Wednesday 5 October 2022

द्वार

1.
नौ द्वारों के मध्य 
प्रतीक्षारत एक पंछी
किस द्वार से आगमन
किस द्वार से निर्गमन
नहीं पता

2.
कहते हैं संयोग
एक बार ठक-ठक करता है
फिर मुड़ कर नहीं देखता
द्वार खुला कि नहीं
दैवयोग आया 
कुन्ती को मिले वरदान की तरह
जीवन कर्ण का भाग्यरेख बन गया
प्रयोग का उपयोग 
क्या होगा
नहीं पता

3.
ये तो तय है
द्वार खटखटाहट के लिये बने हैं
खुले रखने के लिये नहीं
यदि किसी द्वार के पल्ले खुले रहें
तो समझो
जिस ठक-ठक की प्रतीक्षा थी
वह आयी ही नहीं
हृदय पर कितनी
धक-धक हुई
नहीं पता

~टि्वंकल तोमर सिंह


Wednesday 20 July 2022

किंचित योगभ्रष्ट

अमिताभ बच्चन ने एक इंटरव्यू में कहा था - " मेरी डाइटीशियन मेरी डाइट पर स्ट्रिक्ट कंट्रोल रखती है।" यदि उनके इस कथन की गहराई में जायें, तो कुछ यूँ भाव मन में आयेंगे, इतने बड़े स्टार, इतने पैसे वाले और भोजन जैसी बुनियादी आवश्यकता के लिये किसी के आदेश का पालन करते हैं। स्वेच्छा से निर्णय ले सकने वाले इस क्षेत्र में वे स्वतंत्र नहीं। उनकी आहार-विशेषज्ञ उन्हें चावल के जितने दाने गिन कर देती है, वे बस उसी का उपभोग कर सकते हैं। सभी जानते हैं अमिताभ जी स्वास्थ्य की समस्या से जूझते रहे हैं। स्वस्थ भी रहना है और बेशुमार कार्य भी करना है तो इसके लिये एक बहुत ही छोटा सा उपाय है- अपने भोजन को नियंत्रण में रखो। कैलोरी, कॉर्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा सब संतुलन में हो और उतना ही लो जितना आवश्यक है। कम लेने से कमजोरी आती है, अधिक लेने से स्थूलता। 

शिल्पा शेट्टी का एक वीडियो देखा था, जिसमें वह कह रही थी कि मैं सब कुछ खाती हूँ। कार्बोहाइड्रेट भी लेती हूँ क्योंकि मुझे लगता है कार्ब्स के बिना शरीर में ताकत नहीं आती। शिल्पा योग की शरण में हैं। उनका अपने शरीर पर पूरा अधिकार है। शरीर पर अधिकार होने के कारण उनका अपने मन पर, चित्त पर भी पूरा अधिकार है। इस दृष्टि से वह किसी योगी से कम नहीं। इसीलिए वे संतुलन बनाना बख़ूबी जानती हैं।

सेलेब्स को इतना मेहनत करते देखते हैं। वे जिम में पसीना बहाते हैं,भोजन तरस तरस कर खाते हैं...और कहने को वे करोड़पति हैं। हम उनकी चमकती सूरत, सुघड़ शरीर में उलझे रह जाते हैं, इसके पीछे उनकी तपस्या देख नहीं पाते। आसान नहीं होता दिन-रात में बिना भेद किये कार्य करना, बेहिसाब मानसिक दबाव सहना, फिर भी शरीर को स्वस्थ रखना। ज़ाहिर है जो इस निरोध में, नियंत्रण में पारंगत नहीं हो पाते, वे दौड़ से बाहर हो जाते हैं। 

योगी और किसे कहते है? वही जो मन को काबू में करे। पर ध्यान देने योग्य बात ये है कि ये मन पर नियंत्रण कर लेते हैं, पर चित्त की वृत्तियों का (काम, क्रोध, वासना, लोभ) निरोध नहीं कर पाते। 

जब भी किसी सफल सितारे को देखती हूँ तो अनुभव होता है एक व्यक्ति जो करोड़ों लोगों को सुख दे, प्रेरित करे वह साधारण मनुष्य नहीं हो सकता। ये सब चार्ज्ड आत्माएं होती हैं। पूर्वजन्म के सुख भोगने आती हैं। जैसे कि लता जी अवश्य ही पूर्व जन्म में सुर-साधिका रही होंगी। एक व्यक्ति करोड़ों लोगों में ऊर्जा का संचार कैसे कर सकता है भला? आप अपने परिवार या व्यवसाय स्थल पर ही इतना परेशान इतने कुंठित हो जाते हैं कि अपने लिये या अपने बच्चों के लिये ऊर्जा नहीं बचा पाते। 

निश्चित ही ये सेलेब्स योगी होते हैं....पर किंचित योगभ्रष्ट! 

~ टि्वंकल तोमर सिंह

Thursday 14 July 2022

अख़बार गाथा



अख़बार पढ़ने का शौक अधिकतर लोगों को होता है, पर खरीदने का नहीं। उनकी इस प्रवृत्ति से वो लोग मारे जाते हैं जिन्हें अख़बार खरीद कर पढ़ना पसंद होता है। जिन्हें अख़बार खरीदने का मन नहीं होता, पर पढ़ने का बहुत होता है, तो वे पड़ोसी के पेपर पर सूक्ष्म दृष्टि रखते हैं। ये स्थिति या तो उन घरों में होती है जहाँ एक से अधिक परिवार रहते हों या अक्सर यात्रा के दौरान ऐसा देखा जाता है।

 यात्रा के दौरान पड़ोसी के हाथ में पेपर ऐसा दिखता है जैसे कि दूसरे की थाली में घी। जितनी भी खबरों की हेडलाइन्स दिखाई देती रहती हैं, लगता है कि उनमें एकता कपूर के सीरियल जितना सारा मसाला भरा है। पर खेद की बात यह है कि पड़ोसी जब तक पूरा पेपर पढ़ कर डकार न ले ले, तब तक हिम्मत नहीं होती कि कह सकें कि भाईसाहब ,ज़रा पेपर दे दीजिएगा। सब्र करते हुये भी एक दो पन्ने पर प्रतीक्षारत व्यक्ति यूँ लटक जाता है जैसे कि छोटे बच्चे दूसरे के फलों के बाग में वृक्ष पर चोरी से लटक जाते हैं। 

जहाँ एक से अधिक परिवार साथ रहते हों और उनमें से कोई एक परिवार अखबार मंगवाता हो समझ लेना चाहिए कि उस समाचारपत्र की हालत यूँ रहती है जैसे कि एक सुंदर कन्या के चारों तरफ घूमता एक आवारा या कई आवारा। या चलिये कुछ अच्छा सा उदाहरण दे देते हैं। जैसे कि एक कुंजी के पीछे घूमता पढ़ने लिखने वाला लड़का या लड़के जो कुंजी खरीदना नहीं चाहते। ऐसे में ज्ञान की पिपासा को शांत करने के लिये पेपर के गिरने की पट से आवाज़ आयी नहीं कि वह मेधावी रोमियो बनकर पेपर-सुंदरी की ओर दौड़ गया।


कुछ लोग तो अख़बार पढ़ने-खरीदने के इतने बड़े रसिया होते हैं कि उनके घर चार-पाँच न्यूज़पेपर आते हैं। अब जिनके घर चार पाँच न्यूज़पेपर आते हैं उनके पड़ोसियों को तो लगता है इनमें से एक-आध पेपर पर तो हमारा कानूनन हक़ है। देखा जाए तो एक ही खबर को चार अखबारों में चार अलग अलग लेखकों/पत्रकारों की भाषा में पढ़ना एक प्रकार की मानसिक विकृति नहीं है तो और क्या है? या मान लो कि उनके घर चार पेपर इसलिए आते है कि उन्हें अलग अलग संपादकीय पढ़ना, कहानी पढ़ना, लेख पढ़ना पसंद हों। तो भी यह एक विकार से बढ़कर कुछ नहीं। आखिर चार अखबारों में संपादकीय पृष्ठ पढ़कर, किस्सा,कहानी,लेख आदि पढ़कर स्वयँ जो बुद्धिजीवी समझना विकार नहीं है तो और क्या है? 

इनके किसी एक पेपर को इनसे पहले हथिया कर पेपर का सारा सत्व सोख कर उसे तुड़ी-मुड़ी अवस्था में पहुँचा देने के पीछे एक सद्भावना ही होती है। उस तुड़ी-मुड़ी-भोगी हुई अवस्था वाले न्यूज़पेपर के प्रति उसके मालिक के मन में विरक्ति का भाव जागेगा। शायद उसे वो सबसे अंत में पढ़े या समय कम होने पर न भी पढ़े। आखिर एक कोरे अखबार की तहें खोलने में जो सुख है वह क्रीज़ खुल चुके अखबार में कहाँ? तो ऐसे में बुद्धिजीवी विकार के फलने-फूलने की संभावना एक अखबार की मात्रा बराबर कम हो जाएगी। 

कुछ लोग इतने बड़े परोपकारी होते हैं कि वे इस विकार के इस थोड़े से अंश को पनपने का कोई भी मार्ग अवशेष नहीं रखते। वो पेपर अपने साथ अपने घर ले जाते हैं। फिर पेपर का मालिक कहेगा- फलाना पेपर आया था? तो वे तत्काल खबरों भरी डकार लेते हुये कहेंगे - न जी न, हमने तो देखा भी नहीं। 

मालिक कहेगा - देख लीजिए , शायद बच्चे उठा ले गए होंगे। तब वे बड़ी मुश्किल से एक बलत्कृत अवस्था वाला अखबार फेंक देंगे। अगर उसमें कोई सन्डे मैगज़ीन आती होगी तो वो रोक लेंगे, आखिर परोपकार की भावना इतनी आसानी से मन से नहीं निकलेगी न!

तो मित्रों, आज भी मुझे मेरा समाचारपत्र प्राप्त नहीं हुआ। बस उसी के वियोग में ये उदगार निकले हैं। 

~ टि्वंकल तोमर सिंह

(यह लेख पूर्णतया लेखिका के अपने व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित है। इसका उद्देश्य किसी की भावना को ठेस पहुँचाना कदापि नहीं है। चित्र प्रतीकात्मक है।) 

Wednesday 13 July 2022

गुरु पूर्णिमा

"तू आ गया,नरेंद्र ! " इन चार साधारण से दिखने वाले शब्दों में कितनी पीड़ा, कितनी प्रतीक्षा, कितनी तड़प छुपी है, ये एक गुरु बनने पर ही अनुभव की जा सकती है अन्यथा नहीं! 

नरेंद्र ने गुरु को देखा। "ये...ये व्यक्ति...इसकी सब इतनी बड़ाई करते हैं..ये साधारण सी धोती पहने बैठा व्यक्ति, अर्धनग्न शरीर से पसीने की बूंद टपकाता हुआ, ओष्ठों के कोनों से शिशु की तरह तरल बहाता हुआ...ये व्यक्ति?...इसकी इतनी प्रशंसा? आख़िर क्या देखा सबने इसमें ? क्यों सब इसके चरणों में शीश नवाते हैं? अरे ...कहीं से कोई चमत्कार सीख लिया होगा बस..लोगों का क्या है आस्था के नाम पर मूर्ख बनने में उन्हें बेहद आनंद आता है...."

सुशिक्षित, सुसंस्कृत, अंग्रेजी पढ़े हुये नरेंद्र के मन में इस गँवार से दिखने वाले व्यक्ति के प्रति विरक्ति के भाव जग रहे थे। कितनी दूर से आया था वह। न जाने कितने गुरुओं के पास गया। सबसे उसने एक ही प्रश्न किया- " क्या आपने ईश्वर को देखा है?" सबने बड़ी बड़ी बातें तो कीं पर इस प्रश्न का सटीक उत्तर किसी के पास न था। फिर किसी ने बताया दक्षिणेश्वर में एक सिद्ध पुरुष हैं, चाहो तो उनसे मिल लो। पर ये क्या...इनसे तो मिलते ही नरेंद्र का मन हुआ वहाँ से भाग जाए। जिसे अपने शरीर तक का बोध नहीं, उसके पास जगत की चेतना का ज्ञान क्या प्राप्त होगा भला ? 

उधर रामकृष्ण जी 'तू आ गया नरेंद्र' कहते कहते भाव विह्वल हुये जा रहे थे। हृदय से भावों का एक ऐसा ज्वार उमड़ा कि थमने का नाम ही न ले रहा था। चक्षुओं में अपने परम प्रिय को देखकर अश्रुओं का धारासार प्रवाह थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। गुरु ने शिष्य को पहचान लिया था। शिष्य गुरु को पहचान नहीं सका था। 

माता-पिता, अच्छे संगी-साथी सब पुण्यों से प्राप्त होते हैं। परम पुण्य जब फलित होता होता है तब 'परमहंस' जैसे गुरु प्राप्त होते हैं। ज्योतिष में आस्था रखने वाले अच्छे से जानते होंगे कि कुंडली में 'बृहस्पति ग्रह' की मजबूती बताती है कि जातक को अच्छा गुरु कब और कैसे प्राप्त होगा। 

हमारी समस्या ये है कि कई बार किसी गुरु का प्रेम और स्नेह हमारे ऊपर अप्रत्यक्ष रूप से आस-पास होता है , पर हम उन्हें पहचानने में बहुत देर कर देते हैं। गुरु 'इनसिस्ट' (ज़ोर देना, आग्रह करना) नहीं करते। उन्हें पता होता है, उनके पास तुम्हारा लाभ करने वाला ज्ञान है, पर जब तक हृदय में अहंकार होगा, तुम उसे प्राप्त करने के अधिकारी नहीं रहोगे। 

गुरु के प्रति समर्पण हमें ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग की ओर ले जाता है। अब कुछ तर्कवादी कहेंगे किसने कहा हमें मोक्ष चाहिए? जब संसार ही ईश्वर का रूप है तो इसी में रमे रहो, यही ईश्वर है! 

एक अवस्था होती है अंधकार की। दूसरी अवस्था आती है जब प्रकाश आँखों को चुँधिया देता है। तीसरी अवस्था होती है जब प्रकाश देख लेने के बाद आँखों के चुँधिया जाने से अंधकार आ जाता है। पहली और तीसरी अवस्था के अंधकार में बहुत अंतर है। मूढ़ के अंदर की शांति और विवेकवान के अंदर की शान्ति समान नहीं होती!

जिनके जीवन में गुरु का आगमन हो गया, वे सौभाग्यशाली हैं। जिन्होंने उन्हें पहचान लिया, वे धन्य हैं, वे मुक्त होंगे ! आख़िर तो नरेंद्र को लौट कर आना ही पड़ा था। 

सबको गुरु की प्राप्ति हो! सबका मंगल हो! 


~ टि्वंकल तोमर सिंह

Monday 4 July 2022

रैंप पर योगिनी


रैंप पर योगिनी
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वो ऊपर की सीढ़ियों से धड़-धड़ करते हुए उतरी। एक खाली तसले के साथ जिसमें नीचे से उसे बालू या मसाला या गिट्टी जैसा कुछ भरकर ऊपर ले जाना होगा। हम होटल की तीसरी मंजिल पर थे। होटल के दूसरी तरफ निर्माण कार्य चल रहा था। मैंने एक मित्रवत मोहित मुस्कान से उसे वहीं रोक लिया था। 

मुझे नहीं पता उसे यह परिधान कहाँ से मिला। किसी ने उसे दया दिखाते हुये दान में दे दिया या उसकी तरफ ऐसे ही परिधान पहनने की परंपरा है। पर उसका परिधान, उसका इसे पहनने का सलीका मुझे इतना अच्छा लगा कि उसके आगे मुझे अपने महँगे कपड़े भी तुच्छ लगने लगे। मजदूरी करते हुये भी कोई इतना फैशनेबल लग सकता है? मैंने जैसे संकोच से अपना पैर ही नहीं सम्पूर्ण देह संकुचित कर ली। वो आत्मविश्वास के पूरे शृंगार के साथ वहाँ दृढ़ता से खड़ी थी। 

मैंने जब उससे पूछा- क्या मैं तुम्हारी फ़ोटो खींच सकती हूँ? वह पहले तो समझ ही नहीं पायी, फिर थोड़ा झिझकी। एक अपरिचित के प्रति इतना संकोच तो रहना ही था। फिर बोली -  "ठीक है।" आत्मविश्वास की संपदा जैसे वाष्पित होने लगी थी। वह एकदम सावधान की मुद्रा में हाथ सीधे करके खड़ी हो गयी। चेहरा एकदम गंभीर, मुस्कान की एक भी तिर्यक रेखा नहीं।  मैंने कहा- "अरे आराम से खड़ी हो..जनगण मनगण नहीं गाना है। चलो, कुछ अच्छा सा पोज़ बनाओ।" 

उसे अपरिचित में मित्र दिखा। उसने अपने शरीर को ढीला छोड़ा और कृष्ण भगवान की तरह त्रिभंगी मुद्रा बना कर खड़ी हो गयी। उसने कहाँ से ये मुद्रा बनाना सीखा , मैंने नहीं पूछा। बस मन ही मन उसका रसास्वादन कर लिया। उस समय, उस क्षण वो मेरे लिये संसार की सबसे सुंदर नारी थी। या यूँ कहूँ... सबसे सुघड़ मॉडल ! 

मैंने एक चित्र क्लिक किया। उसका चेहरा एकदम गंभीर था। मैंने हँसी के कीटाणु बिखेरे - "थोड़ा मुस्कुरा भी दो।"

अबकी बार इस चित्र में उसकी हल्की सी मुस्कान पकड़ में आ गयी। 

लड़की से उम्र नहीं पूछते। मैंने भी नहीं पूछी। उम्र शायद 16-17 के आसपास होगी। इस वय में क्या उसने तसले की जगह बस्ते की कामना नहीं की होगी? 

क्या भारी रहा होगा? किताबें उसके मस्तिष्क पर या निर्धनता उसके परिवार पर ? मन प्रश्नों में उलझ गया। इच्छा जागी इसके लिये कुछ कर दूँ। 

वो तो एक तरंग की तरह मेरे जीवन में आयी थी। मुझे इस तस्वीर का उपहार देने। साथ ही एक भार देकर वह निर्मोही योगिनी पुनः धड़ धड़ करते हुये अपने रैंप पर वॉक करते हुये चली गयी। 

टि्वंकल तोमर सिंह
लखनऊ। 

Sunday 15 May 2022

पूंजी निवेश



कठिन दिन है।

कठिन इसलिए कि एक शिक्षक का दिन श्याम-पटल, चॉक, डस्टर, पुस्तक में कट जाए तो वो सरल है। 

निर्धन क्षेत्र से अभाव का भाव लिये छात्राओं के हाथ से 'नोट' लेना , गिनना, कम होने पर ये सोचना क्या इसकी पूर्ति करने लायक धन है मेरे थैले में, कटे-फटे 'नोट' होने पर शिक्षिका होने के नाते एक हल्की सी झिड़की देना, कुछ 'नोट' एकदम न चल पाने की स्थिति में वापिस कर देना, वापिस पाने वाले के चेहरे पर नया नोट न ला पाने की विवशता को पढ़ना, फिर डायरी में कम-अधिक-सही राशि दर्ज़ कर लेना। 

गुरु का ये कार्य तो नहीं !

उसने सारी राशि मेरी मेज़ पर बिखेर दी। मैं समय-सीमा बीत जाने के बोध से पहले से झुंझला रही हूँ। 

"ये क्या है? इतने फुटकर पैसे? अब इनको गिनने में न मालूम कितना वक्त लगेगा।"

एक रुपये के सिक्के, दो रुपये के सिक्के, दस का नोट , बीस का नोट... सबसे बड़ा एक ही नोट है...सौ का..वो भी तुड़ा मुड़ा सीला अपने अस्तित्व पर शर्माता हुआ। 

सौ बच्चों की कक्षा में अक्सर फ़ीस में कोई न कोई 'नोट' नकली, कटा-फटा, बिल्कुल न चल पाने वाला आ ही जाता है। क्लर्क हमारी त्रुटि बता कर लेने से इनकार कर देता है। भरपाई हमें ही करनी पड़ती है। 

गर्मी, उमस पहले से ही मन को चुभ रही है। और चुभ रहा है ये फुटकर पैसे गिनना। गिनते गिनते अचानक से याद आयी एक मिट्टी की गुल्लक। अपने घर के बच्चों को देखा है उसमें पैसे डालते हुये.... दो सौ का नोट....पाँच सौ का नोट...!! 

हाथ पसीज जाते हैं....थम जाते हैं...मैं उसकी आँखों में देखकर पूछती हूँ...

"ये पैसे क्या गुल्लक फोड़कर लायी हो?" 

"जी,मैम...पापा ने कहा है दो महीने बाद फीस के पैसे दे पाएंगे।" लड़की धीरे से बोलती है। 

मैं उसकी आँखों से अपनी आँखें हटा लेती हूँ। मैं नहीं चाहती वो अपनी शिक्षिका को द्रवित देखे। द्रवित होना कोमल भाव है। मुझे सशक्त छवि ही रखनी है! 

मैं पैसे गिनने लगती हूँ , मन में कहती हूँ....पढ़ती रहना लड़की....ईश्वर करे तुम्हारी गुल्लक कभी ख़ाली न हो..और प्रत्यक्ष में उससे कहती हूँ...

"ठीक है...जाओ...रसीद कल मिलेगी।" 

दृढ़ता के साथ कह सकती हूँ ये दुनिया का सबसे सुंदर 'पूंजी निवेश' है ! 

(My Experience With Students)

 ~टि्वंकल तोमर सिंह



Saturday 7 May 2022

धूप छाहीं ज़िन्दगी में रंग






हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का.....श्वेत- श्याम फ़िल्म में लाल दुप्पटा! क्या विरोधाभास है ! ज़रा सोचिए उस दौर में कैसे यक़ीन दिलाया गया होगा कि नायिका जिस दुपट्टे को लहरा रही है वो लाल ही है। दर्शकों की कल्पना से रंग लिये होंगे। दर्शकों के साथ एक छल किया गया। गीत के बोलों से उन्हें यकीन दिलाया गया, दुपट्टा लाल है, दर्शक मान बैठे दुप्पटा लाल है। क्या पता वास्तव में वो किस रंग का था...काला था या नीला था। 

काले और सफेद रंगों में सीमित पर्दे पर नायिका जब राजकपूर से कहती है, " राज...तुम्हारी नीली आँखें..." 
नीली? श्वेत और श्याम पर्दे पर नीला रंग कैसे दिखता भला? ये तो दर्शकों ने तब जाना जब फ़िल्मी कैनवास पर रंग बिखरने शुरू हुए। तो फिर श्वेत और श्याम पर्दे पर कैसे उस समय उन पर मरने वाली लड़कियाँ अपनी कल्पना में राजकपूर की नीली आँखों से आँखें चार करती होंगी? 

श्वेत-श्याम टीवी के पर्दे पर हमारी पीढ़ी के बच्चों ने बहुत बार रंग ढूंढने कोशिश की। और मजे की बात ये है कि हमें दिख भी जाते थे। कहीं किसी कोने में मटमैला लाल या भूरा, कभी चमकदार नीला, कभी सतरंगा। हम उतने से ही ख़ुश हो जाते थे। वास्तव में टेक्नोलॉजी के आदिम युग में सस्ते टीवी के सस्ते काँच पर प्रकाश जब अपवर्तन-परावर्तन का खेल खेलता था तो यूँ ही भ्रम पैदा कर देता था। कुछ दिनों बाद ब्लैक एंड व्हाइट टीवी को रंगीन बनाने की कोशिश यूँ की गई कि रंगीन काँच पर्दे के आगे लगा दिए गए...कभी लाल..कभी पीले..कभी हरे... कभी नीले...या कभी कभी एक ही साथ चारों रंग के। अब जो भी बोलता-चित्र चलता थोड़ा तो रंगबिरंगा लगता। इतने से ही रंगों से हम ख़ुश थे, तृप्त थे। हमें अधिक की तो चाह ही नहीं थी। 

देखा जाए तो इन बातों में गहरा दर्शन छुपा है। हर किसी को आसानी से जीवन में रंगीनी प्राप्त नहीं होती। विरले होंगे जिन्हें जीवन में विधाता ने सारे सुख दिए हैं या सारे रंग दिए हैं। अधिकतर लोगों को असुविधा में, अतृप्ति में, अभाव में ही जीवन काटना पड़ता है। यह स्वीकार कर लेना होता है अपनी तो ज़िन्दगी यूँ ही है श्वेत और श्याम। तो क्या जीवन का आनंद मनाना छोड़ देंगे? जीवनोत्सव को अगले जन्म तक स्थगित कर देंगे? क्यों नहीं अपनी कल्पना से रंग ले लेते हैं कुछ इस तरह जैसे पुराने समय में काली-सफेद फोटोग्राफ को ऊपर से रंगकर थोड़ा सा रंग-बिरंगा कर लिया जाता था ? 

अरुणिमा सिन्हा एक आम यात्री की तरह ट्रेन के डिब्बे में बैठी थीं। तभी कुछ बदमाश लोग आए और उनसे उनका कीमती सामान छीनने की कोशिश करने लगे। विरोध करने पर उन लोगों ने उन्हें डिब्बे से बाहर पटरी पर फेंक दिया। दूसरी ओर से आती तेज गति की गाड़ी उनके पैरों के ऊपर से गुज़र गयी। कुछ ही पलों में उनकी ज़िंदगी से दुर्भाग्य ने सारे रंग छीन लिये। पर ये उनकी ही ज़िद थी। उन्होंने जीवन को श्वेत-श्याम नहीं रहने दिया। आर्टिफिशियल पैरों के सहारे उन्होंने हिमालय की चढ़ाई की और एवरेस्ट पर चढ़कर सूर्योदय देखा। उस सूर्योदय से उन्होंने सारे रंग अपने जीवन में वापस ले लिये। 

कुछ लोगों को उदास रहने की बीमारी होती है। वो जीवन में सुख नहीं दुःख गिन-गिन कर बताते रहते हैं। सुख उनके लिये बस यूँ ही है जैसे रोज़ सूरज का निकलना। यह सारी रंगबिरंगी दुनिया उनके लिये काली-सफेद है। उन्होंने आसानी से मिलने वाली हर चीज़ को सस्ती व महत्वहीन मान लिया है। उन्हें वो सब कुछ मिला है जिसके लिये दूसरे लोग संघर्ष कर रहे हैं, फिर भी वो दुखी हैं। उन्हें आभारी होना नहीं आता। हमें प्रतिदिन आसानी से प्राप्त हो जाने वाली चीजों के लिये ईश्वर का कृतज्ञ होना चाहिए। जैसे पीने का स्वच्छ पानी घर बैठे मिल रहा है, नेमत नहीं है तो क्या है? ज़रा उनसे पूछिये जो दस मील दूर से पीने का पानी सिर पर ढो कर लाते हैं। 

खलील जिब्रान कहते हैं," मुझे अपने प्राणों को रंगने दे; मुझे सूर्यास्त निगलने दो और इंद्रधनुष पीने दो।" कितना सुंदर दर्शन है। प्रकृति की हर चीज़ में रंग है, सुंदरता है, जीवन रस है। दुनिया को रंगों से भर देने वाला सूर्यास्त सामने हो और हम अपनी उदास आत्मा लिये बैठे रहें, तो हमसे बड़ा मूर्ख कौन है? सात चमकदार रंग लिए मन पर उमंगों का तीर छोड़ने को तैयार 'इंद्रधनुष' आकाश पर सजा हो और हमारे मन में एक भी रंग न जगे, तो हमारे भीतर ही कोई कमी है। 

उदासी बड़ी ख़तरनाक बीमारी होती है। यह पूरा ब्रह्माण्ड खा जाती है फिर भी आत्मा को बोझिलता के दलदल में डुबोये रखती है। इससे बचने का मात्र एक ही उपाय है, अपने रंग स्वयँ तलाशिये। यह जीवन एक कोरे कैनवास की तरह हैं। इसमें रंग-बिरंगे चित्र हमें ही भरने हैं। बच्चों सा सरल हृदय रखना होगा, जो अतीत में रहकर दुखी नहीं होते, भविष्य का सोच कर चिंतित नहीं होते। बस वर्तमान से अपने दिन को उज्ज्वल बनाते रहते हैं। मन में उमंग हो तो लुप्तलोचन सूरदास जी को भी नटखट कान्हा की 'ईस्टमैन कलर छवि' के दर्शन हो जाते हैं। 

(जनसत्ता के सभी संस्करणों में संपादकीय पेज़ पर आज दिनाँक 07/05/22 को प्रकाशित लेख।) 


~टि्वंकल तोमर सिंह

द्वार

1. नौ द्वारों के मध्य  प्रतीक्षारत एक पंछी किस द्वार से आगमन किस द्वार से निर्गमन नहीं पता 2. कहते हैं संयोग एक बार ठक-ठक करता है फिर मुड़ कर...