Friday, 20 December 2019

नदी के अश्रु




                              नदी के अश्रु

एक सुबह मैंने देखा था उसे, मुझमें अपनी छाया ढूँढते हुये। वो आँखों पर काला चश्मा लगाये, सफेद शर्ट, काली पैंट पहने हुये झुककर मुझमें अपनी झलक देखने का पूरा प्रयास कर रहा था। शायद मैंने उसे निराश कर दिया। उसकी ये छोटी सी इच्छा पूरी नहीं हुई थी तभी तो झुँझलाहट भरे स्वर में उसने कहा था, "होली शिट, हाऊ डार्क द वाटर इज़!"  फिर तुरन्त वह अपने साथ आये कुछ लोगों की ओर मुड़ा और उनसे बड़े आदेशात्मक लहज़े में कहा था," इसकी सफाई का प्रोजेक्ट जल्दी ही शुरू करना होगा। पानी बिल्कुल सड़ रहा है। ये नदी नही है ये तो नाला है नाला।"

सच कहूँ तो मुझे उससे पहली ही झलक में प्रेम हो गया था। कितने दिनों से मैं प्रतीक्षारत थी। कितने ही मानवों को आते जाते देखती थी। पर किसी ने मेरी सुध न ली थी। आज किसी ने तो मेरे बारे में सोचा। मैं सिकुड़ रही थी, मैं मर रही थी। वो आया था मुझे जीवनदान देने के लिये। मेरे तट पर जब वो खड़ा था तो उसकी आँखों में मैंने एक अजीब सी चमक देखी थी। किसी से प्रेम होने के लिये इससे अच्छी वज़ह और क्या होती?

धीरे धीरे उसके प्रयासों से मैं सँवरने लगी थी। उसे भी तो मुझसे प्रेम हो गया था। वो घंटों मुझे निहारता रहता था। वो आता था, अपने साथ मजदूरों की एक बड़ी फौज लेकर। कोई मेरे अंदर फैली बेकार सी लताओं के जाल को हटाता, कोई मेरे ऊपर लदी जलकुंभी की बेड़ियों को काट डालता, तो कोई मेरे जल के ऊपर तैर रही प्लास्टिक की थैलियों को हटाता। मैं अपने निखरते सौंदर्य पर स्वयँ ही मोहित होती जा रही थी।

एक दिन उसने कहा कि ऐसे काम नहीं चलेगा। इस सीवर के जल को यहाँ गिराना बन्द करना होगा। मैं मन ही मन प्रफुल्लित हो उठी थी। उस बदबूदार,बजबजाते, मुझे पल पल मलिन और बदसूरत बनाते नरक से बदतर नाले से मुक्ति मिल जाएगी। काश उसने उस पल मुझे ध्यान से देखा होता....मैं नदी थी ही नहीं...मैं तो प्यार का सागर बनती जा रही थी उसके लिये।

मैंने सोच लिया था एक दिन अपने प्रेम को उस पर अवश्य उजागर कर दूँगी। प्रेम प्रदर्शन से पहले उसका पसीना पोंछने को हवाओं से थोड़ी शीतलता माँग लाऊंगी। उसे जलती धूप से बचाने के लिये बादलों से गिड़गिड़ाकर छाया माँग लाऊँगी। फिर जब कार्य समाप्त होने के बाद वो मेरे जल में पैर डालकर बैठ होगा, उसकी काया की सारी थकन अपने शीतल जल से खींच लूँगी। मेरा थिरकता जल किसी नर्तकी की भाँति उसे मोहित कर लेगा। मुझमें नाव डालकर जब वो सैर करेगा तो मेरी हौले हौले छिटकती बूँदे उसका आलिंगन कर लेंगीं।

फिर एक दिन वो आया। सिगरेट सुलगाते हुये उसने मेरी ओर ध्यान से देखा। मेरा स्वच्छ जल उसे एक तृप्ति दे रहा था। पर उसके चेहरे पर बड़ी अजीब सी मुस्कान थी, उसकी आँखों में फिर से एक अलग सी चमक थी। ये मुस्कान ये चमक मृदुल तो बिल्कुल नहीं थी। उसे देखकर पहली बार मुझे कुछ भय सा लगा। सिगरेट का आख़िरी कश लेकर उसने बड़ी लापरवाही से सिगरेट का बचा हिस्सा मेरे जल में उछाल कर फेंक दिया। पता नहीं क्यों ऐसा लगा एक अंगारा सा चुभा हो। कोई अपनी प्रेयसी के साथ ऐसा करता है भला?

"तुमने मुझे बहुत कुछ दिया, डार्लिंग। नदी बचाओ योजना  के लिये मेरे एन जी ओ का प्रोजेक्ट एप्रूव्ड हो गया है। करोड़ों रुपये मिले हैं करोड़ों। तुम तो मेरे लिये स्वर्ण सरिता हो। आई लव यू।" दोनों हथेलियों से उसने मेरी ओर एक हवाई चुम्बन उछाल दिया, फिर मुड़ कर चल दिया। मैं उसे जाते हुये देखती रही। फिर वो लौटकर कभी वापस नहीं आया।

मैं फिर से दम घोंटने वाली लताओं से घिरी हुई हूँ, जलकुंभी नित्य मेरा उपहास करती है, सीवर दैत्य की तरह मुझ पर अत्याचार करता है, प्लास्टिक की थैलियां मेरी सिसिकियों को घोंट देती हैं।  कैसे बताऊँ मेरे हृदय में कितनी पीड़ा है....नदी के अश्रु दिखते नहीं न !

©® टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ।


No comments:

Post a Comment

रेत के घर

दीवाली पर कुछ घरों में दिखते हैं छोटे छोटे प्यारे प्यारे मिट्टी के घर  माँ से पूछते हम क्यों नहीं बनाते ऐसे घर? माँ कहतीं हमें विरासत में नह...