Wednesday 24 July 2019

एक बचाया गया रुपया एक कमाये गये रुपये के बराबर है

चारु और स्नेहा के पति एक ही ऑफिस में काम करते थे। दोनों आपस में बहुत अच्छे मित्र थे। चारु और स्नेहा भी पतियों की दोस्ती के नाते अब आपस में बहुत अच्छी दोस्त हो गईं थीं। अक्सर उन दोनों का एक दूसरे के घर आना जाना लगा रहता था।

दोनों के पतियों की आय लगभग बराबर ही थी। पर चारु को पैसों की हमेशा कमी बनी रहती थी। और स्नेहा बड़े आराम से घर का खर्चा चला लेती थी। यहाँ तक कि अगर उसे अपने मन की कोई चीज़ खरीदनी है कोई म्यूजिक सिस्टम या इलेक्ट्रॉनिक आइटम या अपने मन की ड्रेस तो उसके पास हमेशा पैसे निकल आते थे।

चारु जब उसके घर जाती ये सब देख कर हैरान होती थी। सोचती थी ये कैसे इतनी आय में सब मैनेज़ कर लेती है। पूरा घर सजा संवरा, व्यवस्थित। किसी चीज़ की कोई कमी नही। हर चीज़ में नफ़ासत नज़ाकत और एक क्लास झलकती थी। चारु सोचती थी जरूर इसके मायके से इसे पैसे का सपोर्ट होगा। वर्ना क्लास बिना पैसों के कहाँ आ जाता है?

संयोग से दोनों दम्पति जोड़ियों ने एक ही बिल्डिंग में फ्लैट ले लिया। चारु और स्नेहा दोनों के पतियों ने लोन लेकर फ्लैट कराया था। दोनों ही अपनी सैलरी से एक बड़ी ई एम आई कटवा रहे थे। दोनों की आय अब पहले से कम हो गयी थी। जहाँ एक ओर चारु के लिये घर चलाना भी मुश्किल हो रहा था वहीं स्नेहा के चेहरे पर शिकन नाम की चीज़ नही थी। वो अब भी पहले जैसे मुस्कुराती थी मस्त रहती थी और सारे खर्चे मैनेज कर लेती थी।

एक दिन जब चारु स्नेहा के घर पर बैठी थी चारों ओर उसका घर निहार रही थी, उसके घर की भव्यता के आगे झुकी जा रही थी, तो उससे रहा नही गया। चाय का कप हाथ में लेते हुये उसने कहा- "अच्छा स्नेहा मायके से थोड़ा सपोर्ट मिल जाये तो गृहस्थी ठीक से चल जाती है। है न।"

" हाँ बहन ठीक कह रही हो। मायका अगर सम्पन्न हो तो गृहस्थी की गाड़ी में ज़्यादा रोड़े नही आते। पर हमारी ऐसी किस्मत कहाँ?" एक ठंडी साँस लेते हुये स्नेहा ने कहा। पर दूसरे ही क्षण हँसने लगी। "ठीक भी है यार अच्छा ही है ज़्यादा मायके का एहसान न ही लेना पड़े तो ठीक है।"

चारु के लिये ये एक आश्चर्य का क्षण था। " क्या कह रही हो? मुझे तो लगता है तुमको मायके से बहुत सपोर्ट है। ये घर की रौनक, सारे खर्चे, बच्चे का रहन सहन देख कर लगता ही नही हमारी और तुम्हारी आय एक जैसी ही है। झूठ क्यों बोल रही हो बहन। इसमें छुपाने जैसी क्या बात है?"

स्नेहा एक समझदार मैच्योर स्त्री थी। उसने चारु की बात का बिल्कुल भी बुरा नही माना। बल्कि उसने भी महसूस किया था चारु को गृहस्थी चलाने में दिक्कत होती है। स्नेहा ने मुस्कुराते हुये कहा- चारु, मेरे पिता जी बैंक में क्लर्क थे। क्लर्क जानती हो न बस जिंदगी भर अपनी बेटियों के लिये दहेज जोड़ता रह जाता है और फिर उसके बाद जब उसकी बेटियों की शादी हो जाती है तो वो कंगाल हो जाता है। जैसे तैसे माँ बाबूजी हम तीनों बहनों की शादी करने के बाद और भाई को अच्छी शिक्षा दिलाने के बाद पेंशन से गुजारा कर रहे है। भाई की अभी कोई खास अच्छी आय है नही। अब बताओ जरा वो मेरी क्या मदद करेंगे।?"

" सॉरी स्नेहा, मुझे मालूम नही था। मैंने तुम्हारा रहन सहन देख कर गलतफहमी पाल ली थी। प्लीज़ बुरा मत मानना।" चारु ने धीमी आवाज़ में कहा।

स्नेहा ने चारु के दोनों हाथ पकड़ कर कहा,"अरे दोस्तों की बात का भी कोई बुरा मानता है। कोई बात नही। अरे देखो मैंने धीमी आँच पर दूध चढ़ाया था। अभी गैस बंद कर के आती हूँ।" ये कहकर स्नेहा रसोई में चली गयी। उसके पीछे पीछे चारु भी बात करते करते आ गई।

तभी चारु ने देखा कि स्नेहा ने गैस बंद की फिर सलाद में बचे हुये प्याज़ के टुकड़े एक सिरके वाले जार में डालती जा रही है। " ये क्या कर रही हो स्नेहा।" चारु ने पूछा।
" कुछ नही इस बची हुई प्याज़ का और क्या करूँ भला। फ्रीज़ में रखो तो फ्रीज़ महकने लगता है। इस प्याज़ को पीस कर सब्जी में वो टेस्ट नही आता। तो मैं इन्हें सिरके में डाल देतीं हूँ और ये दोगुनी टेस्टी हो जाती हैं।"

तभी स्नेहा का बेटा दौड़ता हुआ आया और कहने लगा-" मम्मी , मम्मी मुझे क्ले चाहिये। पहले वाला क्ले ख़राब हो गया।"

" अच्छा मेरा राजा बेटा बस पांच मिनट दो अभी बनाती हूँ तुम्हारा क्ले।" ये कहकर स्नेहा ने थोड़ा सा आटा लिया, थोड़ा सा नमक लिया, थोड़ा सा रिफाइंड, और थोड़ा सा वाटर कलर। सबको मिक्स किया और पांच मिनट में बेटे के मन के रंग का क्ले तैयार था।

चारु देखती रह गयी। उसके मन पर छाये बादल छट चुके थे। उसे बचत का गुरुमंत्र मिल चुका था। उसे समझ आ गया था स्नेहा को मायके से नही उसकी अपनी बचत का सपोर्ट है। वो कहते है न एक बचाया गया रुपया भी एक कमाये गये रुपये के बराबर होता है।

" हाँ चारु, हम क्या बात कर रहे थे। हाँ मेरे मायके से कोई सपोर्ट नही है। बस मैं ही हर चीज़ में बचत करने के लिये दिमाग़ लगाती हूँ......" स्नेहा ने बस इतना ही कहा था कि चारु ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया। " बस स्नेहा तुम्हें कुछ कहने की जरूरत नही है। मुझे जो सीखना था वो मैंने तुमसे सीख लिया। बस ये दोस्ती कभी मत तोड़ना जिससे आगे भी मैं तुमको देख देख कर सीखती रहूँ। तुम्हारे जैसी गुणी सखी बहुत भाग्य से मिलती है।"

"अच्छा चारु, चल फिर ठीक है, पहली बचत से मुझे ही गुरु दक्षिणा देना।" स्नेहा ने चुटकी लेते हुये कहा और दोनों सहेलियां ठहाका मारकर हँसने लगीं।

©® टि्वंकल तोमर सिंह



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