Saturday 24 August 2019

मेरे देश की धरती सोना उगले

"सुनो जी तुमसे कब से कह रही हूँ छह महीने बाद बिटिया की शादी है अभी से पैसे का इंतज़ाम करना क्यों नही शुरू कर देते हो।" कलावती ने अपने पति फिर से उसी बात को याद दिलाया जो बात वो रोज़ाना उसे याद दिलाती है।

"कर तो रहा हूँ। गया था साहूकार के पास । कह रहा था खेत गिरवी रख दो ले जाओ पैसा। पहले ही कहे देता हूँ पुरखों की जमीन गिरवी न रखूँगा।" सुखिया ने हुक्के में तम्बाकू भरते हुये कहा। ये तम्बाकू ही थी जो उसका एकमात्र सहारा थी। अपनी परेशानियों को वो हुक्के से गुड़गुड़ा कर धुआँ धुआँ कर देना चाहता है। परेशानियाँ तो उसकी कम नही होती थी पर उसे फूँकने के अभिनय में ही कुछ फूँकने का सुकून मिल जाता था।

हुक्का फूँकने के बाद उसने पत्नी से खाना लगाने को कहा। खाने में सिर्फ रोटी प्याज़ और नमक था। उसके बेटे मोहना ने खाने से इन्कार कर दिया। " मैं नही खाऊंगा रोज रोज ये बकवास खाना। एक आलू की सब्जी भी नही बन पाती तुमसे मेरे लिये।"

"मोहना खाना है तो चुपचाप खा लो। वरना फूट लो यहाँ से कल से ये भी नही मिलेगा।" सुखिया ने खाँसते हुये कहा।

"कह दिया न नही खाऊँगा। आपने मेरे स्कूल की फीस के पैसे का इंतजाम किया ? मास्टर जी ने नाम काट दिया है। मेरे सब दोस्त जा रहे है स्कूल मैं ही बस साइकिल का पहिया डंडी मार मार कर घुमा रहा हूँ और कुछ काम नही मेरे पास।" मोहना ने थाली खिसकाते हुये कहा।

"स्कूल की फीस का इंतज़ाम किया?.. " सुखिया ने शब्दों को चबाते हुये उसकी नकल उतारी। "कहाँ से लाऊँ पैसे? पिछले साल फसल भी अच्छी नही हुई। इस बार अभी तक बारिश नही हुई। खेत सूखे जा रहे हैं। क्या करना है पढ़ाई-वढ़ाई करके। कुछ काम खोज। दो पैसे ही घर में आयेंगे।"

मोहना रूठकर अपने बिस्तर पर चला गया। माँ आवाज़ देती रही। " खाना खा ले बेटा। बापू की बात का बुरा मत मानना। बारिश न होने से उनके खेत ही नही दिमाग़ का रस भी सूख गया है। तू खाने पर नाराज़गी मत दिखा रे।" इस तरह एक और रात बीत गयी।

सुबह होते ही सुखिया अपने खेत की ओर चल देता। गुड़ाई निराई करके उत्तर दिशा की ओर ताकता रहता था। नीले आसमान पर रुई सा उड़ता एक बादल का टुकड़ा भटकते हुये भी इधर न आता। धरती तरसती, सुखिया की आँखें तरसती पर भगवान को ज़रा भी दया न आती।
" अरे राम...कुछ तो छीटें भेज दे इधर। पूरी तरह बर्बाद करके ही मानेगा क्या।" सुखिया सूखी सी आवाज़ में बड़बड़ाता।

देखते देखते चार महीने बीत गए। खेत सूख कर धरती की दरारों में बदल गये। सुखिया की समस्या का कोई निदान न हुआ बल्कि उसकी निराशा बढ़ती गयी। उसका अवसाद हुक्के की गुड़गुड़ में भी न उड़ सका। बेटा नाराज़,पत्नी दुःखी, वो ख़ुद अपनेआप से परेशान। बरसात ने जैसे इस ओर न आने का पक्का इरादा कर लिया था।

तभी एक अनहोनी घटना घट गई। सुखिया की पत्नी कलावती सीढ़ियों से फिसल कर गिरी। उसे भारी चोट आई थी। आनन फानन में अस्पताल में उसे भर्ती कराया गया। मालूम पड़ा उसे दाहिने पैर की हड्डी टूट गयी है। कुछ पचास हजार का खर्चा बताया डॉक्टर ने। "कोढ़ में खाज।" सुखिया ने सिर पीट लिया। " अब कहाँ से लाऊँ वैसे। हे राम तेरी परीक्षायें ही नही ख़त्म होतीं।"

सुखिया खेत के कम अस्पताल के चक्कर ज़्यादा लगाने लगा। रोज पिता पुत्र खाना बना कर अस्पताल ले जाते। दिन भर वहीं रहते। रात में रुकने की जगह नही थी तो घर पर ही रहते थे।

कलावती शर्मिंदगी से मरी जा रही थी। "क्यों न वो संभाल के चल सकी। पति का दुख बंटाने की जगह और बढ़ा दिया। पता नही कहाँ से पैसे का इंतज़ाम किया होगा। कुछ बोलते भी नहीं। बस चुप रहतें हैं।" दोनों पति पत्नी में अबोला चल रहा  था।

तीसरे दिन उसके पैर का ऑपरेशन हुआ। एक हफ़्ते बाद आज अस्पताल में उसकी आख़िरी रात थी। लेटे लेटे सोच रही थी। "कल अस्पताल से छुट्टी मिल जायेगी तो पति की ख़ूब सेवा करेगी। जितना उसने कष्ट दिया है सब धो कर रख देगी।" सोचते सोचते उसकी आँखों से आँसू बरसने लगे। तभी उसने देखा अस्पताल की खिड़की के शीशे पर बूँदे चमक रहीं हैं। कलावती को एक क्षण कुछ समझ नही आया। उसकी आँखें भीगीं हैं या सच में शीशे पर बूँदे पड़ने लगीं हैं।

थोड़ी देर में बूँदे बढ़ती गयीं और साथ साथ बूँदों के बरसने का संगीत पूरे वातावरण में गूँजने लगा। कलावती भीगी भीगी आँखें लिये ही मुस्कुराने लगी। मन में ही अपने पति से उसका अबोला टूट गया। अदृश्य सुखिया से वो कहने लगी, " सुनते हो मोहना के बापू, हमारे कष्ट के दिन अब समझो बस गये।" उस ने भुइयां देवी को भी मन ही मन धन्यवाद दिया, "देवी मैया बस किरपा बनाये रखना।"

दूसरे दिन अस्पताल में उसे कोई लेने नही पहुँचा। उसकी आँखें बार बार सुखिया का चेहरा ही ढूँढ रहीं थीं। पर काफी समय इन्तज़ार करने के बाद भी सुखिया नही आया तो किसी तरह अपने पड़ोस में रहने वाले कल्लू की सहायता से वो घर पहुँची। कल्लू की माँ भी उसी अस्पताल में भर्ती थीं।

घर पहुंचकर उसने देखा तो पाया कि घर पर सन्नाटा था। रसोई में आग तक नही जली थी। किसी अनहोनी की आशंका ने उसके मन को बेचैन कर दिया था। छड़ी के सहारे पैर टेकते टेकते अपने खेत की ओर भागी। "मोहना के बापू, अरे ओ मोहना के बापू। देखो मैं आ गयी।" आवाज़ लगाते हुये जोश से वो जितना तेज भाग सकती थी भागी जा रही थी। खेत पहुंचकर उसने देखा बहुत भीड़ लगी है। भीड़ को चीरते हुये अंदर पहुँची तो देखा मोहना एक किनारे खड़ा पागलों की तरह रोये जा रहा है। और पेड़ पर सुखिया की गीले कपड़ों से लदी लाश झूल रही है। कोई कह रहा था। " अरे रात में ही झूल गये है दद्दा। थोड़ा सबर कर लेते तो बारिश देख लेते तो ये सब न होता।"
साहूकार कह रहा था, " अरे मैंने तो पहले ही कहा था, मन नही है तो मत रखो अपने खेत गिरवी। राम राम।"

कलावती को इसके आगे कुछ नही सुनाई दिया। वो अचेत होकर गिर पड़ी। कहीं दूर गीत बज रहा था " मेरे देश की धरती सोना उगले..."
" अरे भैया, मेरे देश की धरती किसान को निगले..." भीड़ में से कोई ठंडी सांस भरकर कह रहा था।

©® टि्वंकल तोमर सिंह



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