Friday, 16 August 2019

बूढ़े मसूड़े

दादी ने अभी ही अपनी ऐनक उतार कर उनके बेड के पास रखे स्टूल पर एक तरफ रखी थी। दूसरी तरफ एक काँच के गिलास में उनके नकली दाँतों का एक पुराना गंदा सा सेट पानी में पड़ा हुआ था। "पुराना सा गंदा सा" जब भी वो उसको देखतीं न जाने क्यों उन्हें वो अपने स्वयँ के अस्तित्व का एहसास सा दिलाता लगता था।

ऐनक पहने रहने से आँखों में उतर आयी नमी को पोंछना संभव कहाँ है? बन्द आँखों पर अपनी उंगलियों को फिरा कर हल्के से छलक आये आँसुओं को पोछा जैसे कि अपने मन को समझाया हो हरीश के पिता की तस्वीर उन्हें ऐसे रोता देखेगी तो दुःखी हो जाएगी।

हर समय दादी दादी कहकर आगे पीछे फिरने वाले पोते ने उनकी आँखों की ये चोरी पकड़ ली थी। " दादी रो मत मैं हूँ न। जब मेरे दाँत गिरेंगे न तो तुम ले लेना। भगवान जी तो मेरे दूसरे दाँत उगा देंगे। मैं तो अपने दाँत पेड़ के नीचे ही दबा देता हूँ। मुझे उनका क्या काम। तुम लगा लेना अपने मुँह में फिर तुमको चबाने में कोई दिक्कत नही होगी।"  छह साल का नन्हा श्रवण अपनी तोतली जबान में बोल रहा था।

दादी छलक आयी आंखों को पोछते पोछते अपने पोते की इस बात पर मोहित हो गयीं, तपते तवे पर जैसे किसी ने ठंडे दूध के कुछ छींटे डाल दिये हो। उनकी छाती में ममता का सागर उमड़ आया। उन्होंने पोते की बलैया ली। " तू ही मेरा श्रवण कुमार है रे पुत्तर। जल्दी से बड़ा हो जा।"

पोते ने अभी अभी माँ और दादी की बातचीत सुनी थी। फिर ये देखा  था कि उसकी माँ को रसोई में बर्तन पटकती जा रही थी और बड़बड़ाती जा रही थीं। " इनको दाँतों का नया सेट चाहिये। पुराने सेट से काम नही चला सकतीं। पैसे तो जैसे पेड़ पर उगते हैं। ससुर तो जैसे करोड़ों की संपत्ति छोड़ कर गए हैं हमारे नाम। नया सेट चाहिये।" मुँह बिचकाते हुये वो बोल रही थी।

"दूध के दाँत बूढ़े मसूड़ों में कहाँ फिट होंगें रे।" दादी पोते को समझा रहीं थीं। शायद कहना चाह रहीं थी बूढ़ी चीज़ ही कहाँ कहीं फिट होती है रे?  बूढ़े मसूड़े पोपले मुँह के अंदर से खोखली सी हँसी हँसते हुये झाँक रहे थे।

©® टि्वंकल तोमर सिंह

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