"क्यों रे मुक्कु, तेरे घर में आज फिर चूल्हा नहीं जला न। चल बैठ मैं परोसती हूँ तुझे।" रसोई से बड़ी चौधरानी ने चूल्हे पर चढ़ी हांडी में कलछुली चलाते हुये कहा। " ये रज्जो तो और है, कितनी बार कहा है राशन ख़त्म हो जाया करे तो आकर एक दो किलो आटा ले जाया करे। पर संकोच में मांगती नहीं है।" साथ में हल्के स्वर में बड़बड़ाने भी लगीं।
जिज्जी,आप कैसे इस मैलेकुचैले गूँगे की बात समझ जाती हैं। जैसे ही ये आँगन में हरसिंगार के पेड़ के नीचे आकर खड़ा हो जाता है, आप इसके मन की बात जान जाती है, जबकि ये कुछ भी नही कहता, न आपसे कुछ मांगता है।- छोटी देवरानी ने जो आटा माँड़ रही थी, पानी के छीटें डालते हुये आश्चर्य से पूछा।
गांव में ठाकुर का इकलौता पक्का घर है। बड़ा सा आंगन है। इसी घर में रज्जो झाड़ू बुहारी करने के लिये आती है। रज्जो का गूंगा लड़का, मुक्कु, जो थोड़ा मंद बुद्धि भी है, उसके साथ हो लेता है। रोज ही आंगन में लगे हरसिंगार के पेड़ के नीचे कंकड़ पत्थर से बैठकर खेलता रहता है,पर जिस दिन भूखा होता है उस दिन पत्ते का दोना बना कर उसमें कंकड़ पत्थर भरने लगता है। मांगता कुछ नहीं बस बीच बीच में आंगन से सटी रसोई के दरवाजे की ओर मूक दृष्टि से ताक लेता है। रसोई के दरवाजे से सीधे सामने हरसिंगार का पेड़ दिखाई देता था। बड़ी चौधरानी रसोई बनाने में कितनी ही व्यस्त क्यों न हों, एक नज़र हरसिंगार के पेड़ के नीचे जरूर फेंक लेतीं थीं।
बड़ी चौधरानी ने पत्तल बिछाया , उसमें एक तरफ दोना रखा, फिर पनीर की सब्जी उसमें परोसते हुये कहा- "पहले मैं भी इसे महरी का लड़का समझ के भगा देती थी, पर जबसे मेरा बेटा माघ के मेले में खोया है, मुझे दुनिया के हर बच्चे के मन की भाषा समझ आ जाती है।" दूसरी तरफ मुंह फेर कर चोरी से उन्होंने आँचल से अपनी छलक आयी आँखों को पोछ लिया।
क्या पता उनका बेटा जो मात्र पांच- छह साल का था, कुम्भ में उनसे बिछड़ने के बाद किस किस के घर के सामने ऐसे ही मुंह बांध के खड़ा हो , भोजन की आस में। अब बड़ी चौधरानी को किसी भी भूखे को भोजन करा के ऐसी तृप्ति मिलती है जैसे उन्होंने अपने ही लाल को भरपेट भोजन करा दिया हो। प्यासी ममता हर बच्चे में अपने बालक के दर्शन कर लेती है।
©® Twinkle Tomar Singh
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