किला मुझे सदा से सम्मोहित करता था। एक इतिहास को अपने अंदर दफ़्न किये मोटी मोटी दीवारें जैसे कानों में कुछ फुसफुसा कर कहना चाहती हों। पर क्या मुझे ही ऐसा प्रतीत होता था ? मैंने अपने मित्रों से कई बार पूछा। क्या किले तुम लोगों से भी बात करते हैं ? सबने बड़ी आसानी से मुझे मानसिक रोगी की उपाधि से नवाज़ रखा था।
मुझे पर्यटन का बहुत शौक था। अक्सर मैं सादे, आरामदायक कपड़ों में एक छोटा सा पिठ्ठू बैग लादे, गले में कैमरा लटकाये चल देती थी। ऐसे ही किसी रोज़ मुझे मरुस्थल से घिरे प्रेमगढ़ के रहस्मयी किले के बारे में इंटरनेट से पता चला। कई लोगों ने उसके बारे में अजीब अजीब सी कहानियाँ डाल रखी थीं। कुछ लोगों को वहाँ जाकर बहुत ही चमत्कारी अनुभव हुये थे। वहाँ पहुंचकर कोई हँसता तो हँसता चला जाता था, रोता था तो रोता चला जाता था। सुनने में ये भी आया था कि वहाँ रात में चीखने चिल्लाने की आवाज़ आती थी। पर वहाँ किसी भी पर्यटक को किसी प्रकार के नुकसान से जान से जाने की कोई ख़बर नहीं थी।
फिर मैंने उस किले की फ़ोटो को देखा.......
न जाने क्या आकर्षण था....मैं बस उसे अपलक पाँच मिनट तक देखती ही रह गयी। एक ट्रांस (समाधि) जैसी अवस्था अनुभव हुई। मेरे आस पास का संसार शून्य हो चुका था। और मैं....उस किले के सबसे ऊँचे स्थान पर पहुँच चुकी थी।
......सुरभि....सुरभि.....माँ की आवाज़ मुझे इस ट्रान्स से खींचकर वापस लायी।
" हाँ माँ... आती हूँ।" मैंने उनको उत्तर दिया। क्या था ये ? क्या मैंने कोई सपना देखा था ? मैंने तो प्रेमगढ़ के किले को देखना तो दूर , राजस्थान की भूमि पर भी कभी पैर नहीं रखा था। ये कैसे हो सकता है? पर मुझे एकदम स्पष्ट अनुभव हुआ था...वो गर्मी...वो उड़ती हुई बालू...वो हल्की उष्ण हवा मुझे सिहरन दे रही थी...और मैं...प्रेमगढ़ के किले पर सबसे ऊँचे स्थान पर खड़ी हुई।
मैंने तुरंत अपने लैपटॉप पर प्रेमगढ़ के किले की लोकेशन ढूँढी। वहाँ तक पहुंचने के मार्ग को खंगाला, टिकिट बुक किये और चल पड़ी। सच कहूँ तो मेरे दिमाग ने सही गलत तक कुछ नहीं सोचा, बस जाना है, तो जाना है। जैसे मेरे ऊपर किसी ने जादू कर दिया था।
प्रेमगढ़ पहुँचते पहुँचते संध्या हो चली थी। प्रेमगढ़ एक बहुत ही छोटा सा कस्बा था। शायद किसी समय यहाँ किले और उसके आस पास लोग बसते रहे हों, यहाँ चहल पहल रहती हो पर अभी तो मुझे काफ़ी सन्नाटा और सुनसान लगा।
रात एक छोटे से होटल में काटनी थी। होटल के स्टॉफ से पता चला कि प्रेमगढ़ के किले को देखने सैलानी बहुत दूर दूर से आते हैं। पर वहाँ सूर्यास्त के बाद किसी को रुकने नहीं दिया जाता। यहाँ तक कि किले का स्टॉफ या मेन गेट का चौकीदार भी वहाँ नहीं रुकता।
"क्यों?" मैंने जिज्ञासा से पूछा।
"आप यहाँ क्यों आयीं है? क्या सुनकर आयीं हैं इसके बारे में?" रिसेप्शनिस्ट ने उल्टे मुझसे ही प्रश्न दाग़ दिया।
"अ..अ..वो नेट पर पढ़ा था...रात में अजीब सी चीखने चिल्लाने की आवाज़ें आतीं हैं।" मैंने अटक अटक कर कहा। मन में ये विचार था कि कहीं अभी मुझे ये रिसेप्शनिस्ट पढ़ी लिखी मूर्ख न समझ ले।
"बस वही समझ लीजिये।" रिसेप्शनिस्ट ने संक्षेप में उत्तर दिया और अपना काम करने लगा।
मुझे उसका व्यवहार बहुत रूखा लगा। पर व्यवहारिक रूप से सोचा तो लगा कि शायद जानबूझकर ये लोग ऐसा रहस्य बनाते होंगे जिससे सैलानी और आते रहे। फिलहाल मैं अपना सामान लेकर अपने कमरे में आ गयी। बगल वाले कमरे में शायद कोई जोड़ा रुका हुआ था। उस कमरे से लड़ने की जोर जोर आवाज़ आ रही थी। मैंने सोचा मुझे क्या करना। पर जब मेरी नींद में खलल पड़ने लगा तो मैने ध्यान देकर सुनना शुरू किया।
स्त्री चिल्ला रही थी कि उसे यहाँ नहीं रुकना, अभी ही यहाँ से चल दो। और पुरुष उसे समझा रहा था कि अभी रात में कैसे जाएंगे? सुबह होने पर चलेंगे।
मुझे लगा एक बार जाकर उनके दरवाज़े पर नॉक करूँ और कहूँ कि जो भी करना है करो, पर दूसरे को तो सोने दो। पर हिम्मत नहीं हुई। मैं पड़ी रही अपने मोबाइल में नोटिफिकेशन देखती रही। तभी बगल वाले कमरे से कुछ खींच कर ले जाने की आवाज़ आयी। ऐसा लगा जैसे कोई औरत रोती हुई अपना समान लेकर भागी जा रही है...और आदमी उसके पीछे पीछे आवाज़ देता हुआ उसे रोकने की कोशिश कर रहा है। भागते हुये कदमों की आवाज़ ने मुझे बैचैन कर दिया था। न चाहते हुए भी मैं उनके झगड़े में सम्मिलित हो चुकी थी। कोफ्त हो रही थी। मेरी पूरी सहानुभूति आदमी के साथ थी। अरे ठीक ही तो कह रहा है कहाँ जाएगी रात के ग्यारह बजे इस समय।
तभी अचानक एक जोर से कुछ गिरने की आवाज़ आयी...और सब शांत...!
जिज्ञासा पेट में मरोड़ उत्पन्न करने लगी थी। मैंने दौड़ते हुए दरवाज़ा खोला......देखा तो पूरा कॉरिडोर खाली था। कुछ भी नहीं था। मैं निकल कर बाहर तक पहुँची, रिसेप्शनिस्ट ने अपनी कुर्सी पर ऊँघना शुरू कर दिया था। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। इतनी भड़भड़ में कोई सो कैसे सकता है?
"हेल्लो..." मैंने चिल्लाकर उसे जगाया। वो हड़बड़ा कर उठा और अपनी आँखें मलने लगा।
"क्या हुआ, मैडम?" उसने पूछा।
" इधर जो आदमी-औरत लड़ते हुये गये है...अ... अ... (फिर मैंने बात घुमाते हुये कहा) वो जो कुछ गिरने की आवाज़ आयी थी...क्या था वो?"
"क्या..??? क्या मैडम...आप भी शुरू ही गयीं ?" उसने बड़ी ही लापरवाही से कहा।।
मुझे गुस्सा आ गया" क्या मतलब ? मैं पागल हूँ? मैं इतनी देर से सो नहीं पा रहीं हूँ। बगल वाले कमरे से लड़ने की इतनी आवाज़ें आ रही थी...."
" कौन सा बगल वाला कमरा मैडम? 302 ??"
"और कितने कमरे है नीचे?" मैंने चिढ़ कर उत्तर दिया क्योंकि 301 और 302 दो ही कमरे थे ग्राउंड फ्लोर पर। 301 नंबर कमरा मेरा था।
"मैडम , वो कमरा खाली है। वहाँ कोई नहीं है।" उसने कहा।
"क्या..? मतलब अभी खाली हुआ है न। वो जो जोड़ा चला गया है उसके बाद न ?"
" नही मैडम वो कमरा सुबह से ही खाली है। आपको भ्रम हुआ होगा।" रिसेप्शनिस्ट ने कहा और टीवी चला कर ऐसे देखने लगा जैसे कि ये कोई विशेष बात ही न हो।
मैं अपनी और बेइज्जती नही कराना चाहती थी। चुपचाप मैं अपने कमरे में आ गयी। मुझे जरा भी भरोसा नही था कि बगल वाले कमरे में कोई नहीं था।
थोड़ी देर बाद इन्ही सब ऊहापोह में डूबे रहने के बाद मुझे नींद आ गयी। दूसरे दिन मैं उठी , तो रात की घटना को मैंने दिमाग़ से झटक दिया। नहाया, नाश्ता किया, अच्छे से तैयार हुई और किले को देखने चल पड़ी।
वो किला जिसने मुझे पाँच मिनट तक कीलित कर दिया था, अब मैं उसके सामने खड़ी थी। मुख्य द्वार पर पहुँचते ही मुझे फिर अपने आप को संज्ञा शून्य होने जैसा अनुभव हुआ। क्या था ये? मैं हतप्रभ खड़ी थी....मेरे पैर जमीन में जमे थे और आँखे उस भव्य द्वार की ऊँचाई को निहार रहीं थी। पर मैं वहाँ नहीं थीं। मैं फिर पहुँच चुकी थी उस सबसे ऊँचे स्थान पर...जहाँ से नीचे दूर दूर तक सिर्फ बालू दिखाई देती थी....छोटे छोटे घर दिखते थे...उष्ण हवा अनुभव हो रही थी....!
"मैडम..मैडम.." गेट पर गार्ड मुझसे कह रहा था।
"जी.." मैं भौंचक होकर वापस आयी।
"लेडीज़ की चेकिंग उधर हो रही है। वहाँ जाइये।" उसने कहा।
"अच्छा..." मैंने कहा और चेकिंग करा कर मैं अंदर चल दी।
मैं बता नहीं सकती मेरे अंदर कैसे स्पंदन हो रहे थे। मेरा शरीर एकदम हल्का हो चुका था। जैसे स्थूल शरीर कहीं छूट गया हो और मेरे पास बस सूक्ष्म शरीर बचा हो। आस पास पर्यटकों के शोर गुल के बावजूद मुझे किले की दीवारें मेरे कान में कुछ फुसफुसा रहीं थीं। किले की दीवारों की मेरे कानों में फुसफुसाहट मेरे लिए कोई नई बात नही थी। शायद ये हवा की सांय सांय होती होगी जो मुझे सुनाई देती है। पहले भी हर किले में ऐसा ही अनुभव हुआ है। मैं तेज तेज भागने लगी। जैसे कि इस किले का पूरा नक्शा मुझे याद हो...मुझे किसी से भी कोई दिशा...कोई रास्ता पूछने की आवश्यकता ही नहीं थी। मैं भागी जा रही थी...जैसे मुझे वहीं पहुँचना है...वहीं...वो जगह जो मुझे बहुत अच्छी तरह याद है।
किले के सबसे ऊँचे स्थान पर.....जहाँ उष्ण हवा बह रही थी... जहाँ गर्मी थी...सामने सूरज ढल रहा था।
मैं हाँफने लगी...पेट में दर्द होने लगा था...मैं पेट पकड़ कर नीचे झुककर तेज तेज साँस ले रही थी। न मालूम क्यों मुझे बहुत रोना आ रहा था....मैं चिल्लाने लगी..."आ..ss.... आss...."
मैं रोती जा रही थी...सामने नीचे बालू के रेगिस्तान को देखकर चिल्लाती जा रही थी। तभी मेरे कान में एक पुरुष स्वर गूँजा.... आ गयीं तुम सोना....
मैं पागल की तरह इधर उधर देखने लगी। कोई नही था आस पास। थोड़ी दूर पर पर्यटक किले को देखते हुये इधर उधर घूम रहे थे। कोई फ़ोटो खींच रहा था, कोई सेल्फी ले रहा था। तो ....कोई....हँस रहा था....कोई जोर जोर गाना गा रहा था....कोई उल्टी कर रहा था....सब कुछ अजीब लग रहा था। पर इन सब बातों के बारे में पहले सुन चुकी थी इसलिए थोड़ी राहत थी कि मैं ही अकेली नहीं हूँ जिसे ये अजीब अनुभव हो रहे हैं।
"कितने किलों की दीवारों से कहलवाया मेरी सोना को भेज दो...."
फिर कुछ गूँजा... आश्चर्य की बात है कि इस समय मैं पूरी तरह होश में थी। मैं अपना सिर पकड़ कर बैठ गयी। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मैंने बोतल से पानी पिया, अपना मुँह धोया। वहाँ से एक दृष्टि चारों ओर ऐसे डाली जैसे ये मेरी ही विरासत हो, फिर वहाँ से उल्टे पैर भाग गई। कुछ भी मेरे बस में नहीं था।
होटल पहुँच कर मैंने थोड़ा विश्राम किया। मैं सारे अनुभवों के बारे में एक सिरे से फिर से सोचने लगी। याद आया कि नेट पर सबने इसी तरह के अनुभव लिखे थे इस किले के बारे में मगर किसी ने भी ये नही लिखा था कि कोई आवाज़ भी उनको सुनाई दी थी। तो क्या मैं अकेली थी जिससे किला सच में बात करना चाह रहा था ? मुझे बहुत उत्कंठा हुई फिर से ये सब टटोलने की। होटल में आराम करके मैं थोड़ा बाज़ार घूमने निकली। दुकानों में पारंपरिक राजस्थानी लहँगे, आभूषण बिक रहे थे। मैंने अपने लिये पूरे श्रृंगार की चीज़ें ली, लहँगा ओढ़नी ली।
रात में मैंने पूरी पारंपरिक राजस्थानी वेश भूषा धारण की और चल दी। अगर आप पूछेंगे कि मैंने ऐसा क्यों किया तो इसका मेरे पास कोई उत्तर नहीं है। बस मैंने किया, क्यों ....शायद मैं भी नहीं जानती। रिसेप्शनिस्ट कुर्सी पर बैठा ऊँघ रहा था। मैंने उसे जगाना उचित नहीं समझा, बल्कि उससे बचकर बिना कोई आवाज़ किये बाहर निकल गयी। एक छोटी टोर्च से रास्ता टटोलती हुई मैं चल पड़ी किले की ओर। न मुझे डर लग रहा था...न मेरे मन में किसी अनिष्ट की आशंका थी। मैं बस ऐसे छुपते हुये जा रही थी जैसे कोई प्रेयसी अपने प्रेमी से मिलने जा रही हो।
मुझे पता था कहाँ जाना है....वहीं किले के सबसे ऊपर स्थान पर। मैं लगभग दौड़ती हुई वहाँ पहुँच गयी। ऊपर पहुँच कर मेरे पैर एकदम ठिठक गये। एक तेज हवा का झोंका आया और जैसे मेरा कोई दूसरा ही जन्म हो गया हो।
आश्चर्य कि वहाँ अंधेरा नहीं था। वहाँ तो बहुत रौनक थी, चहल पहल थी। जैसे कि कोई उत्सव चल रहा हो। बहुत ढेर सारे लोग थे। एक सिंहासन पर एक रौबदार पुरुष शाही वस्त्र धारण किये बैठा था, सामने आग जल रही थी, एक सुंदर शरीर वाली स्त्री अपना मुँह ढके नृत्य कर रही थी। संगीत के उपकरणों से लहर निकल रही थी। सब बहुत खुश नज़र आ रहे थे। मुझे देखते ही वो पुरूष अपने स्थान से उठा और उसने मुझे बड़े ही आत्मीय स्वर में पुकारा...….सोना....!
उसके पुकारते ही सब अदृश्य हो गया। रात की गहराई बची, चाँद की हल्की रोशनी में किले के बुर्ज पर एक किनारे वो खड़ा था और इस किनारे मैं।
मैं जैसे नशे की हालत में धीरे धीरे कदम रखती पायल से छम छम ध्वनि निकालती उस तक पहुंचने लगी।
फिर जब अंत में थोड़ी दूरी बची, मैं दौड़ते हुये उसके पास गयी और उसके सीने पर मैंने अपना सिर टिका दिया। इतनी दिव्यता मैंने जीवन में कभी अनुभव नही की थी। मैं कहाँ थी...किस काल में थी...अंतरिक्ष की किस गहराइयों में थी नही पता। सब कुछ ऐसे था जैसे मैं गहरी नींद में कोई सपना देख रही हूँ।
"सोना....आज हमारा मिलन पूरा हुआ। कबसे मैं इसी पल की राह देख रहा था। उस दिन तुम भागी तो ऐसी भागी कि दुबारा आयी ही नही।"
"देवव्रत........मैं भागी नही थी मैं तुम्हारे लिए सहायता माँगने गयी थी....हमें अभी भी ये लोग जीने नहीं देंगे। ये हमारे बीच बरसों की दूरी काल बनकर खड़ी है....हमें फिर से अलग कर देगी। चलो यहाँ से अभी भाग चलते हैं।" मैं तड़प कर बोल रही थी। पता नही मैं क्या बड़बड़ा रही थी।
"नहीं सोना...अभी कैसे जायेंगे.. अभी तो रात है। कल सुबह होते ही चल देंगे। भोर हमारे लिये सारे दुःखों का अंत लेकर आएगी।"
" देवव्रत..तुम फिर वही गलती कर रहे हो। तब भी तुमने यही कहा था। क्या हुआ था ? इसी जगह मेरे भाइयों ने तुम्हें तब भी मार कर यहीं से नीचे चील कौवे को खाने के लिये फेंक दिया था.....आज भी तुम मुझसे अलग हो जाओगे। चलो अभी यहाँ से मेरे साथ भाग चलो।" मैं उन्मत सी होकर देवव्रत का हाथ पकड़े किले की दीवार के अंतिम छोर भागती हुई आ गयी थी।
"सोना...अब कुछ नहीं होगा। अब हमारा मिलन हो गया है। मेरी साध पूरी हुई।" देवव्रत मुझे मुस्कुरा कर अपनी प्रेम निमग्न आंखों की मदिरा पिला रहा था। उसका विराट व्यक्तित्व मुझे चुम्बक की तरह उसकी खींच रहा था, मैं नहीं चाहती थी अगर ये सपना है तो ये सपना ख़त्म हो।
" नहीं देवव्रत...चलो अभी , अब मैं तुमसे अलग नहीं रह सकती। " मैं उन्मादिनी हो चुकी थी। मेरा हृदय बागी हो चला था, मेरी विवेक शक्ति मेरे नियंत्रण में नहीं थी। मैंने देवव्रत का हाथ पकड़ा और किले की दीवार से छलांग लगा दी।
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.....…........
एक तेज आवाज़....एक चीख.....एक विस्फोट....फिर एक शून्य.......!
मेरी चेतना लौटी तो किले की दीवार के जिस स्थान से मैंने छलाँग लगा दी थी, उसी के नीचे जमीन पर मैं पड़ी हुई थी। ऐसा लगा जैसे गिरते समय किसी ने मुझे अपनी मजबूत बाजुओं में थाम कर वहाँ लेटा दिया था।
"देवव्रत...." मैं फफक कर रो पड़ी। सुबह होने में बस कुछ घड़ियाँ ही शेष थी। हल्का हल्का अंधकार था , हल्की हल्की ठंड वातावरण में थी। मैं उदास मन लिए वहाँ से चली आयी।
उस दिन के बाद से प्रेमगढ़ के किले से चीखने चिल्लाने की आवाज़ आनी बन्द हो गयी थीं और किसी भी किले की दीवारों ने मेरे कान में फुसफुसाना बन्द कर दिया था।
टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ।