Sunday 13 September 2020

हिन्दी दिवस

फिर से एक और हिन्दी दिवस आ गया। 
पिछले साल हिन्दी की दुर्दशा पर न मालूम कितने हृदय छलनी हुये थे, न मालूम कितनों ने ये संकल्प लिया होगा कि इसे समृद्ध करना है, बड़े बड़े लेख लिखे होंगे, न लिख सके होंगे तो शेयर किये होंगे। फिर अपने बच्चों के दाखिले के लिये अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालयों में कतार में भी जा कर खड़े हुये होंगे। 

क्या किया जाये? विडंबना ही यही है। हमें हिन्दी से प्रेम है, हम हिन्दी को संरक्षित भी करना चाहते हैं, मगर क्या करें  बुनियाद में ही अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा के बीज को रोप देना, आगे आने वाले वर्षों में सफलता की अग्रिम सावधि जमा है। पर क्या वास्तव में अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल हिन्दी की दुर्दशा के लिये उत्तरदायी है? क्या अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ा कर भी हिन्दी को समृद्ध नहीं किया जा सकता ? उसी प्रकार जिस प्रकार हिन्दी माध्यम से पढ़े बच्चे अंग्रेज़ी को समृद्ध करते हैं। अंग्रेज़ी व्याकरण के मामले में अँगेजी माध्यम से पढ़े बच्चों से बीस ही रहते हैं, उन्नीस नहीं। 

आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि अपनी मातृभाषा पर हर किसी की पकड़ होती है। उसको न केवल समझना आसान है, अपितु उसमें अपने हृदय के भावों को संप्रेषित कर पाना अधिक सुलभ है। 

ऐसे में जब ये समाचार आता है कि यूपी बोर्ड की परीक्षा में इस वर्ष आठ लाख परीक्षार्थी हिन्दी विषय में असफल हो गए। हिन्दी भाषी प्रदेश में ही हिन्दी विषय में इस तरह का लचर प्रदर्शन ? हिन्दी पढ़ने के प्रति ऐसी अनिच्छा ? क्या ये चिंता का एक विषय नहीं है? 

वहीं अंग्रेज़ी माध्यम के बोर्ड में हिन्दी विषय में शत प्रतिशत अंक मिलना, किस बात की ओर संकेत करता है? क्या हिन्दी  एक परीक्षा उत्तीर्ण करने का साधन मात्र बनकर रह गयी है? क्या हिन्दी में आधिकाधिक अंक देकर उसे एक आसान विषय का तमगा देकर विद्यार्थियों में विषय के प्रति एक अतिविश्वास भरा जा रहा है? सौ प्रतिशत अंक क्या उस विषय पर विद्यार्थी के असाधारण अधिकार की घोषणा नहीं करते ? 

यू पी बोर्ड की कापियों का मूल्यांकन करने वाले अध्यापकों का कहना है कि विद्यार्थियों को हिन्दी के सरल वाक्य भी नहीं लिखने आते हैं, इसकी वजह से हम लोगों को विद्यार्थियों को हिन्दी भाषा विषय में भी अनुत्तीर्ण करना पड़ा है। 

उनके अनुसार बच्चों को हिंदी भाषा में 'आत्मविश्वास' जैसे सरल शब्द नहीं लिखना आता है और इसके स्थान पर उन्होंने अंग्रेज़ी में ' कांफिडेंस' लिखा था, जिसकी वर्तनी भी गलत थी। कुछ बच्चों ने 'यात्रा' शब्द की जगह अँग्रेज़ी वाला 'सफ़र' लिखा था। मतलब हिन्दी तो आती ही नहीं, 'सफ़र' के मामले में भी सिफ़र ही हैं। 

इसमें बच्चे की भी क्या त्रुटि है? फ़ेसबुक , ट्विटर, इंस्टाग्राम हर जगह पर बच्चा 'नयी वाली हिन्दी' सीख रहा है। जहाँ जब मन करे अपने हिसाब से किसी भी भाषा का शब्द घुसा दो। चावल में कुछ काली दाल के दाने डाल दिये, अब तक चलता रहा। पर अब दाल ही दाल घुसा दोगे तो चावल ,चावल कहाँ रह जायेगा? खिचड़ी से भी गया गुज़रा हो जाएगा। 

ये नयी वाली हिन्दी और पुरानी वाली हिन्दी क्या बला है? हिन्दी हिन्दी है। कुछ शब्द अपरिहार्य हैं, दूसरी भाषा से उधार लेना मज़बूरी है, पर इसका ये अर्थ तो नहीं कि अपनी भाषा को दूषित करते जायें और फिर उसे नयी वाली हिन्दी कह कर इतरायें ? 

सुखद ये है कि इधर कुछ वर्षों में फ़ेसबुक/ट्विटर/इंस्टाग्राम पर तेजी से हिन्दी लेखन मंचों की संख्या बढ़ी है, उनमें प्रतिभाग करने वाले लेखकों की संख्या बढ़ी है, सबसे ऊपर हिन्दी पुस्तकों की बिक्री में वृद्धि हुई है। भले ही ये अभी बहुत  नाममात्र का ही योगदान दे पा रहे हों। 

मैंने स्वयँ न मालूम कितनी अच्छी हिन्दी पुस्तकों की समीक्षा किसी की फ़ेसबुक वॉल पर देखी और उसे तुरन्त मंगा लिया।  ऐसा विस्तार, प्रसार होता रहना चाहिए। जब भी आप कोई हिन्दी की अच्छी पुस्तक पढ़ें, उसके बारे में अवश्य लिखें, ऐमज़ॉन/ किंडल / या किसी अन्य मंच पर उसे रेटिंग अवश्य दें। इतना योगदान तो दे ही सकते हैं, अपनी भाषा को समृद्ध करने के लिए। 

टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ। 

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