Monday 29 June 2020

मैं छिपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता

एक बेहद भले मानुष थे। ज्ञान- विज्ञान, अध्यात्म, वेदांत, इहलोक-परलोक, सूक्ष्म- स्थूल, द्वैतवाद-अद्वैतवाद के सम्बंध में न केवल अध्ययन करते रहते थे, वरन उसे जीवन में अक्षरशः उतारने का प्रयत्न भी करते रहते थे। 

जैसा कि वेदांत में कहा गया है- तत्वमसि। तुम्ही वह हो।
तुम्ही हज़ार आंखों से देख रहे हो। तुम्हीं हज़ार मुख से खा रहे हो। तुम ही हज़ार पैरों से चल रहे हो। तुममें और उसमें कोई भेद नहीं हैं। तुम ही ईश्वर हो। वह भी ईश्वर है। हम सब, सारी सृष्टि मानो एक ही वृक्ष के मात्र विभिन्न हिस्से हैं। इस दर्शन को उन्होंने श्रद्धा के साथ अपने हृदय पटल पर अंकित कर लिया। फलस्वरूप अपने पराये में कोई भेद नहीं रखा। 

एक दिन उन्होंने अपने एक मित्र को उनके किसी निजी मामले में अपना समझ कर सलाह दे डाली। उन्हें वास्तव में उसकी चिंता हुई थी। बिना कोई कपट, छल रखे, बिना किसी लाभ- हानि का विचार किये उन्होंने उसका भला ही चाहा था पर अगले का मुँह बन गया। उसने उनसे कहा- "देखो, मेरा जीवन, मेरे नियम। अपने जीवन का विश्लेषण करने का अधिकार मैंने किसी को नहीं दिया है। क्या करना है, क्या नहीं करना है,मैं भली भांति समझता हूँ।"

दूसरी घटना इसके एकदम उलट घटी। किसी दिन उनके एक मित्र का फ़ोन आया। इधर उधर की बातें होने के बाद व्यक्तिगत बातें भी साझा की जाने लगीं। ये भले मानुष मुँह पर कुण्डी लगा कर बैठे रहे। अबकी बार उन्होंने सलाह देने की भूल नहीं की। बस चुपचाप उसकी विपदा-कथा सुनते रहे। कुछ दिनों बाद जब उसी मित्र से दोबारा बात हुई तो उसने ताना दे दिया- "जब मुझे सही मार्गदर्शन की आवश्यकता थी, तब तो तुम सलाह दे नहीं सके। मैंने कहा तो नहीं पर मौन पढ़ लिया था तुम्हारा। तो तुम किस बात के मित्र?"

भले मानुष बुरी तरह भ्रमित हो गए। क्या करें और क्या न करें। उन्होंने अपनी तरफ से अच्छा ही सोचा दोनों बार। मगर दोनों ही जगह न केवल उन्हें ग़लत समझा गया, वरन उन्होंने बुराई भी मोल ले ली। अब देखिये संसार किस प्रकार आपके प्रति अपना अभिमत तैयार कर लेता है। उनके बारे में उन दोनों से पूछा जायेगा तो एक कहेगा- उन्हें दूसरों के फटे में टाँग अड़ाने की आदत है। दूसरा कहेगा- वो मित्रता का बस दम्भ भरते हैं, जब असली मौका आता है मित्रता निभाने का तो तटस्थ खड़े रहते हैं। 

जबकि असल में आप जानते ही हैं कि हमारी इस कथा के मुख्य चरित्र ये 'भले मानुष' वास्तव में भले हैं। निष्पाप हृदय लेकर भी ये 'खल मानुष' की उपाधि से सम्मानित किये गए। 

तो अंत में इससे निष्कर्ष क्या निकलता है? यही कि भले ही उन्होंने कितनी ही ज्ञान की पोथियाँ पढ़ लीं हों, पर जिस विधा में वो अनपढ़ रह गए, वो है- "मनुष्य की पहचान"।

विराम लेने से पहले हरिवंश राय बच्चन की कुछ पंक्तियाँ जोड़ना चाहती हूँ- 

मैं छिपाना जानता तो,जग मुझे साधू समझता,
शत्रु मेरा बन गया है,छल-रहित व्यवहार मेरा!

~ टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ। 

Thursday 25 June 2020

विरासत

"अरे तेरे बाल कितने रूखे हों रहे हैं। ला मैं तेल लगा कर चम्पी कर देती हूँ।" मौसी ने नैना को पास बुलाते हुये कहा। उस वक़्त नैना की उम्र यही कोई उन्नीस- बीस वर्ष रही होगी। उस समय किसको बालों में तेल लगाना अच्छा लगता है। रूखे रूखे, शैम्पू किये हुये बाल ही फ़ैशनेबल लगते हैं। मौसी हर वक़्त अपने बालों में तेल लगाये रहती थीं। उनके हिसाब से बालों में तेल डालना रोजमर्रा के सौंदर्य प्रसाधन का एक हिस्सा होता था। 

मौसी कौन सा रोज़ रोज़ आती थीं। उनकी बात का मान रखते हुए नैना तेल की शीशी ले आयी और चम्पी करवाने लगी। 

" अच्छा मौसी, जब आप लोगों के समय में शैम्पू नहीं आता था, तब आप लोग बाल कैसे धोते थे।" नैना ने पूछा। 

मौसी के बाल बहुत सुंदर थे। आज भी ज़्यादातर काले ही थे और ख़ूब घने और लम्बे। नैना के अंदर कहीं न कहीं बालों को सुंदर रखने की चिंता आन बसी थी। 

" अरे हम लोग तो क्या नहीं लगाते थे, कभी बेसन, कभी मुल्तानी मिट्टी, कभी ये तो कभी वो। और रीठा , शिकाकाई से बाल धोते थे।" मौसी ने कहा। 

"अच्छा....माँ ने तो कभी बताया ही नहीं। " 

"तेरी माँ स्कूल में कबड्डी चैम्पियन थी । खेलने कूदने में ही लगी रहती थी। उसके पास कहाँ वक़्त था बनाव सिंगार का। और ये नुस्ख़े आजमाने का। मैंने अपनी माँ से सारे नुस्ख़े लिए और आजीवन उन्हें अपने जीवन में उतारा। सौंदर्य के, स्वास्थ्य के, स्वाद के अनगिनत नुस्ख़े थे उनके पास। " 

" मौसी मुझे बताओ, कैसे धोते थे रीठा और शिकाकाई से? मैं भी किया करूँगी। फिर मेरे बाल भी आपकी तरह सुंदर हो जायेंगे। है न। " 

"बिल्कुल हो जायेंगे, मेरी रानी बिटिया।" मौसी ने तेल डाल कर नैना की सुंदर सी चोटी गूंथ दी थी। 

"और भी जितने ब्यूटी बढ़ाने वाले नुस्ख़े हैं, सब मुझे बताना। प्लीज़।" नैना ने कहा। 

"अरे बिल्कुल। कौन सा मुझे अपनी छाती में बंद करके ले जाना है। " 

तब से काफी लंबे समय तक नैना ने मौसी के रीठा- शिकाकाई वाले नुस्ख़े को आजमाया। जितनी केअर हो सकती थी करती थी। तेल नियम से डालती थी। काफ़ी सुधार भी आया था उसके बालों की क्वालिटी में। उसके बाल ख़ूब घने लम्बे हो गए थे।

धीरे धीरे काफी समय बीत चला। नैना स्वयँ मौसी बन गयी थी। उसके सामने आज उसकी बहन की बेटी खड़ी थी ,वही उन्नीस- बीस बरस की उम्र लिये। उसके रूखे सूखे बालों को देखकर नैना को अपना समय याद आ गया। कैसे मौसी ने उसे प्यार से अपना आजमाया हुआ एक अचूक नुस्ख़ा दिया था। 

आज उसकी बारी थी, ये विरासत उसे अगली पीढ़ी को सौंपनी थीं। वो तुरन्त जाकर तेल की शीशी ले आयी। और अपनी बहन की बेटी को आवाज़ दी। " तेरे बाल कितने रूखे हो रहे हैं। ला तेल लगा दूँ इनमें।" 


"नो, मौसी, डोंट एवर थिंक ऑफ दैट। मुझे नहीं लगवाना ये चिपचिपा तेल अपने बालों में। " बेटी मुँह बनाते हुये बोली। 

" अरे आ तो ,देख कितनी अच्छी चम्पी करती हूँ मैं। और तुझे एक जादुई घरेलू नुस्ख़ा भी बताती हूँ। देखना तेरे बाल कितने सुंदर हों जाएंगे।" नैना ने अपनी वाणी में मिठास भरते हुये कहा। 

" नहीं मौसी मुझे नही करवाना। मैंने आज ही शैम्पू करके कंडीशनर लगाया है। मेरे हेयर ऐसे ही स्मूथ एंड सिल्की हैं। फिर मैं पंद्रह दिन में एक बार पार्लर जाकर हेयर मसाज, हेयर पैक भी लेती हूँ। हेयर स्पा भी लेती हूँ महीने में एक बार।  ऑय डोंट नीड दीज़ ओल्ड थिंग्स। स्पेयर मी, फ़ॉर गॉड्स शेक।" 

"अरे बेटी, सुन तो। सच में बड़े कारगर होते है ये पुराने नुस्ख़े।" 

"रहने दो मौसी। अभी हाल ही में मेरी दोस्त की बहन की शादी थी। उनकी बुआ ने जबर्दस्ती उसके फेशियल कराए हुये चेहरे पर हल्दी लगवा दी। सारा चेहरा ख़राब करवा दिया था। आप अपने पास ही रखो ये सो कॉल्ड अनोखे पुराने नुस्ख़े।" बेटी ने अपना मोबाइल उठाया, कान में हेडफोन लगाया और दूसरे कमरे में चली गयी। 


नैना अपना सा मुँह लेकर रह गयी। दो पीढ़ी में ही कितना अंतर आ गया था। उसने मौसी की बात टाली नहीं थीं। इसने अपनी मौसी की बात रखी ही नहीं। नैना उदास होकर सारे पुराने नुस्ख़े याद कर कर के अपनी एक डायरी में लिखने लगी। कहीं तो ये विरासत छोड़कर जानी ही है। भूले भटके ही सही,क्या पता,आगे आने वाली पीढ़ी कभी तो इन्हें आजमा ही लेगी। 

उधर से पुल न बने तो भी क्या इधर से पुल बनाने का प्रयास तो करते ही रहना चाहिए। 

टि्वंकल तोमर सिंह,
लखनऊ। 

Monday 22 June 2020

जीवनसाथी हम..दिया और बाती हम

उनकी जोड़ी मिसाल थी। वो पति पत्नी नहीं साक्षात शिव पार्वती थे। एक दूसरे के लिये समर्पित। हर कोई जब भी उन्हें देखता जी भर कर आशीर्वाद देता था। 

पत्नी पति की इच्छाओं को पूरा करने के उसके पीछे पीछे लगी रहती थी। पति अपनी पत्नी को ख़ुश रखने के लिये नयी नयी तरकीबें आज़माता रहता था। 

रोज शाम होते ही पत्नी अपने पति के पसंद का खाना बनाने में जुट जाती थी। पति लौट कर आता तो आते ही सबसे पहले अपनी पत्नी के माथे को चूमता, उसके बाद ही चाय की प्याली अपने होंठों से लगाता था। 

और तो और वो अधिकतर कपड़े भी मैचिंग के पहनते थे। मतलब अगर पति ने सफेद शर्ट पहनी है, तो पत्नी की कोशिश होती थी कि सफेद रंग पर लाल छींट वाली साड़ी पहनी जाये। पति देखता था कि पत्नी ने आसमानी रंग का कुर्ता पहना है तो फौरन जाकर अपनी वार्डरोब से एक गहरे नीले रंग की शर्ट या टी शर्ट निकाल कर पहन लेता था। 


कुल मिलाकर एक आदर्श जोड़ी थी वो। 

एक बार हमारे मोहल्ले में आयोजित एक कार्यक्रम में उन दोनों ने एक डुएट गाया था। "जीवनसाथी हम...दिया और बाती हम।" दोनों ने एक जैसे हल्के नीले रंग के कपड़े पहने थे। 

और मैं उन्हें हर्षित नज़रों से देखती रह गयी। देखा और यही तमन्ना की कि मेरा जोड़ीदार जब भी मिले, हमारी जोड़ी भी ऐसी ही लगे। 

उसके बाद हमारा ट्रांसफर हो गया। और हम लोग वहाँ से दूसरे शहर शिफ़्ट हो गए। 

इस बीच मेरी शादी हो गयी। मेरे पति कुछ सीरियस स्वभाव के, दार्शनिक, अपनी धुन में रमने वाले व्यक्ति थे। कलाकार हृदय, प्रकृति प्रेमी थे। कम बोलते थे, पर जब बोलते थे तो गंभीर बात ही बोलते थे। पहनने के लिये उन्हें बस सफेद कुर्ता चाहिये होता था। मेरा ख़्याल तो बहुत ही ज़्यादा रखते थे। पर मुझे वो क्लिक नहीं मिलता था, जो मैंने अपने ख्यालों में बसा रखा था। मेरे मन के पर्दे पर तो आदर्श जोड़ी वो थी, जो कपड़े भी एक रंग के पहने।

मतलब आप अपने मन में आदर्श का जो मुकाम सेट कर लेते हैं, फिर अगर उस तक नहीं पहुँच पाते तो कहीं न कहीं दुःख को पनाह देते रहते हैं। मुझे जीवन में पति से सब कुछ मिला, पर जैसे बोगनवेलिया फूलों से भरी रहती है, पर ख़ुशबू नहीं देती। बस वैसे ही मेरे भी मन में एक कसक सी रह गयी। सब कुछ है पर हम आदर्श दम्पति नहीं हैं.....! 

कई सालों बाद मेरा वापस अपने पुराने शहर , अपने पुराने मुहल्ले जाना हुआ, करीब दस साल बाद। 

सबसे मुलाकात करके मैं फौरन अपने उन्हीं आदर्श जोड़ी वाले भैया भाभी के घर की ओर दौड़ गयी। दरवाजे की घंटी बजाई। 

एक आठ दस साल की लड़की ने दरवाजा खोला। मैंने अंदाज़ा लगाया, शायद उनकी बेटी होगी। अंदर से ज़ोर ज़ोर से लड़ने की आवाज़ें आ रहीं थीं। बर्तन फेंकने की, चीखने चिल्लाने की आवाज़ें आ रहीं थीं। बिटिया ने पूछा मैं कौन हूँ, कहाँ से आयीं हूँ। फिर अंदर चली गयी। 

थोड़ी देर बाद भाभी जी ड्रॉइंग रूम में आयीं। समय की लकीरें उनके चेहरे पर दिखने लगीं थीं। पर उससे भी ज़्यादा उनके चेहरे से ये स्पष्ट था कि वो दस साल पहले वाली खिली खिली रहने वाली भाभी नहीं हैं। 

मुझे देखते ही पहले तो सकुचा गयीं फिर इतने दिनों बाद मुझे देखने की खुशी उनके चेहरे पर खिल गयी। उन्होंने मुझे गले से लगाया , हाल चाल पूछने लगीं। इतनी देर में भैया भी आ गए। मैं उनको देखकर भौंचक रह गयी। बाल अधिकतर गिर चुके थे। पेट निकल आया था। कपड़े अस्त व्यस्त, ढीले ढाले। और हमेशा मैचिंग के कपड़े पहनने वाले जोड़े में पत्नी ने लाल रंग पहना था तो पति ने हरा। 

दोनों पास पास बैठे थे, हँस रहे थे, मुस्कुरा रहे थे, मुझसे उत्साह से बात भी कर रहे थे। पर बीच बीच में किसी भी बात पर एक दूसरे को ताना देना, छेड़ना, तर्क-कुतर्क करना जारी था। शायद अगर मैं वहाँ नहीं बैठी होती तो उनके बीच जो युद्ध विराम लग गया था, वो हट जाता और फिर से महाभारत शुरू हो जाती। 

न जाने क्यों मेरे मन में आदर्श जोड़ी की छवि में दरारें उभर रहीं थीं। 

थोड़ी देर इधर उधर की बातें होने के बाद मैंने कहा," भैया भाभी आप लोग तो बिल्कुल बदल गए। कहाँ जीवनसाथी हम दिया और बाती हम और अब कहाँ ये हाल। " मेरा गला रुँध आया था। 

भैया ने कहा," अरे टिया, तेल ख़त्म हो गया बस। अब कहाँ का दिया और कहाँ की बाती।" 

अंत में मैं अपना सा मुँह लेकर चली आयी। मुझे अपने पति की बेतहाशा याद आने लगी। टेढ़े हैं, मेढ़े हैं, रूखे हैं, सूखे हैं जैसे भी हैं मेरे हैं। बोगनवेलिया जैसे ही हैं , घर को हरा भरा रखेंगे, ख़ूब फूल देंगे, पर ख़ुशबू मत माँगना उनसे। वो गुलाब नहीं हैं कि एक दिन में ही मुरझा जाएं। मेरी आँखें खुल चुकीं थीं। जिस रिश्ते में संतुष्टि के लिये मैं भटक रही थी, वो तो शायद कस्तूरी की तरह मेरे ही अंदर थी। 


कहानी ख़त्म हुई। पर ठहरिए...एक बात तो बताना ही भूल गयी....जब उस आदर्श जोड़ी की छवि मैंने मन में बसायी थी, तब उनके विवाह को मात्र दो वर्ष हुये थे, और मेरी उम्र थी मात्र पन्द्रह वर्ष। 

टि्वंकल तोमर सिंह,
लखनऊ। 





Sunday 21 June 2020

महायोग


श्वास प्रश्वास की राह से होकर
एक अदृश्य,अदृष्ट संसार पा लेना
सांसों के एकतारे को साध कर
ईश्वर को अपनी लय पर थाम लेना

आत्मा का महात्मा से योग
मन का महामन से मेल, बस
यही कुल सकल आय जीवन की
महायोग अन्ततः हर जन्म का !!

टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ। 




                                        

द्वार

1. नौ द्वारों के मध्य  प्रतीक्षारत एक पंछी किस द्वार से आगमन किस द्वार से निर्गमन नहीं पता 2. कहते हैं संयोग एक बार ठक-ठक करता है फिर मुड़ कर...