Tuesday 9 April 2019

स्त्री को अपना रंग चुनने की आज़ादी नही

"मॉम, क्या पुराने जमाने में कलर्स नही होते थे ?" मेरी सात वर्षीय बेटी मेरी सास का पुराना एल्बम देख रही थी जिसमें सिर्फ ब्लैक एंड व्हाइट फ़ोटोज़ थीं।

"नही बेटा। कलर्स होते थे। पर उस समय कैमरा आजकल की तरह उतने अच्छे नही होते थे कि कलर्स की भी फ़ोटो ले सकें।" मैंने उसे समझाने की कोशिश की। हालांकि मैं जानती थी कि वो अभी बहुत छोटी है शायद ही ये बात उसे समझ में आये।

"उम्म... मॉम पर देखो न पता ही नही चल रहा कि दादी माँ ने अपनी शादी में किस कलर का लहंगा पहन रखा था।" दादी की दुल्हन वाली फ़ोटो उसे विशेष प्रिय थी। बेचारी बहुत कम समय ही अपनी दादी के साथ रह पायी थी। पिछले साल ही उसकी दादी की मृत्यु हो गयी थी। अपनी दादी से वो बहुत लगाव रखती थी। इसलिये अक्सर उनका एल्बम लेकर देखती रहती थी।


"बेबो...उस समय भी सब बहुत रंग बिरंगे कपड़े पहनते थे। पर कैमरा उन रंगों को कैद ही नही कर पाता था।" मैंने फिर उसके छोटे से दिमाग में ये घुसाना चाहा कि दुनिया बेरंगी नही थी। बस रंग फ़ोटो में नही उतर पाते थे।

"मॉम..आप तो रोज हर रंग की ड्रेस के साथ मैचिंग की बिंदी लगाते हो पर लगता है दादी सिर्फ़ एक ही रंग की बिंदी लगाती थीं...काली।" दादी की बिंदी पर उंगली रखते हुये वो बोली। दादी को बिंदी में देखना भी उसके लिये नई बात थी। क्योंकि जब वो दो साल की थी तभी उसके दादा जी मृत्यु हो चुकी थी। जब से वो बड़ी हुई उसने अपनी दादी को कभी बिंदी लगाते हुये नही देखा था। ये भी उसकी उत्सुकता का विषय था कि दादी ने आखिर किस रंग की बिंदी लगाई होगी।

"नही स्वीटहार्ट.......दादी काली रंग की बिंदी नही लगाती थीं। लाल रंग की बिंदी लगाती थीं। पर फ़ोटो में तुम्हें काली लग रही है।"

"मतलब दादी के पास अलग अलग रंग की बिंदियां नही थी क्या ? " उसने फिर एक मासूम सा सवाल किया। थोड़ी देर मैं भी सोच में पड़ गयी।

अचानक मुझे लगने लगा कुछ हद तक बेबो सही ही तो कह रही है। उन दिनों जीवन के सारे रंग पुरुषों के लिये ही तो थे। स्त्रियों के जीवन में रंग कितने कम थे या थे ही नही। सधवा है तो लाल....विधवा है तो सफ़ेद! छोटी सी बच्ची बात बात में कितनी बड़ी बात की ओर ध्यान दिला गयी।

हमेशा देखा माँजी ससुर जी के सामने कभी ऊंची आवाज़ में बोल तक नही पाती थीं। माँजी कभी कभी भावुक होकर एक किस्सा सुनाती थी कि एक बार उन्होंने ख़ूब  चटक रंग की साड़ी पहन ली थी। ससुर जी ने ख़ूब डांटा। क्या देहातियों की तरह रंग बिरंगी बनी हुई हो , ढंग से सोबर रंग के कपड़े नही पहन सकतीं? दूर से आ रही हो तो सब तुम्हें ही देखने लगें यही चाहती हो न। अतीत से वापस आते हुई भर आयी आंखों में आंसूओं को रोकते हुये वो बताती थीं वो दिन और आज का दिन अपनी पसंद के रंग का कपड़ा तक कभी नही पहना उन्होंने।

अनजाने ही मैं उनकी और अपनी स्थिति की तुलना करने लगी। आज जब शीशे के सामने खड़े होकर लाल, नीली, पीली, हरी कौन सी बिंदी लगाऊँ ये चुनती हूँ...तो ये अहसास भी नही होता मुझे तो अपना रंग चुनने की आज़ादी मिली हुई है, अपने जीवन को दिशा देने की आज़ादी मिली हुई है। ख़ुद कमाती हूँ, सारे निर्णय ख़ुद लेतीं हूँ, घर के काम के लिये नौकर रख सकती हूँ। ये कितनी अमूल्य चीजें है।

मॉम.. पर हम तो मोबाइल से जो भी फ़ोटो खींचते है उसमें कलर होते है न!" बेबो अभी भी वहीं अटकी हुई थी। उसकी आवाज़ सुनकर मैं चौंककर अपनी तंद्रा से बाहर आई। बाल सुलभ उत्सुकता अपने प्रश्न का संतोषजनक उत्तर चाहती थी। उसे अब भी यही लग रहा था पहले की दुनिया में रंग नही होते थे। और आज की दुनिया में रंग होते हैं।

मैंने मोबाइल निकाला कैमरे की सेटिंग ब्लैक एंड व्हाइट पर की फिर एक फ़ोटो उसे खींचकर दिखाई। तब जाकर उसकी उत्सुकता कुछ शांत हुई। एल्बम के पन्ने पलटने लगी सारी फ़ोटो एक बार फिर से देखने के बाद टीवी देखने में बिजी हो गयी।

मगर मैं सोच में पड़ गयी कि आज भी कुछ ही भाग्यशाली औरतें है जिन्हें अपना रंग चुनने की आज़ादी है। न मालूम कितनी औरतें बेरंग या सीमित रंगों से सजा जीवन जीने के लिये मजबूर हैं। कोई मेरी माँ है तो कोई मेरी भाभी, कोई मेरी कलीग है तो कोई मेरी पड़ोसन। उनके लिये जीवन का कैमरा वहीं पुरानी तकनीक पर ठहरा हुआ है.....ब्लैक एंड व्हाइट।

Twinkle Tomar Singh

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