कुचली हो किसी बालक ने
पैरों तले खेल खेल में बाँसुरी
कितनी भी रही हो मीठी, तान गुम हो जाती है
एक फटे कागज़ का टुकड़ा
हवा के इशारे पर रहता है उड़ता
कितना भी भटक ले,मुड़ कर जहाज नहीं बन पाता है
चटके दीये से सोख लेता है तेल
अंधा आधार प्यासा बन,लेता है बदला
कितनी भी प्रखर हो लौ, प्रकाश मृत हो जाता है
फटें होठों से रिसती हैं पपड़ियाँ
रागों में पड़ जाती हैं विराग की दरार
कितना भी हो सुरीला,कण्ठ कूकना भूल जाता है
टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ।
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