वो सिगरेट का कश खींचता और धुएं का गुबार छोड़ता। वो दोनों हाथों से इस धुएं को बेकार ही दूर हटाने की कोशिश करती।
ये सिलसिला जारी रहा बल्कि बढ़ता चला गया। हारकर एक दिन उसने इस धुएं को अपनी सांसों में भरना शुरू कर दिया।
उसने हाथ पकड़ के उसे खींचा और कहा , " पागल हो गयी हो क्या ?"
आधी मुंदी हुई नशीली सी आंखे बनाकर उसने कहा , "तुम्हारी तरह सिगरेट होंठो से लगा कर इस धुएं का स्वाद नही ले सकती न ! इसलिये सांसों से फेफड़ों में भर रही हूँ इसका जायका।"
"ड्रामा बंद करो। छोड़ो ये सब ।"
"कैसे छोड़ दूं ? साथ साथ जीने मरने की क़सम खायी है न ! अब आपको अकेले कैसे मरने दूं ?"
उन्हीं नशीली ड्रामेबाज़ आंखों में दो सच्चे अश्रु मोती झिलमिला उठे।
उंगलियों में फंसी मंहगी सिगरेट उसे आख़िरी कश के मोह में भी बांध न सकी। कब सिगरेट बुझायी, कब दूर फेंकी और कब उसने उसे कभी दूर न जाने देने के लिये करीब खींच लिया , उसे कुछ याद नही।
Twinkle Tomar
No comments:
Post a Comment