Saturday 29 May 2021

मैं क्या हूँ..?

वह प्रेम में था
उसने कहा
तुम नहीं जानती हो
तुम क्या हो..

उसने बहुत प्रयास किया
फिर वह जान गई 
'मैं क्या हूँ..'
अब उसने कहा 
तुम अहंकारी हो...

वह अब भी प्रेम में है
स्वयँ के !

~टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ। 

Friday 21 May 2021

स्टॉर्म इन अ टी-कप

"लौ पियौ...उठाओ कप...चाह ठंडी हो रही है।" मिश्रिख,सीतापुर के एक छोटे से घर में मुझ अतिथि देव को नैवैद्य ग्रहण करने का आग्रह किया गया।

और मैं एक बार ऑन्टी का मुँह देख रही हूँ, एक बार सामने स्टील की ट्रे में सजे चीनी मिट्टी के कप को। कितना मना किया था "ऑन्टी,चाय पी कर आई हूँ...मन नहीं है" पर ऑन्टी को लगता है,चाय का अपमान उनका अपमान है। तो आ गयी चाय मुस्कुराते हुये, मुझे चैलेंज देते हुए,मेरे सामने। चाय का रंग हल्का मटमैला है,उसमें से भाप निकल रही है,कप में चाय लबालब ऊपर तक भरी हुई है, ऊपर कुछ चिकनाई की बूंदे फैली हुई चमक रही है।

"हाँ.. हाँ ऑन्टी, पी रही हूँ।" कहते हुये बहुत साहस के साथ साथ कप को उठाती हूँ। आज विधाता ने तुम्हें मेरे भाग्य में लिख दिया है। तुम्हें उदरस्थ करना ही होगा। कहते हैं, दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम। चाय चाय पर भी लिखा होता है पीने वाले का नाम। काली हो, गोरी हो, खौली हुई हो, कच्ची हो, चीनी ज़्यादा हो, चीनी कम हो...दूध नाममात्र का हो या मलाई/चिकनाई तैरती हो..फ्रेश चायपत्ती से बनी हो...या दुबारा-तिबारा चायपत्ती खौला कर बनाई गई हो...इलायची वाली हो...या ढेर सी अदरक वाली...और कहीं कहीं तो चाय के नाम पर काढ़ा... सौंठ, कालीमिर्च,दालचीनी,  सब मिलेगा.....पर चाय तो चाय है। 

अगर आप मेहमान बन कर कहीं गये है, तो इनमें से कौन सी प्रकार की चाय आपके भाग्य में उस दिन लॉटरी की तरह निकलने वाली है,नहीं जान सकते। और तो और मना भी नहीं कर सकते। खुल कर कैसे मुँह पर कह दें कि चाय के नाम पर आप ये जो मटमैला, रंगीन, गर्म पानी लाये हैं, उसे कैसे हम पी लें? 

थोड़ी देर तक चाय को मैं फूँकती रही। इसके दो कारण थे- एक चाय ठंडी हो जाये तो एक बार साँस रोककर गले के नीचे ढुलका दी जाये, दूसरा थोड़ी देर टाइम पास हो जाएगा। कुछ देर तो इस त्रासदी को टाला जा सकता है। 

"अये.. हो...रजनी...का चीनी कम डाले हो चाय माँ..." ऑन्टी अपनी बिटिया को आवाज़ लगाती हैं। आँटी की चाय घूँटने लायक हो गयी थी। " हाँ , अम्मा...भाभी तनिक चीनी कम पीती हुइये न..." रजनी रसोई के अंदर से बोली। 
"अरे तो हमका तौ चीनी दै जाओ..." ऑन्टी हुंकारते हुये बोलीं। रजनी आयी एक भरे पूरे चीनी के डिब्बे के साथ और उसमें से दो चम्मच चीनी उसने उनके कप में डाल कर चाय का शरबत तैयार कर दिया। मेरी आँखें बाहर निकल आयीं। मैं सोच कर ही सहम गयी कि कहीं रजनी समझदार न होती तो....उसे न लगता कि भाभी तनिक चीनी कम पीतीं हुइये..तब?

ऑन्टी ने घूँट भरा- "आ...ह...अब ठीक है...लौ पियो..पियो..चाय बहुत नीक बनाती है हमारी रजनी।"

मैं अभी तक चाय को केवल फूँक रही थी, पर बिन पिये ही लगा मेरे अपने होंठ आपस में चिपक गये हों। दूध का जला छाछ भी फूँक फूँक कर पीता है। यहाँ मैं इस धरती की वो प्राणी हूँ जो कड़वी-मीठी-फ़ीकी हर प्रकार की चाय को भुगतने के बाद बस चाय को फूँकते ही रहना चाहती हूँ, पीना कभी नहीं। 

कैसे भी करके चाय का एक घूँट लिया। ऐसी चिकनाई भरी गंधाती हुई चाय..कि बस...कै ही हो जाये। मन किया कह दूँ-...नीक नहीं... नाक में दम करने वाली चाय बनाती है, रजनी। और जो ये चीनी कम है, तो ऑन्टी आपके कप में चीनी ज़्यादा कैसी होगी। सर भन्ना गया बस। 

पता नहीं भारत जैसे गर्म प्रदेश में ये चाय पीने-पिलाने की रीत किसने बना दी? अच्छा खासा जब लोग किसी के घर मिलने जाते थे,तो लोग गुड़- पानी देते थे, छाछ- मट्ठा-लस्सी पिलाते थे। फ़िल्मों में अक्सर देखा है लोग मेहमान के आने पर पूछते हैं 'ठंडा लेंगे या गर्म' । पर वास्तव में तो ऐसा कोई पूछता ही नहीं, सीधे दस मिनट बाद खौलती हुई चाय आपके सामने पेश कर दी जाती है। 

एक घूँट के बाद मैं चाय का कप थामे उठी और इधर इधर टहलने लगी। कभी कमरे की सजावट के बहाने..कभी कैलेंडर.. कभी पोस्टर...कभी कुछ,कभी कुछ। ऑन्टी को अपनी रजनी के गुणों का बखान करने के लिये और मैटीरियल मिल गया। ये तोरण रजनी ने बुना है..ये सीनरी रजनी ने बनाई है। मैं हाथ में चाय का कप लिये, चेहरे पर नकली मुस्कान, नकली विस्मय लिये- अच्छा अच्छा..बहुत बढ़िया...कहती जा रही हूँ। क्योंकि मेरा ध्यान तो उस आपदा पर है जो सामने 'स्टॉर्म इन अ टीकप' बनी है और मुझे कैसे भी करके झेलनी है। 

मेरा हाथ और मन दोनों इस बोझ से थक गये हैं। थोड़ी ही देर में मैं बालकनी में जाती हूँ, अगल बगल देखती हूँ...एक ख़ाली डिब्बा कबाड़ में किनारे पड़ा है। बस मुझे इस आपदा से निपटने का अवसर दिख जाता है। फौरन चाय उसी में उंडेल कर मैं विश्व विजेता की मुस्कान धारण करके वापस ऑन्टी के पास आ जाती हूँ।

बस ऐसे ही अनेकों चाह-दुर्घटनाओं को झेलने के बाद मैंने जीवन-बीमा करवा लिया। 

"मैं चाय नहीं पीती!" 

वास्तव में नहीं पीती... चाय छोड़े दस साल हो गये। 

~टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ। 

Wednesday 19 May 2021

अतीत के चलचित्र - पुस्तक समीक्षा


पुस्तक- अतीत के चलचित्र 
विधा- संस्मरण
लेखिका- महादेवी वर्मा



"दु:ख एक प्रकार श्रृंगार भी बन जाता है, इसी कारण दुःखी व्यक्तियों के मुख, देखने वाले की दृष्टि को बाँधे बिना नहीं रहते।"

ये पंक्तियां ऐसी थीं कि जब से पढ़ी मन के अंतरतम में धंस कर रह गयीं। वो सारे चेहरे आँखों के सामने से सजीव होकर गुज़र गये जिनकी आंखों में दुःख का अंजन तीक्ष्ण रेखा बनाता हुआ सजा था। 

ये पंक्ति है एक बेहद विस्मृत पुस्तक से , जिसके आवरण पर उसकी पहचान के तौर पर लिखा है 'अतीत के चलचित्र'। 

महादेवी जी को पद्य साम्राज्ञी के रूप में ही जाना। बचपन से कोर्स में उनका एक न एक क्लिष्ट शब्दों और अर्थ से सजा काव्य हमारे हिन्दी ज्ञान और प्रेम की परीक्षा लेता रहा। उनका लिखा एकमात्र गद्य जो विद्यार्थी जीवन में मैंने पढ़ा वो था - गिल्लू। बालमन पर उस छोटे से गिलहरी की कहानी अमिट छाप न छोड़े, संभव ही नहीं। उस समय उसकी कहानी आँखों को गीला तो कर ही गयी थी, उसके बाद कई चिड़ियों के बच्चों को बचाने में प्रेरणास्रोत के रूप में भी कार्य करती रही।

  महादेवी जी की रचनाओं के प्रति कुछ यूँ धारणा बन जाती है जैसे गणित के दुरूह सवाल। इसलिए कोई जल्दी उनकी पुस्तकों पर हाथ नहीं धरता। 

 महादेवी जी के बारे में कुछ कहना थाली में जुगनू रखकर सूर्य की आरती उतारने समान है। फिर भी कह रही हूँ कि इस पुस्तक में इतना रस, इतनी संतुष्टि, एक एक कहानी अपने आप में एक उपन्यास सरीखी, भाषा का चमत्कार, गद्य में पद्य की करिश्माई सुवास...मन महके बिना रहे तो कैसे? 

अतीत के चलचित्र महादेवी वर्मा द्वारा रचित एक रेखाचित्र है। इसमें हमारा परिचय समाज के बेहद अनचीन्हे , विस्मृत, चरित्रों से कराया गया है।  रामा, भाभी, बिन्दा, सबिया, बिट्टो, बालिका माँ, घीसा, अभागी स्त्री, अलोपी, बबलू तथा अलोपा ये ग्यारह चरित्र आपको अपने आसपास मिल जायेंगे, जिन पर आपने कभी ध्यान भी न दिया होगा, फिर उन पर संस्मरण लिखने की बात ही क्या? 

इन सभी रेखा-चित्रों को उन्होंने अपने जीवन से ही लिया है, इसीलिए इनमें उनके अपने जीवन की विविध घटनाओं तथा चरित्र के विभिन्न पहलुओं का प्रत्यारोपण दिखाई देता है। उनकी संवेदनशीलता,उनके अनुभूत सत्य जस-का-तस यहाँ दर्ज़ हैं। 

'अतीत के चल-चित्र' में सेवक 'रामा' की मालिक के बच्चों की    वात्सल्य से भरी सेवा, भंगिन 'सबिया' का पति-परायणता, सहनशीलता व धैर्य, 'घीसा' की निश्छल, बिना कुछ प्रतिदान माँगती एकलव्य सरीखी अंध गुरुभक्ति, साग-भाजी बेचने वाले अंधे 'अलोपी' का सरल व्यक्तित्व, कुम्हार 'बदलू' व 'रधिया' का सरल दांपत्य प्रेम तथा पहाड़ की रमणी 'लछमा' का महादेवी के प्रति गहरा प्रेम ये सभी प्रसंग आपकी आँखों को गीला न कर दें संभव ही नहीं।

इस पुस्तक से कुछ पंक्तियों को यहाँ उदाहरण के लिये कोट कर रही हूँ। 

"वैशाख नये गायक के समान अपनी अग्निवीणा पर एक-से-एक लम्बा आलाप लेकर संसार को विस्मित कर देना चाहता था। मेरा छोटा घर गर्मी की दृष्टि से कुम्हार का देहाती आवाँ बन रहा था। "

"
सूखी-सूखी पलकों में तरल-तरल आँखें ऐसी लगती हैं, मानो नीचे आँसुओं के अथाह जल में तैर रही हों और ऊपर हँसी की धूप से सूख गयी हों !" 

"उसे घर भेजने का प्रबन्ध कर मैं जब फाटक से लौटी, तब धरती और मेरे पैर लोहा-चुम्बक बन रहे थे।" 

ये तो मात्र झलकियां हैं। ऐसा एक सागर यहाँ शांति से लहराता मिलेगा। 

~ टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ। 

Tuesday 18 May 2021

सिकंदर उदास था

नक्शे लेकर बैठता 
सिर झुकाये जाने क्या बुदबुदाता

सिकन्दर उदास था
उसके पास नहीं बचे
और देश जीतने के लिये

बस इसीलिए उदासी को
शुरू होते ही ख़त्म कर देना चाहिए! 

ये पूरा ब्रह्माण्ड लील जायेगी
फिर भी तुम ख़ुश न हो सकोगे!

~ टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ। 


Friday 14 May 2021

कपूर की पोटली

एक किस्सा कहीं मैंने पढ़ा था। कुछ इस प्रकार था कि किसी को किसी रोग के लिये एक होमियोपैथी चिकित्सक ने कोई दवाई लेने की सलाह दी। कई दिन तक दवाई लेने के उपरांत भी उसे कोई लाभ न हुआ। वो पुनः चिकित्सक के पास पहुँचा और उसने चिकित्सक से शिकायत की ," आप की दवाई से मुझे कोई भी लाभ नहीं हो रहा है। पता नहीं आप कौन सी दवा मुझे दे रहे हैं।"

चिकित्सक ने कहा,"मैंने आपको किसी भी प्रकार की बादी चीज़ से परहेज़ रखने को कहा था। क्या आप उसका पूर्णतः पालन कर रहे हैं?"

रोगी ने कहा," हाँ, बिल्कुल, बहुत ही कड़ाई से पालन कर रहा हूँ। किसी भी प्रकार की कोई बादी चीज़ का सेवन कदापि नहीं करता ।" 

चिकित्सक ने पुनः दवाई दोहरा दी और कहा मुझे अपनी दवा पर पूरा भरोसा है। आप खान पान पर विशेष ध्यान दीजिए कि कहाँ चूक हो रही है।

चिकित्सक अपनी चिकित्सा के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। अतः रोगी ने अपने खान पान पर विशेष ध्यान दिया। ये पता लगाने  का पूरा प्रयास किया कि कहीं से भी कोई बादी चीज़ उनके भोजन में न आ सके। यहाँ तक कि उनके घर में भी सबके लिये उन्हीं के अनुसार भोजन बनने लगा। अन्य परिवारजन भी बादी चीजों से दूर रहने लगे। फिर भी आराम न होने पर रोगी ने अपनी खोज और बढ़ा दी। 

एक दिन वो दूध लेने ग्वाले के पास पहुँचे तो पाया कि जिस गाय के दूध का वो सेवन करते थे, उसे वो ग्वाला उड़द की भीगी दाल खिला रहा था। 

उन्हें अपनी समस्या की जड़ पकड़ में आ गयी। उन्होंने ग्वाले से पूछा कि इसे उड़द दाल क्यों खिला रहे हो? तब उसने बताया कि क्या करूँ घर में उड़द दाल कहीं से टनों आ गयी है। अब परिवार में तो इतनी खपत संभव नहीं है। 

उन महाशय ने ग्वाले को तो कुछ न कहा पर फौरन उस गाय का दूध लेना बंद कर दिया। फिर उसके बाद कहने की आवश्यकता नहीं कि उनको उस दवा से लाभ पहुँचने लगा। 

बचपन में मुझे याद है जब हम भाई बहन छोटे-छोटे थे, तो जैसे कि किसी को पेटदर्द या गैस की समस्या होती थी, फौरन माँ हमें थोड़ी सी हींग पानी से फाँकने को दे देती थीं, और हमें थोड़ी ही देर में आराम हो जाता था। अब मैं कितनी भी हींग फाँक लूँ, ज़रा भी आराम नहीं मिलता। 

तो क्या पहले जो आयुर्वेदिक / होमियोपैथी चिकित्सा कारगर थी अब नहीं है? 

जो लोग ऐसा समझते हैं, उन्हें ये बात ध्यान देनी होगी कि आज हम कोई भी चीज़ शुद्ध नहीं खा रहे है। क्या हींग, क्या लौंग, क्या इलायची, क्या जीरा, क्या बादाम। अधिकांश चीजों से उनका तेल पहले ही निकाल लिया जाता है।

सब्जी छौंकते समय अक्सर मुझे ये लगता है कि अच्छी खासी एक काढ़े जितनी सामग्री तो सब्जी में ही पड़ जाती है। भारतीय भोजन में मसालों को स्थान ही इसलिए दिया गया था कि शरीर के अंदर बहुत सारी व्याधियों से मुक्ति यूँ ही मिलती रहे। उन नियमों का हम आज भी पालन करते आ रहे हैं। पर आज वो उतने लाभदायक सिद्ध नहीं होते। हल्दी उतनी पीली कदापि नहीं होती जितनी आज दिखती है, अगर वो शुद्ध है तो।  खाने के बाद अगर आप पान खा रहे हैं तो क्या कत्था शुद्ध है? 

अगर आप घर में हवन कर रहे हैं तो क्या हवन में उपयोग की जाने वाली सारी सामग्री शुद्ध है? आप कपूर या अजवाइन की पोटली सूँघ रहे हैं तो पहले ये समझिए कि क्या वो कपूर शुद्ध है? कपूर और चंदन बहुत कठिनाई से शुद्ध मिलता है, मिलता भी है तो बहुत महंगा होता है। सबके बस की बात नहीं होती उसे अफ़ोर्ड कर पाना। अब हींग शुद्ध आती ही नहीं। डिब्बी पर लिखा होता है 70% स्टार्च। 

आयुर्वेद में कितनी दवाइयां मात्र गाय के दूध के साथ ही लेने को बतायी जाती हैं। पहले तो गाय का दूध बहुत मुश्किल से उपलब्ध होता है, दूसरी बात गाय माता की इस समाज में इतनी बेकदरी है कि आपने देखा ही होगा कहाँ कहाँ उन्हें अपने भोजन के लिये मुँह डालना पड़ता है। 

तो कुल मिलाकर बात ये है कि चिकित्सा प्रणाली को हम दोष नहीं दे सकते। गंगाजल में बहुत सारे रोगों को हरने की शक्ति है, पर जब गंगा ही दूषित हो जाये तो क्या किया जा सकता है? 

~टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ। 

Friday 7 May 2021

रबींद्रनाथ टैगोर और विक्टोरिया ओकाम्पो

दो अलग-अलग संस्कृतियों और दो भिन्न राष्ट्रों से आने वाले दो पूर्णतः अपरिचित व्यक्तियों के मिलन को, विशेषकर जब वे अपरिचित एक स्त्री और पुरुष हों, किस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है? क्या प्रेम का कोई और रूप हो सकता है जैसे कि आध्यात्मिक प्रेम या प्लेटोनिक प्रेम?

1924 में, जब रवींद्रनाथ टैगोर पेरू की यात्रा पर जाते समय बीमार पड़ गए, तो उन्हें ब्यूनस आयर्स में उतरना पड़ा। यहाँ उनकी मुलाकात विक्टोरिया ओकाम्पो से हुई। विक्टोरिया ने टैगोर की गीतांजलि के आंद्रे गिडे के फ्रेंच अनुवाद को पढ़ रखा था। उसके लिए टैगोर एक आदर्श मूर्ति थे। वह एक समर्पित प्रशंसक की तरह लगन से उनकी देखभाल करती थी। इसी समय लगभग दो महीने साथ रहने के दौरान था कि इन दो लेखकों के मध्य एक बहुत ही भावुक संबंध विकसित हुआ। 

टैगोर जी की पत्नी की बहुत वर्ष पूर्व ही पच्चीस वर्ष की अवस्था में बीमारी से मृत्यु हो चुकी थी। विक्टोरिया ने न केवल मन लगा कर उनकी सेवा की अपितु उन्हें उनके अंदर छुपी एक विशेष प्रतिभा से भी परिचित कराया। 

स्वास्थ्यलाभ कर रहे टैगोर जी के हाथ में उन्होंने ब्रश और रंग थमा दिए। विक्टोरिया की प्रेरणा से उन्होंने अपने अंदर की रचनात्मकता को एक नई विद्या से विस्तार दिया- 'चित्रकला'। गुरुदेव ने लगभग 2000 की संख्या में चित्र बनाये और ये सारे चित्र उनके अंतिम वर्षों में उनकी उंगलियों से चमत्कार के रूप में बाहर निकले। 

टैगोर जी ने विक्टोरिया एक नाम दिया- 'विजया' यद्यपि बांग्ला में 'व' नहीं होता है, उसकी जगह 'ब' का ही प्रयोग किया जाता है। अतः नाम लिखने का सामान्य बंगाली तरीका है 'बिजोया'। पर संभवतः, उन्होंने शाब्दिक रूप से विक्टोरिया का 'वी' ही लिया। विक्टोरिया का अर्थ भी है - विजय। 

एक दिव्य प्रेम संबंध टैगोर जी के भारत लौटने पर भी ज़ारी रहा। उन्होंने एक दूसरे को अनगिनत ख़त लिखे तथा उनके मध्य कई उपहारों का आदान प्रदान हुआ। 

'द वीक' के अनुसार विक्टोरिया ने अपनी आत्मकथा में कहा है “एक दोपहर, जब मैं उसके कमरे में गयी थी,वे कुछ लिख रहे थे, मैं उस पृष्ठ की ओर झुक गयी जो मेज पर था। अपना सिर मेरी ओर उठाए बिना,उन्होंने अपनी बाँह बढ़ा दी और उसी तरह जैसे कोई एक शाखा पर फल पकड़ता है, उन्होंने अपना हाथ मेरे एक वक्ष पर रख दिया। 
मैंने उस घोड़े की तरह अपने अंदर कंपकपी अनुभव की जिसे उसका मालिक तब थपथपाता है जब वो आशा भी न कर रहा हो। मेरे अंदर का प्राणी एकाएक रोने लगा। तब मेरे अंदर के दूसरे व्यक्ति ने उस प्राणी को चेतावनी दी, 'शांत रहो ... मूर्ख' यह केवल एक बुतपरस्ती सरीखा लाड़प्यार है। हाथ ने शाखा छोड़ दी, उसके बाद लगभग अभौतिक दुलार किया। लेकिन उन्होंने फिर दोबारा कभी ऐसा नहीं किया। हर दिन वह मुझे मस्तक पर या गाल पर चूमते थे और मेरी एक बाँह को थामकर कहते थे, "कितनी सर्द बाहें।" 

इनके संबंध में बहुत सी बातें बहुत विस्तार से नेट पर पढ़ने को मिल जाएंगी। रबींद्रनाथ टैगोर ने विक्टोरिया ओकाम्पो के साथ अपने संबंधों को कुछ यूँ परिभाषित किया, "कुछ अनुभव उस खज़ाने की तरह होते हैं जिसका असल जीवन से कोई लेना-देना नहीं होता. मेरा अर्जेंटीना वाला एपिसोड कुछ ऐसा ही था।" 

चलते चलते ये भी बता दूँ इस प्लेटोनिक प्रेम के समय विक्टोरिया ओकाम्पो की आयु थी 34 वर्ष और रबीन्द्र नाथ टैगोर जी की वय थी 63। 

~टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ। 

द्वार

1. नौ द्वारों के मध्य  प्रतीक्षारत एक पंछी किस द्वार से आगमन किस द्वार से निर्गमन नहीं पता 2. कहते हैं संयोग एक बार ठक-ठक करता है फिर मुड़ कर...