Monday 22 June 2020

जीवनसाथी हम..दिया और बाती हम

उनकी जोड़ी मिसाल थी। वो पति पत्नी नहीं साक्षात शिव पार्वती थे। एक दूसरे के लिये समर्पित। हर कोई जब भी उन्हें देखता जी भर कर आशीर्वाद देता था। 

पत्नी पति की इच्छाओं को पूरा करने के उसके पीछे पीछे लगी रहती थी। पति अपनी पत्नी को ख़ुश रखने के लिये नयी नयी तरकीबें आज़माता रहता था। 

रोज शाम होते ही पत्नी अपने पति के पसंद का खाना बनाने में जुट जाती थी। पति लौट कर आता तो आते ही सबसे पहले अपनी पत्नी के माथे को चूमता, उसके बाद ही चाय की प्याली अपने होंठों से लगाता था। 

और तो और वो अधिकतर कपड़े भी मैचिंग के पहनते थे। मतलब अगर पति ने सफेद शर्ट पहनी है, तो पत्नी की कोशिश होती थी कि सफेद रंग पर लाल छींट वाली साड़ी पहनी जाये। पति देखता था कि पत्नी ने आसमानी रंग का कुर्ता पहना है तो फौरन जाकर अपनी वार्डरोब से एक गहरे नीले रंग की शर्ट या टी शर्ट निकाल कर पहन लेता था। 


कुल मिलाकर एक आदर्श जोड़ी थी वो। 

एक बार हमारे मोहल्ले में आयोजित एक कार्यक्रम में उन दोनों ने एक डुएट गाया था। "जीवनसाथी हम...दिया और बाती हम।" दोनों ने एक जैसे हल्के नीले रंग के कपड़े पहने थे। 

और मैं उन्हें हर्षित नज़रों से देखती रह गयी। देखा और यही तमन्ना की कि मेरा जोड़ीदार जब भी मिले, हमारी जोड़ी भी ऐसी ही लगे। 

उसके बाद हमारा ट्रांसफर हो गया। और हम लोग वहाँ से दूसरे शहर शिफ़्ट हो गए। 

इस बीच मेरी शादी हो गयी। मेरे पति कुछ सीरियस स्वभाव के, दार्शनिक, अपनी धुन में रमने वाले व्यक्ति थे। कलाकार हृदय, प्रकृति प्रेमी थे। कम बोलते थे, पर जब बोलते थे तो गंभीर बात ही बोलते थे। पहनने के लिये उन्हें बस सफेद कुर्ता चाहिये होता था। मेरा ख़्याल तो बहुत ही ज़्यादा रखते थे। पर मुझे वो क्लिक नहीं मिलता था, जो मैंने अपने ख्यालों में बसा रखा था। मेरे मन के पर्दे पर तो आदर्श जोड़ी वो थी, जो कपड़े भी एक रंग के पहने।

मतलब आप अपने मन में आदर्श का जो मुकाम सेट कर लेते हैं, फिर अगर उस तक नहीं पहुँच पाते तो कहीं न कहीं दुःख को पनाह देते रहते हैं। मुझे जीवन में पति से सब कुछ मिला, पर जैसे बोगनवेलिया फूलों से भरी रहती है, पर ख़ुशबू नहीं देती। बस वैसे ही मेरे भी मन में एक कसक सी रह गयी। सब कुछ है पर हम आदर्श दम्पति नहीं हैं.....! 

कई सालों बाद मेरा वापस अपने पुराने शहर , अपने पुराने मुहल्ले जाना हुआ, करीब दस साल बाद। 

सबसे मुलाकात करके मैं फौरन अपने उन्हीं आदर्श जोड़ी वाले भैया भाभी के घर की ओर दौड़ गयी। दरवाजे की घंटी बजाई। 

एक आठ दस साल की लड़की ने दरवाजा खोला। मैंने अंदाज़ा लगाया, शायद उनकी बेटी होगी। अंदर से ज़ोर ज़ोर से लड़ने की आवाज़ें आ रहीं थीं। बर्तन फेंकने की, चीखने चिल्लाने की आवाज़ें आ रहीं थीं। बिटिया ने पूछा मैं कौन हूँ, कहाँ से आयीं हूँ। फिर अंदर चली गयी। 

थोड़ी देर बाद भाभी जी ड्रॉइंग रूम में आयीं। समय की लकीरें उनके चेहरे पर दिखने लगीं थीं। पर उससे भी ज़्यादा उनके चेहरे से ये स्पष्ट था कि वो दस साल पहले वाली खिली खिली रहने वाली भाभी नहीं हैं। 

मुझे देखते ही पहले तो सकुचा गयीं फिर इतने दिनों बाद मुझे देखने की खुशी उनके चेहरे पर खिल गयी। उन्होंने मुझे गले से लगाया , हाल चाल पूछने लगीं। इतनी देर में भैया भी आ गए। मैं उनको देखकर भौंचक रह गयी। बाल अधिकतर गिर चुके थे। पेट निकल आया था। कपड़े अस्त व्यस्त, ढीले ढाले। और हमेशा मैचिंग के कपड़े पहनने वाले जोड़े में पत्नी ने लाल रंग पहना था तो पति ने हरा। 

दोनों पास पास बैठे थे, हँस रहे थे, मुस्कुरा रहे थे, मुझसे उत्साह से बात भी कर रहे थे। पर बीच बीच में किसी भी बात पर एक दूसरे को ताना देना, छेड़ना, तर्क-कुतर्क करना जारी था। शायद अगर मैं वहाँ नहीं बैठी होती तो उनके बीच जो युद्ध विराम लग गया था, वो हट जाता और फिर से महाभारत शुरू हो जाती। 

न जाने क्यों मेरे मन में आदर्श जोड़ी की छवि में दरारें उभर रहीं थीं। 

थोड़ी देर इधर उधर की बातें होने के बाद मैंने कहा," भैया भाभी आप लोग तो बिल्कुल बदल गए। कहाँ जीवनसाथी हम दिया और बाती हम और अब कहाँ ये हाल। " मेरा गला रुँध आया था। 

भैया ने कहा," अरे टिया, तेल ख़त्म हो गया बस। अब कहाँ का दिया और कहाँ की बाती।" 

अंत में मैं अपना सा मुँह लेकर चली आयी। मुझे अपने पति की बेतहाशा याद आने लगी। टेढ़े हैं, मेढ़े हैं, रूखे हैं, सूखे हैं जैसे भी हैं मेरे हैं। बोगनवेलिया जैसे ही हैं , घर को हरा भरा रखेंगे, ख़ूब फूल देंगे, पर ख़ुशबू मत माँगना उनसे। वो गुलाब नहीं हैं कि एक दिन में ही मुरझा जाएं। मेरी आँखें खुल चुकीं थीं। जिस रिश्ते में संतुष्टि के लिये मैं भटक रही थी, वो तो शायद कस्तूरी की तरह मेरे ही अंदर थी। 


कहानी ख़त्म हुई। पर ठहरिए...एक बात तो बताना ही भूल गयी....जब उस आदर्श जोड़ी की छवि मैंने मन में बसायी थी, तब उनके विवाह को मात्र दो वर्ष हुये थे, और मेरी उम्र थी मात्र पन्द्रह वर्ष। 

टि्वंकल तोमर सिंह,
लखनऊ। 





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