पगड़ी दी लाज
ऑस्ट्रेलिया स्थित उसके घर पर पत्थर फेंके गये, उसे ब्लडी इंडियन कहकर अपमानित किया गया, बेइज्ज़त करने वाले स्लोगन और पोस्टर्स उसके घर की चारदीवारी के अंदर फेंके गये।
'वाहेगुरु....पगड़ी दी लाज राख्यो"- नस्लवाद का शिकार होने की पीड़ा उसके आँखों से अश्रु बनकर बह रही थी। वह अपने घर के एक अँधेरे कोने में बैठा इन सारे चाबुकों को बरदाश्त कर रहा था।
हताश होकर ऑस्ट्रेलियन यूनिवर्सिटी में कार्यरत उस प्रोफ़ेसर ने श्रीगुरुग्रंथसाहिब खोली। प्रणाम करके उसने आँखें बंद कर ली। एक ही क्षण में उसकी बंद आँखों में उसका गाँव, सरसों का खेत, कच्ची मिट्टी के घर, आम के बगीचे, गाँव के बीचोंबीच लहराता पीपल का पेड़, पेड़ के नीचे चौपाल, उसके सरपंच पिता सब एक साथ सजीव हो उठे।
"मेरे वतन, तुमने मुझे भर भर के सम्मान दिया मुफ़्त में। पर मैं उसकी कदर न कर सका। अगर चाहूँ तो वो सम्मान,वो आदर, वो प्यार यहाँ सोने के सिक्के देकर भी नहीं खरीद सकता।" श्रीगुरूग्रंथसाहिब सीने से लगा कर वो उस बच्चे की तरह रोने लगा, जो अजनबियों से भरे मेले में अपनी माँ का हाथ छूट जाने पर गुम हो जाता है।
©® टि्वंकल तोमर सिंह
लखनऊ।
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