Thursday 22 August 2019

नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है

उनकी पोस्टिंग एक इंटर कॉलेज में सरकारी अध्यापिका के तौर पर सीतापुर के सुदूर इलाके में हुई थी। ग्रामीण क्षेत्र था सुख सुविधाओं से दूर। आस पास सब जगह गरीबी का साम्राज्य फैला हुआ था। जो बच्चे पढ़ने आते थे वो भी बहुत गरीब थे। न उनके पास यूनिफार्म थी न पैरों में जूते। सर्दियों में भी वो बिना स्वेटर और बिना जूते के चले आते थे।

अपने देश की ऐसी हालत देखकर उसे बहुत तरस आता था। सरकारी अध्यापक की भी एक सीमा होती है। वो मैडम जितना कर सकती थी करती थी पर कितना? सर्वोपरि तो उसने ठान रखा था वो जितना जी जान से पढ़ा सकती है उतना इन्हें पढ़ाएगी। उसका विषय अंग्रेजी था जिसमें बच्चों को रंचमात्र भी दिलचस्पी नही थी। आठवें तक लगता था कुछ अंग्रेजी पढ़ी ही नही फिर अचानक इतनी कठिन अंग्रेजी कैसे पल्ले पड़ती?

फ़िलहाल अध्यापिका महोदया अपने कर्तव्यों की पूर्ति करती रहतीं थीं और उन्होंने सोच रखा था भले ही ऐसा लगे मैं दीवार को पढ़ा रही हूँ, मैं इन्हें पढाऊँगी जरूर। कहीं से तो परिवर्तन शुरू होगा।

कभी कभी कुछ विशेष महीनों में आधे से ज्यादा विद्यार्थी अनुपस्थित रहते थे। उपस्थित बच्चों से पूछो तो मालूम पड़ता था," जी वो खेत गये है।"
" खेत में क्या करने गये है।" अध्यापिका पूछती।
" जी वो गेहूँ कट रहा है। वहीं लगे हैं।" जो आठ दस बच्चे आते वो जवाब देते।
"फिर तुम लोग क्यों नही गये? तुम भी चले जाते यहाँ क्या करने आये हो? " अध्यापिका गुस्से से पूछती क्योंकि बच्चों की अनुपस्थिति उसके साक्षरता मिशन में बाधा थी।
"हमारे पास खेत नही हैं।" बच्चे सिर झुकाकर शर्मिंदा होकर बोलते।
पर उनसे ज़्यादा शर्मिंदा अध्यापिका हो जाती थी ये प्रश्न पूछकर। उसे समझ नही आता वो सहानुभुति दिखाये या तरस।

मेहनत से पढ़ाने के बावजूद जब बच्चों के कान पर जूँ नही रेंगती तो वो खीज जाती थी। कभी किताब नही कॉपी नही। " कॉपी कहाँ गयी?" वो पूछती। " जी वो बह गयी।" विद्यार्थी अपनी भाषा में बोलता। " बह गई ? क्या गोमती में बह गई? लखनऊ से आई अध्यापिका को नही पता था 'बह गयी' से उनका तात्पर्य है खो गयी। पूरी कक्षा खीं खीं करती रहती मैडम की अज्ञानता पर। और मैडम उनकी लापरवाही पर अपना सिर पीट लेतीं। एक कॉपी खो गयी मतलब दूसरी अब साल भर नही आएगी।

मैडम के प्रयास बढ़ते जा रहे थे और उनकी निराशा भी। उनको लगता," कैसे समझाऊँ, नन्हे मुन्नों बच्चों तुम्हारी मुठ्ठी में क्या है। तुम अपनी तकदीर ख़ुद बदल सकते हो अगर चाह लो तो।"

एक दिन मैडम ने लंबा चौड़ा भाषण दिया इसी विषयवस्तु पर। "पढ़ लिख लोगे तो क्या नही कर सकते। देश के कितने बड़े नेता गाँव के स्कूलों से ही पढ़कर निकले। कोशिश तो करो। अंग्रेजी पढ़े बिना मगर आज गुज़ारा नही। मोबाइल भी चलाना है तो अंग्रेज़ी आनी जरूरी है।"

कक्षा में पीछे से एक आवाज़ आती," अरे मैडम आप क्यों हम लोगों को इतना पढ़ाना चाहती है, करना तो हमें खेती ही है, या बस दुकान पर बैठना हैं।" और पूरी कक्षा ठहाकों से गूँज जाती।

मैडम जी भी कम नही थी तड़केदार जवाब देतीं थीं। " हाँ हाँ जानती हूँ, तुम लोगों को तो बस एक इंटर की डिग्री चाहिये। क्योंकि जब शादी तय होती है तो पूछा जाता है लड़का क्या करता है?.... जी लड़का इंटर फेल है।...बस तुम लोगों ने इसी उपलब्धि के लिये ही तो यहां एडमिशन लिया है।"

बच्चे भी मुस्कुराते और मैडम भी।

तभी उसी वर्ष मिड डे मील योजना शुरू हुई। कक्षा छह सात आठ वालों को भोजन मिलता था बस। अध्यापिका महोदया की मिड डे मील में ड्यूटी लगी थी। काम था सभी बच्चों की गिनती करके रोज रजिस्टर में लिखना और मध्यावकाश में खाना बंटवाना।

एक नन्हा राजू अक्सर मैडम की नजरें छुपा कर रोटियां अपने बस्ते में छुपा लेता था। कितने दिन छुपता मगर। मैड़म ने पकड़ ही लिया एक दिन। " क्या है राजू तुम्हारे हाथ में पीछे क्या छुपा रहे हो?"
दूसरे लड़के ने गवर्नर बनते हुये अपने हाथ से उसका रोटी वाला हाथ आगे कर दिया। बच्चों की इस नोंक झोंक पर मैडम मुस्कुराईं और पूछा," क्या हुआ? इसे छुपा क्यों रहे थे?"

राजू चुप जैसे उससे कोई अपराध हो गया हो। दूसरे लड़के ने बताया," मैडम जी ये रोटियां अपने घर ले जाता है।"

"क्या बात है राजू? यहाँ क्यों नही खाते रोटी?"मैडम ने जोर देकर पूछा।

"मैडम जी, वो...वो...जी मैं अपनी गाय के लिये रोटी ले जाता हूँ। उसका चारा पूरा नही पड़ता न।" राजू ने सकुचाते हुये बोला।

ज़्यादा कुरेदने पर मालूम पड़ा ऐसा एक राजू ही नही है अकेला। कक्षा के कई बच्चे है जो कि जिस दिन रोटी मिलती है तो वो अपने घर ले जाते है कोई अपनी माँ के लिये , कोई अपने भाई के लिये, कोई अपनी गाय के लिये.....

मैडम निःशब्द और स्तब्ध हो गईं। सोचने लगीं," मैं क्या इन बच्चों को साक्षर करूँ, ये तो पहले से ही साक्षर हैं, मानवता में, भारतीय संस्कृति में, हृदय की सरलता को जीवित रखने में।" नम हो आयीं आंखों को एक नई दृष्टि मिली थी।

©® टि्वंकल तोमर सिंह


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