वो भारी सोने के गहने और महंगे कपड़ों से लदी हुई मेरी ओर ही चली आ रही थी। मैं गुरुद्वारे की पंगत में बैठी हुई हूँ और वो लंगर करा रही है। ऋतु मेरी सहेली जिससे आँख मिलाने तक का मेरे पास आज साहस नही। बचपन में एक बार उसकी पेंसिल मैंने चुरा ली थी। दूसरे दिन उसने मेरे पेंसिल बॉक्स में वही पेंसिल देखी और सिर्फ़ इतना कहा- "अरे ये तो बिल्कुल मेरी पेंसिल जैसी दिखती है।" आज तक मुझे नही पता उसने अपनी पेंसिल पहचान ली थी या नही?
मेरी चोरी की आदत बड़े होकर भी नही बदली और मैंने ईर्ष्यावाश उसके मंगेतर को चुरा लिया था। जब पहली बार रोहित को देखा तो लगा इसे तो मेरा होना चाहिये था। ये कैसे ऋतु की झोली में जा गिरा। क्या क्या नही किया मैंने। संस्कारी सुशील बनने का नाटक, ऋतु की बुराई, उसके झूठे अफेयर्स की खबरें और जब इन सब से भी काम नही बना तो एक शाम रोहित को अकेले पा कर अपने गाउन को दायें कंधे से धीरे से लापरवाह बनते हुये सरका दिया।
बेचारा रोहित...आज तक उसे यही लगता है जो उस दिन हम दोनों अकेले में बहक गये थे उसमें उसकी ही गलती थी।
आज गुरुद्वारे की पंगत में बैठकर अपनी हालत पर इतना दुख आजतक नही हुआ, इतना तरस ख़ुद पर कभी नही आया। रोहित से तलाक के बाद कहाँ कहाँ नही भटकी हूँ। न ढँग की कोई नौकरी मिली, न ही ढँग का कोई दूसरा लड़का जिसे मैं फंसा लूँ। ऋतु की सादगी और शीतलता के बहाव के सामने जैसे मैं तिनके जैसी बही जा रही हूँ। जी में तो आया यहीं धरती फट जाये और मैं उसमें समा जाऊं। पर न मालूम किस चीज़ ने मुझे रोक कर रखा है। क्या है जो मेरे पैरों में लोहे के गोले की तरह अटका हुआ है। "ऋतु मुझे क्षमा कर देना..." नहीं ऐसे तो कोई शब्द नही हैं मेरे गले में रुंधे हुये। फ़िर क्यों बैठी हूँ यहाँ? किस बात की प्रतीक्षा है मुझे ? मुझे आज तक याद है जब मैंने और रोहित ने तुम्हें बताया था कि हम शादी करना चाहते है, और ये हमारी मजबूरी है। मेरी शैतानी आँखों में पता नही उस दिन भी तुम पढ़ पायीं थी कि नही कि प्रेगनेंसी टेस्ट पॉजिटिव वाली बात कोरा झूठ थी। तुमने तो सिर्फ़ आँख में आँसू लिये इतना ही कहा था- "कोई बात नही रीतिका, शादी विवाह तो सब ईश्वर निश्चित करता है। रोहित तुम्हारा ही रहा होगा।"
पेंसिल बॉक्स में पड़ी पेंसिल मेरे जेहन में आकर हँसने लगी थी। उसकी नोंक आजतक मेरे दिमाग में आकर बार बार एक ही जगह चोट करती है।...रोहित तुम्हारा ही रहा होगा। इन शब्दों की चोट बहुत नुकीली थी। "ऋतु, एक बार मुझे झिझोड़ कर अपना गुस्सा ही निकाल लो आज।" क्यों मेरी ऐसी इच्छा हो रही है आज?"
अचानक ऋतु और मेरी नज़रें मिली। मुझे लगा एक सदी, एक जन्म जी कर वापस आयीं हूँ। आज तो मेरे पाप और पुण्य का हिसाब यहीं हो जायेगा इसी गुरुद्वारे में। ऋतु ने मुझे देखा आश्चर्य से उसकी आँखें फैलीं फिर सामान्य हो गयी। वो पंगत की पंक्ति में सबको अपने हाथों से खाना परोस रही थी। मेरे बिल्कुल पास आ चुकी थी। मैं काठ की पुतली बनी बैठी थी।
न उसने कुछ कहा, न झिंझोड़ा, न मेरी ओर वितृष्णा से देखा बस सिर झुकाये परोसती रही। पर मेरी थाली में खाने के साथ वो दो गंगाजल सी पवित्र आंसुओं की दो बूंदे भी परोस गयी। फिर मुख मोड़ते हुये उसने अपने नौकर को आदेश दिया- "देखना सब पेट भर के खाये। कोई यहाँ से भूखा न जाये।"
ये गंगाजल सी पवित्र आँसू मेरे पाप की कितनी शुद्धि कर सकेंगीं नही पता। गुरुद्वारे में सबद के शब्द गूंज रहे है- "निर्गुण राख लिया...संतन का सदका...सद्गुरु ढाक लिया..मोहे पापी पर्दा.."
सच ही है मुझ अधम पापिन को निर्गुण ईश्वर ने ऋतु जैसी संत के सदके से ही बचा लिया। सद्गुरु ने मुझ पापी के पाप पर पर्दा कर दिया।
©® Twinkle Tomar Singh
No comments:
Post a Comment