Thursday 21 April 2022

लिंग भेदभाव

लिंग भेदभाव
------------------
बचपन में भाई बहनों में लड़ाई होना आम बात है। हम भी अलग न थे। भाई से लड़ाई शुरू होती थी शास्त्रार्थ से और फिर हमारे अंदर बैठे नारायण याद दिला देते थे," सारे रिश्ते मोह माया है।" तो बस, शास्त्रार्थ महाभारत में बदल जाता। उस समय हमारे दो कमरे के राजमहल में तीर-धनुष, भाला-कटार तो होते न थे, तो हाथों और पैरों से युद्ध लड़ना पड़ता था। मुक्केबाजी, कराटेबाज़ी, कुश्ती, ओखल कूटना जैसे सारे टैलेंट नैसर्गिक रूप से हमें मिले थे। पर यहाँ मेरे अंदर लिंग भेदभाव की भावना बलवती थी। भाई के साथ नोचा-नोची, मुक्कालात सब होता पर बहनों के साथ केवल मौखिक संग्राम पर ही बात ख़त्म हो जाती थी। 

डिग्री ख़त्म करके मैंने करियर शुरू किया। सौ से ऊपर बच्चों की कक्षा को अनुशासन में रखना कठिन है। फिर उस पर अगर वो लड़के हों, तो बहुत मुश्किल हो जाता है। न चाहते हुये भी कभी कभी छड़ी उठानी पड़ ही जाती है। कभी कभी तो ये छड़ी ही राम जी की पादुका की तरह मेज पर रखे-रखे शासन कर लेती है, कक्षा-राज्य में शांति कायम रहती है। लड़के अक्सर कहते हैं ," मैम, आप बहुत भेदभाव करती हैं। लड़कियों को हाथ भी नहीं लगातीं और हम लड़कों को छड़ी, डस्टर, स्केल जो भी मिल जाये उससे कूट डालती हैं।" अब मैं क्या बताऊँ कि लड़कियों के पास एक ब्रह्मास्त्र होता है, जिसके आगे हमारी छड़ी जैसे तुच्छ अस्त्र की क्या बिसात? ज़रा सा डाँट भर दो उनकी आँखों में नलका बहने लगता है और हम कठोर से कठोर हृदय वाले अध्यापकों का सारा क्रोध उसी में बह जाता है। 

फ़ेसबुक पर कई लोगों ने मैसेंजर में आकर इल्ज़ाम लगाया। "मैम, आप बहुत भेदभाव करती हैं। मानव के कमेंट को नीला अँगूठा और मानवी के कमेंट को हृदयरूपी रक्तवर्णी प्रतिक्रिया चिन्ह।" अब मैं क्या बताऊँ....एक मानवी मुझ अकिंचन से बिना खार खाये, बिना जले-भुने, मेरे ट्रिक से खींचे गए, फिल्टर से नहलाये गए, डिजिटल चित्र को न केवल पसंद कर रहीं हैं, उस पर प्यारे प्यारे प्रेम-पगे शब्दों से पुष्प-वर्षा कर रही हैं, उस पर काव्य सृजन की इच्छा प्रकट कर रही है, तो बदले में मैं उन्हें कृतज्ञतापूर्वक 'दिल' भी न दूँ? फिर उन्हें ये अनुभव कराना होता है कि वे मेरे हृदय में 'ख़ास' स्थान रखतीं हैं। मानव का क्या है उन्हें तो खिचड़ी भी इसीलिए पसंद आ जाती है क्योंकि हिन्दी व्याकरण के हिसाब से वह स्त्रीलिंग है। सच बात तो यह है कि मानव को तो दिल वाला रिएक्शन इसलिए नहीं देती कि कहीं उन्हें ये न लगे 'रिएक्शन' नहीं...सीधे 'दिल' ही दे दिया है। आख़िर इस मामले में वे बहुत नाज़ुकमिज़ाज़ होते हैं। उन्हें खाँसी-ज़ुकाम-कोरोना की ही तरह 'इश्क़' बहुत जल्दी पकड़ लेता है।

उफ़्फ़.....पर सच में शर्मिंदा हूँ.....पता नहीं ये लिंगभेदभाव की भावना मेरे हृदय से कब निकलेगी? 

~ टि्वंकल तोमर सिंह

No comments:

Post a Comment

द्वार

1. नौ द्वारों के मध्य  प्रतीक्षारत एक पंछी किस द्वार से आगमन किस द्वार से निर्गमन नहीं पता 2. कहते हैं संयोग एक बार ठक-ठक करता है फिर मुड़ कर...