धैर्य रखो, अच्छा समय आएगा।
इस मंत्र को जपते जपते एक उम्र बीत जाती है।
फिर बस उम्र बीत जाती है। धैर्य, प्रतीक्षा, विश्वास...परन्तु कब तक? अपनी रेलगाड़ी पैसेंजर बनी खड़ी रही। पर वो जो स्टेशन मास्टर है, दूसरी रेलगाड़ियों को धड़ाधड़ पास देता रहा।
जहाँ पहुँचना था, वहाँ बहुत देर से पहुँचे तो क्या पहुँचे?
आँसू, अपमान, ठेस, पीर, रिक्तता.....प्रतीक्षा में जहर की तरह घुल जाते हैं।
अंत में सब्र का मीठा फल क्या इस कड़वाहट को हर लेगा?
~टि्वंकल तोमर सिंह
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