Sunday 12 May 2019

माँ और महँगी साड़ी

"अरे ये क्या ? इतनी मँहगी साड़ी मेरे लिये ? अरे कितनी साड़ियां तो है मेरे पास क्या करूँगी इसका?? " माँ ने आश्चर्य से कहा। मैंने साड़ी खोल कर उनके ऊपर फैला कर डाल दी। उनके सूखे शरीर और झूलती त्वचा पर महँगी साड़ी सज कर जैसे ख़ुद ही शरमा रही थी। जिन्दगी पर तप से तपे शरीर पर विलास फबता नही जैसे। कभी माँ को नही देखा अपने लिये कुछ भी अच्छा खरीदते हुये। पिता जी की सीमित आय में चार भाई बहनों की परवरिश करना आसान काम तो नही था न। हमारी पढ़ाई शादी के लिये ही सारी जिन्दगी पैसे जोड़तीं रह गईं बस।

"माँ...तुम भी न... बेटी की गिफ़्ट की हुई साड़ी तो नही है न तुम्हारे पास। मुझे पढ़ाया लिखाया, एम बी ए कराया अब आज अच्छी नौकरी में हूँ तो अपनी माँ को क्या एक साड़ी भी गिफ़्ट नही कर सकती?" थोड़ा रूठने का नाटक करना पड़ा मुझे। वरना माँ कहाँ मानने वाली थीं। साड़ी उठा कर वापस पैकेट में ऐसे संभाल कर पैक करने लगीं जैसे कि दुकान से गलती से मँहगी साड़ी खरीद ली हो और अब उसे वापस लौटाने जाना है।

"अच्छा ठीक है। चल अपना मन न छोटा कर। ये बता चाय के साथ क्या खायेगी पकौड़े या नमक अजवाइन का पराठा ?" माँ ने प्यार से चपत गाल पर लगाते हुये कहा। और बिना जवाब सुने ही रसोई की ओर बढ़ गयीं। उन्हें पता है शाम को चाय के साथ अगर मुझे पकौड़े मिल जाये तो इससे बढ़िया मेरे लिये कुछ नही।

चार दिन की छुट्टी में घर आई थी मैं। छुट्टी ख़त्म होते ही वापस माँ को छोड़ कर नौकरी देने वाले शहर में जाना था। फिर वही भागदौड़ वही नाइन टू फाइव घड़ी के काटों में फंसी हुई जिन्दगी।

दो महीने बाद चाचा की बेटी की दिल्ली में शादी थी। मैं तो लोकल थी पहुंच गई फट से। दीदी भी आयीं थीं अपने पति और बच्ची के साथ। शादी में माँ पिता जी भी आ रहे थे। मैं खुश थी माँ जब वो कीमती साड़ी पहन कर आयेंगी और जब चाची जलकर रह जाएंगी तो कितना मजा आयेगा। कसम से सारे पैसे वसूल हो जायेंगे। अगर चाची ने मारे जलन के ये भी कह दिया कि हाँ भई अब तुम्हारी सुमेधा कमाने वाली हो गयी है तब तो कसम से और मजा आ जायेगा। चाचा जी की हैसियत हमसे थोड़ा अच्छी थी तो चाची को इस बात का थोड़ा घमंड था।

शाम को सब तैयार हो रहे थे। मैंने भी बढ़िया शरारा सूट निकाल कर पहना था। तैयार होकर मैं दीदी को देखने गयीं कि वो तैयार हुई कि नहीं। तभी देखा सामने से दीदी आ रहीं थीं वही साड़ी पहने जो मैंने माँ को गिफ़्ट की थी।....." दीदी.... ये साड़ी.... म म म....बहुत अच्छी लग रही है..." मैंने अवाक होते हुये, फिर सयंत होते हुये, फिर कुछ अपने को रोकते हुये कहा।

" अच्छी है न सुमि?" दीदी इतरा रहीं थीं। सुंदर तो वैसे ही थीं वो और महँगी साड़ी में सच में परी लग रहीं थीं। " हां दीदी बहुत सुंदर है।" मैंने पूरी एक्टिंग करने की कोशिश की कि मुझे जरा भी बुरा नही लगा उनको इस साड़ी में देखकर।

" देख न सुमि। माँ ने जबरदस्ती ये साड़ी मुझे पकड़ा दी। मेरे पास कोई नई साड़ी नही थी। माँ को लगा मेरे ससुराल वालों की नाक नीची न रह जाये। जानती हो न तेरे जीजा जी का बिज़नेस थोड़ा डावाँडोल...." दीदी थोड़ी सी सकुचाते हुये बोली। " माँ कह रहीं थीं कि ये साड़ी बहुत भारी है उनसे पहनी ही नही जाती है। पिता जी ने लाकर दी थी। कह रहीं थी उनको कुछ पसंद करना ही नही आता।"

माँ को पता था अगर दीदी को ये पता चला कि सुमि ने अपनी पहली कमाई से माँ के लिये साड़ी खरीद कर गिफ़्ट की है तो दीदी कभी न लेतीं। इसीलिये माँ ने झूठ बोला। तभी गलियारे से माँ और चाची की हँसी ठहाके बातचीत की आवाज आती सुनाई दी। दोनों इधर ही आ रहीं थीं। माँ, मैं और दीदी आमने सामने थे। माँ एकदम से चुप हो गईं। मैंने अपनी आंखों से माँ की आँखों को टटोला, आंखों ने आँखों से मूक प्रश्न किया-"क्यों?... दीदी के पास नई साड़ी नही थीं। पर पुरानी कई मँहगी साड़ी तो थी न ? ये रिश्तेदारी वाली शादियाँ भी तो रोज रोज नही पड़ती न?"

माँ ने मुझसे नज़र फेर कर दीदी की ओर मुंह कर लिया, उनकी बलैयां ली और चाची से बोलीं "देख न छोटी कितनी सुन्दर लग रही है न मेरी लाडो।" यही उनका जवाब था मेरे प्रश्न का। न मालूम क्यों मुझे लग रहा था कि साधारण सी गुलाबी रंग की साड़ी में मेरी माँ आज दुनिया की सबसे अमीर औरत हैं।

Twinkle Tomar Singh

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