Monday, 2 September 2019

अंतरात्मा की स्लेट

"ऐसा मौका बार बार नही आता। उठा लो रिया।" मेरे अंदर का बेईमान बोला।" कब से तमन्ना थी तुम्हें इसकी। कब से इसके लिये पैसे बचाना चाह रही हो, पर बचा नही पा रही हो।"

कुछ पलों के लिये जैसे मैं एक अलग ही दुनिया में पहुँच चुकी थी। बाहर की दुनिया में मेरा बेटा रोहन था, जो मेरे पास कुर्सी पर बैठा था और बोर हो रहा था। सामने दुकानदार था जो मुझे एक से बढ़कर एक चाँदी की बिछिया दिखाये जा रहा था। मैं हाँ हूँ कर रही थी और न जाने अपने अंदर किस पशोपेश में थी। जैसे मुझे कुछ भी सुनाई नही दे रहा था और मैं यंत्रवत उसकी बातों का जवाब देती जा रही थी।

दुकान में एसी चलने के बावजूद मेरे माथे पर पसीने की बूँदे उभर आयीं थीं। न मालूम किस बात का डर मुझे लग रहा था। दिल धाड़ धाड़ कर रहा था । पर कोई था जो ठेल ठेल कर कह रहा था कि अगर मैंने थोड़ा साहस कर लिया तो मेरी तमन्ना पूरी हो जाएगी। " चलो, आगे बढ़ो न, इतना क्या सोचना। कोई चोर थोड़ी ही न हो तुम। बस आज भर। मौका मिला है फ़ायदा उठा लो रिया।"

तभी मेरे बेटे रोहन ने अपनी जेब से एक टॉय कार निकाली। और उसे मेज पर लगे पारदर्शी शीशे पर चलाने लगा। ज़ूम...ज़ूम..! मैंने ध्यान से देखा ये तो रोहन की कार नही है। मैंने पूछा-"ये कार तुम्हें कहाँ से मिली?"

"मेरे दोस्त की है,मैंने ले ली।" रोहन ने कार के साथ खेलते खेलते मासूमियत से कहा। मेरी तरफ़ उसने देखा तक नही। उसकी निग़ाह कार पर ही टिकी थी।

"क्या मतलब?? उसने दी या तुमने चुरा ली?"मैंने कड़क होते हुये पूछा।

" मैंने माँगा था उससे। मैंने कहा कि एक दिन में खेल कर वापस कर दूँगा। पर वो दे नही रहा था। मुझे अच्छी लगी, तो मैंने उसके बैग से निकाल ली, कल मैं उसको वापस कर दूँगा।" रोहन ने रुआँसे होते हुये कहा। पाँच साल का रोहन शायद चोरी का मतलब भी नही जानता। उसे लग रहा है कोई चीज़ अच्छी लगे तो उसे ले लेना कोई अपराध नही है।

रोहन छोटा था। उसकी नीयत चोरी की भी नही थी। उसे कार अच्छी लगी वो अपनी हसरत पूरी करना चाहता था बस। फिर भी मुझे बहुत बुरा लगा। छोटा सा लड़का चोरी सीख रहा है। बीज तो यहीं से पड़ जायेगा न।

अचानक से न मालूम क्या हुआ, पैरों के नीचे जो सोने की अँगूठी दबा रखी थी वो मुझे चुभने लगी थी, पैरों में भी, अंतरात्मा में भी!

"चोरी बहुत गंदी आदत है।" मैंने बेटे को और ख़ुद को समझाया। और फिर सोने की अँगूठी पैर के नीचे से उठाकर दुकानदार को दे दी।

" भैया ये अँगूठी नीचे गिरी पड़ी थी।" मैंने एक आख़िरी हसरत भरी निग़ाह उस पर डाली। माथे पर छलक आयी पसीने की बूँदों को मैंने पोछ डाला, जैसे किसी स्लेट पर कुछ गलत लिख गया था, मिटा डाला।

©® टि्वंकल तोमर सिंह

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