-कटार तो होते न थे, तो हाथों और पैरों से युद्ध लड़ना पड़ता था। मुक्केबाजी, कराटेबाज़ी, कुश्ती, ओखल कूटना जैसे सारे टैलेंट नैसर्गिक रूप से हमें मिले थे। पर यहाँ मेरे अंदर लिंग भेदभाव की भावना बलवती थी। भाई के साथ नोचा-नोची, मुक्कालात सब होता पर बहनों के साथ केवल मौखिक संग्राम पर ही बात ख़त्म हो जाती थी। 

डिग्री ख़त्म करके मैंने करियर शुरू किया। सौ से ऊपर बच्चों की कक्षा को अनुशासन में रखना कठिन है। फिर उस पर अगर वो लड़के हों, तो बहुत मुश्किल हो जाता है। न चाहते हुये भी कभी कभी छड़ी उठानी पड़ ही जाती है। कभी कभी तो ये छड़ी ही राम जी की पादुका की तरह मेज पर रखे-रखे शासन कर लेती है, कक्षा-राज्य में शांति कायम रहती है। लड़के अक्सर कहते हैं ," मैम, आप बहुत भेदभाव करती हैं। लड़कियों को हाथ भी नहीं लगातीं और हम लड़कों को छड़ी, डस्टर, स्केल जो भी मिल जाये उससे कूट डालती हैं।" अब मैं क्या बताऊँ कि लड़कियों के पास एक ब्रह्मास्त्र होता है, जिसके आगे हमारी छड़ी जैसे तुच्छ अस्त्र की क्या बिसात? ज़रा सा डाँट भर दो उनकी आँखों में नलका बहने लगता है और हम कठोर से कठोर हृदय वाले अध्यापकों का सारा क्रोध उसी में बह जाता है। 

फ़ेसबुक पर कई लोगों ने मैसेंजर में आकर इल्ज़ाम लगाया। "मैम, आप बहुत भेदभाव करती हैं। मानव के कमेंट को नीला अँगूठा और मानवी के कमेंट को हृदयरूपी रक्तवर्णी प्रतिक्रिया चिन्ह।" अब मैं क्या बताऊँ....एक मानवी मुझ अकिंचन से बिना खार खाये, बिना जले-भुने, मेरे ट्रिक से खींचे गए, फिल्टर से नहलाये गए, डिजिटल चित्र को न केवल पसंद कर रहीं हैं, उस पर प्यारे प्यारे प्रेम-पगे शब्दों से पुष्प-वर्षा कर रही हैं, उस पर काव्य सृजन की इच्छा प्रकट कर रही है, तो बदले में मैं उन्हें कृतज्ञतापूर्वक 'दिल' भी न दूँ? फिर उन्हें ये अनुभव कराना होता है कि वे मेरे हृदय में 'ख़ास' स्थान रखतीं हैं। मानव का क्या है उन्हें तो खिचड़ी भी इसीलिए पसंद आ जाती है क्योंकि हिन्दी व्याकरण के हिसाब से वह स्त्रीलिंग है। सच बात तो यह है कि मानव को तो दिल वाला रिएक्शन इसलिए नहीं देती कि कहीं उन्हें ये न लगे 'रिएक्शन' नहीं...सीधे 'दिल' ही दे दिया है। आख़िर इस मामले में वे बहुत नाज़ुकमिज़ाज़ होते हैं। उन्हें खाँसी-ज़ुकाम-कोरोना की ही तरह 'इश्क़' बहुत जल्दी पकड़ लेता है।

उफ़्फ़.....पर सच में शर्मिंदा हूँ.....पता नहीं ये लिंगभेदभाव की भावना मेरे हृदय से कब निकलेगी? 

~ टि्वंकल तोमर सिंह

Sunday 3 April 2022

जीवशाला

रात कभी भी 
रंग नहीं छीन लेती...
स्याह दृश्यों को चाहिए 
थोड़ा सा उजाला...
और थोड़ा सा दृष्टिकोण! 
जीवन जीवशाला है
अँधेरी कोठरी...कभी नहीं..कभी नहीं... 

~ टि्वंकल तोमर सिंह 

Friday 1 April 2022

ऑल फूल्स डे

ऑल फूल्स डे
-------------------
हम सब जीवन में कभी न कभी इस दिवस पर मूर्ख बने हैं या किसी दूसरे को मूर्ख बनाने का प्रयास किया है। एक बार इस दिवस पर मूर्ख बनने वाला व्यक्ति सारे जीवन इस 'अप्रैल फूल' बन जाने की घटना को याद रखता है। कुछ अधिक ही सतर्क रहता है।

दो मजेदार उदाहरण याद आ रहे हैं।

मेरे घर में सेम की बेल लगी थी। अच्छा खाद-पानी पाकर उसमें सेम की फलियाँ लहलहाने लगीं। इतनी कि मेरे छह लोगों के परिवार के लिये उसे निपटा पाना संभव न था। अतः उसे मोहल्ले में बाँटने का निर्णय लिया गया। इस लकी ड्रा के लिये सबसे पहले उस परिवार को चुना गया जिससे हमारी सबसे अधिक घनिष्ठता थी। पिता जी ने एक थाली में सेम रखकर, ऊपर रुमाल से ढककर मुझे थमा दी और कहा-अमुक ऑन्टी को दे आओ। जब मैं उनके घर थाली लेकर पहुँची तो ऑन्टी ने थाली लेने से मना कर दिया। कारण उस दिन एक अप्रैल था। उन्हें लगा मैं उन्हें मूर्ख बनाने के लिये थाली में कंकड़-पत्थर रख कर लायी हूँ। बाद में उन्हें रुमाल हटाकर दिखाया तब वो मानी, फिर भी सशंकित थीं कि कहीं सेम के अंदर कुछ भरा न हो। 

मेरे एक भैया थे। एक अप्रैल को उनका जन्मदिन था। पहले जन्मदिन मनाया नहीं जाता था। पर एक बार उनके घरवालों ने उनका जन्मदिन मनाने का निर्णय लिया। वो सुबह सुबह आस पड़ोस में अपने सभी संगी साथियों को निमंत्रण दे आये। संध्या के समय पार्टी की समस्त तैयारी करके नन्हें अतिथियों की प्रतीक्षा करने लगे। पर एक भी बालक घर नहीं आया। कारण आप समझ ही सकते हैं।

एक अप्रैल को थोड़ा बहुत मौज-मस्ती तो बचपन में होती ही थी। कभी साबुन के टुकड़े को टॉफी की पन्नी में लपेट कर किसी बच्चे को खिला दिया, चाय में नमक मिला दिया, टूटी कुर्सी पर बैठा दिया...आदि..आदि..

पर कुछ लोगों की प्रवृत्ति होती है दूसरों को मूर्ख बना कर अपना मतलब निकाल लेना। पेशेवर ठगों की बात जाने दीजिए, सामान्य जीवन में भी कुछ अति चालाक क़िस्म के लोग मिल जाएंगे, जिनके झाँसे में सीधे-साधे व्यक्ति यदि फंस जाए तो उनका मूर्ख बनना निश्चित है।

किसी भोले भाले,अनपढ़ फेरी वाला जो अधिक हिसाब नहीं जोड़ पाता उससे चीज़ हड़प लेना और पैसे भी कम दे देना, घर में कामवाली से आवश्यकता से अधिक काम लेना (कि जितने पैसे उसे दिए हैं उससे अधिक ही वसूल लें) किसी मासूम मित्र के बात बात पर धन खर्च करवा देना, दूसरे के घर में कोई चीज़ है तो उस चीज़ का माँग माँग कर प्रयोग करते रहना, पर स्वयँ उसको न खरीदना, दूसरे से मीठी मीठी बातें करके उससे अपना काम निकलवा लेना...पता नहीं कितने उदाहरण मिल जाएंगे दुनिया में।

चालक व्यक्ति को इसमें एक परपीड़क सुख के अलावा क्या संतोष मिलता है? क्या सुख की सच्ची परिभाषा से वो वास्तव में परिचित हैं? वह व्यक्ति जिसे आपने मूर्ख बनाया, या तो वो पहले से आप पर भरोसा करता था, तब आप उसे मूर्ख बना पाए या फिर उसने आपको अपना विश्वास जीतने का एक मौका दिया था,पर आपने खो दिया। असली मूर्ख कौन हुआ फिर?

~ टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ। 

द्वार

1. नौ द्वारों के मध्य  प्रतीक्षारत एक पंछी किस द्वार से आगमन किस द्वार से निर्गमन नहीं पता 2. कहते हैं संयोग एक बार ठक-ठक करता है फिर मुड़ कर...