Wednesday 13 March 2019

भूख न देखे टूटी थाल

सब्जी को रोटी के एक टुकड़े में लपेट कर बड़े साहेब ने मुँह में डाल कर चबाना शुरू किया। "आजकल किसी भी चीज़ में कुछ स्वाद ही नही रहा।"

" मीरा...क्या आज अरहर दाल बिन खटाई की बना दी क्या ?" गरम दाल को चम्मच से सुड़कते हुये साहेब ने अपनी पत्नी को आवाज़ दी जो रसोई से सलाद ला रहीं थीं।

"क्या हुआ जी? सब कुछ डाला है कली खटाई, टमाटर धनिया मिर्चा सब। अब फसल में ही स्वाद न हो तो कोई क्या करे ?" मीरा ने साहेब की थाली में बड़ी मुश्किल से जगह बनाते हुये सलाद परोसा। दो तरह की सब्जी, दाल, रोटी, चावल, अचार,चटनी,पापड़ सब पहले से ही थाली में जगह घेरे बैठे थे ।

"वही तो। बचपन वाला वो स्वाद रहा ही नही। स्कूल जाने से पहले, मुझे याद है, हम लोगों को अम्मा सिर्फ़ दाल चावल कटोरे में डाल के दे देतीं थीं। क्या स्वाद था वाह। अब नकली खाद, फ़र्टिलाइज़र, इंजेक्शन देकर फसल उगाएंगे तो कहाँ से सब्जी और दाल चावल रोटी में स्वाद आयेगा। बस पेट भरने को खा लो। तृप्ति तो मिलने से रही। " - साहेब ने रोटी सब्जी में  ढेर सी चटनी लगा कर कौर मुंह के अंदर धकेला।

" अरे, मुनिया कितनी बार कहा अपने बच्चे को अपने पास बैठाया करो। जब साहेब खाना खाया करें तो इनसे दूर रखा करो।" मीरा ने मुनिया को आवाज़ दी। ( चटोरा कहीं का, इनके खाने को नज़र लगा देता है। तभी तो इनको खाने में स्वाद नही आता। - मीरा ने मन में घृणा के साथ कहा।)

मुनिया आयी और डपट कर अपने बच्चे को गोद में उठा कर ले गयी। जाते जाते भी बच्चे की निग़ाह साहेब की थाली पर ही टिकीं थी। कोने में ले जाकर अपने बाबू को पुचकारने लगी - "भूख लगी है न बचवा। बस अभी पोछा लगा लूँ फिर घर चल कर देतीं हूँ।"
बचवा की लार अभी तक बह रही थी और आंखों में एक अजीब से लालच में डूबी हुई भूख थी। मुनिया अपने दो साल के बच्चे के मन की बात अच्छी तरह समझ रही थी, जो अभी ठीक से बोल भी नही पाता था।

साहेब के डकार लेने की आवाजें आने लगीं। मीरा मेमसाब डाइनिंग टेबल से खाने पीने का सामान हटा कर रसोई में रखने लगीं। मुनिया के अंदर की माँ ने बड़े संकोच से साथ कहा- "मालकिन, अगर दाल चावल बचा हो थोड़ा सा दे दीजिये। बचवा भूखा है शायद।"

"अरे हाँ क्यों नही। एक आदमी भर का खाना मैं हमेशा ज़्यादा बनाती हूँ।" - मीरा ने कहा - (वैसे भी इसे नही दूंगी तो उनका खाना पचेगा नही।) - मन में वितृष्णा से बुदबुदाते हुये महरी के लिये अलग से रखे हुये  बर्तनों में दाल चावल परोसने लगीं।

मुनिया ने दाल चावल साना , कौर बना कर बचवा को खिलाने लगी। बचवा लपक लपक के खा रहा था। दो कौरों के बीच का इंतज़ार भी उसे सहन नही हो रहा था। मुनिया ने बीच में एक कौर अपने मुँह में भी डाला, भूख उसे भी बड़ी जोर की लगी थी। पर बचवा का पेट भरना जरूरी था पहले। पर उसे ये नही समझ आया कि साहेब क्यों कह रहे थे खाने में स्वाद नही है।

©® Twinkle Tomar Singh

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