उनकी पोस्टिंग एक इंटर कॉलेज में सरकारी अध्यापिका के तौर पर सीतापुर के सुदूर इलाके में हुई थी। ग्रामीण क्षेत्र था सुख सुविधाओं से दूर। आस पास सब जगह गरीबी का साम्राज्य फैला हुआ था। जो बच्चे पढ़ने आते थे वो भी बहुत गरीब थे। न उनके पास यूनिफार्म थी न पैरों में जूते। यहाँ तक कि सर्दियों में भी वो बिना स्वेटर और बिना जूते के चले आते थे।
अपने देश की ऐसी हालत देखकर उन्हें बहुत तरस आता था। परन्तु सरकारी अध्यापक की भी एक सीमा होती है। बच्चों की मदद करने का मन तो होता था पर हाथ बंध जाते थे। मैडम जितना कर सकतीं थीं, करतीं थीं,पर कितना? अतः सर्वोपरि तो उन्होंने ठान रखा था वो जितना जी जान से पढ़ा सकतीं हैं उतना इन्हें पढायेंगी। उनका विषय अंग्रेजी था जिसमें बच्चों को रंचमात्र भी दिलचस्पी नही थी। छठे से बारहवीं तक किसी भी विद्यार्थी से कुछ भी पूछ लो , सब ठन ठन गोपाल। हिन्दी खड़ी बोली में लिखना और पढ़ना तक तो आता नही था, फिर इतनी कठिन अंग्रेजी कैसे पल्ले पड़ती?
अध्यापिका के पास सीबीएसई बोर्ड पढ़ाने का अनुभव था जहाँ बच्चों को इतना पढ़ाना होता था कि उनके सौ प्रतिशत अंक आयें। यहाँ वो समझ चुकीं थी साल भर भी पढ़ाओ तब भी तैतीस प्रतिशत अंक आ जायें तो गनीमत समझो।
फ़िलहाल अध्यापिका महोदया अपने कर्तव्यों की पूर्ति करती रहतीं थीं और उन्होंने सोच रखा था- "भले ही ऐसा लगे मैं दीवार को पढ़ा रही हूँ, मैं इन्हें पढाऊँगी जरूर। कहीं से तो परिवर्तन शुरू होगा। "
कभी कभी कुछ विशेष महीनों में आधे से ज्यादा विद्यार्थी अनुपस्थित रहते थे। उपस्थित बच्चों से पूछो तो मालूम पड़ता था," जी वो खेत गये है।"
" खेत में क्या करने गये है।" अध्यापिका पूछतीं।
" जी वो गेहूँ कट रहा है। वहीं लगे हैं।" जो आठ दस बच्चे आते वो जवाब देते।
"फिर तुम लोग क्यों नही गये? तुम भी चले जाते यहाँ क्या करने आये हो? " अध्यापिका गुस्से से पूछती क्योंकि बच्चों की अनुपस्थिति उनके साक्षरता मिशन में बाधा थी। जितना पढ़ा पढ़ा कर उनके दिमाग़ के रबरबैंड को खींचा था, स्कूल न आने पर वापस अपनी पूर्व अवस्था में उसे पहुँच जाना था।
"हमारे पास खेत नही हैं न मैडम जी,इसलिए।" बच्चे सिर झुकाकर शर्मिंदा होकर बोलते।
पर बच्चों के इस उत्तर से उनसे ज़्यादा शर्मिंदा अध्यापिका हो जाती थीं ये प्रश्न पूछकर। उन्हें समझ नही आता वो सहानुभुति दिखाये या तरस।
मेहनत से पढ़ाने के बावजूद जब बच्चों के कान पर जूँ नही रेंगती तो वो खीज जाती थी। कभी किताब नही तो कॉपी नही।
" कॉपी कहाँ गयी?" वो पूछती।
" जी वो बह गयी।" विद्यार्थी अपनी क्षेत्रीय भाषा में बोलता।
" बह गई ? क्या गोमती में बह गई? लखनऊ से आई अध्यापिका को नही पता था 'बह गयी' से उनका तात्पर्य है- खो गयी।
पूरी कक्षा खीं खीं करती रहती मैडम की अज्ञानता पर। और मैडम उनकी मूर्खता और लापरवाही पर अपना सिर पीट लेतीं। क्योंकि कॉपी या क़िताब खोने का मतलब है कि अब गरीबी उन्हें साल भर दूसरी कॉपी/क़िताब खरीदने नही देगी।
मैडम के प्रयास बढ़ते जा रहे थे और साथ ही उनकी निराशा भी। उनको लगता," कैसे समझाऊँ, नन्हे मुन्नों बच्चों तुम्हारी मुठ्ठी में क्या है। तुम अपनी तकदीर ख़ुद बदल सकते हो अगर चाह लो तो।"
एक दिन मैडम ने लंबा चौड़ा भाषण दिया इसी विषय पर। "पढ़ लिख लोगे तो क्या नही कर सकते। देश के कितने बड़े नेता गाँव के स्कूलों से ही पढ़कर निकले। कोशिश तो करो। और अंग्रेजी पढ़ लोगे तब तो क्या कहने। अँग्रेजी पढ़े बिना तो आज कहीं गुज़ारा नही। मोबाइल भी चलाना है तो अंग्रेज़ी आनी जरूरी है। वरना सब अंगूरी भाभी की तरह अपनी हँसी उड़वाना ज़िन्दगी भर।"
तभी कक्षा में पीछे से एक आवाज़ आती," अरे मैडम, आप क्यों परेशान हैं? हम लोगों को इतना पढ़ाना क्यों चाहती है? करना तो हमें खेती ही है, या बस दुकान पर बैठना हैं।" और पूरी कक्षा ठहाकों से गूँज जाती।
पर मैडम जी भी कम नही थी। तुरन्त तड़केदार जवाब देतीं थीं। " हाँ हाँ जानती हूँ, तुम लोगों को तो बस एक इंटर की डिग्री चाहिये। क्योंकि जब तुम्हरी शादी तय हो और पूछा जाये- लड़का क्या करता है?...तो तुम्हारे माता पिता जवाब दे पाए.....जी लड़का इंटर फेल है।...बस तुम लोगों ने इसी उपलब्धि के लिये ही तो यहां एडमिशन लिया है।"
बच्चे भी मुस्कुराते और मैडम भी।
तभी उसी वर्ष मिड डे मील योजना शुरू हुई। कक्षा छह सात आठ वालों को भोजन मिलता था। अध्यापिका महोदया की मिड डे मील में ड्यूटी लगी थी। काम था सभी बच्चों की गिनती करके रोज रजिस्टर में लिखना और मध्यावकाश में खाना बंटवाना।
एक नन्हा राजू अक्सर मैडम की नजरें छुपा कर रोटियां अपने बस्ते में छुपा लेता था। कितने दिन छुपता मगर। मैड़म ने पकड़ ही लिया एक दिन। " क्या है राजू तुम्हारे हाथ में पीछे क्या छुपा रहे हो?"
राजू आँखें झुकाये हाथ पीछे किये अपराधी सा खड़ा रहा। कोई हलचल नही।
तब दूसरे लड़के ने गवर्नर बनते हुये अपने हाथ से पकड़कर उसका रोटी वाला हाथ आगे कर दिया। दूसरे बच्चे की हवलदारी पर मैडम मुस्कुराईं और राजू से पूछा," क्या हुआ? इसे छुपा क्यों रहे थे?"
राजू चुप... जैसे उसकी कोई चोरी पकड़ ली गयी हो। तब दूसरे लड़के ने बताया," मैडम जी ये रोटियां अपने घर ले जाता है।"
"क्या बात है राजू? यहाँ क्यों नही खाते रोटी?" मैडम ने जोर देकर पूछा।
"मैडम जी, वो...वो...जी मैं अपनी गाय के लिये रोटी ले जाता हूँ। उसका चारा पूरा नही पड़ता न।" राजू ने सकुचाते हुये बोला।
ज़्यादा कुरेदने पर मालूम पड़ा ऐसा एक राजू ही नही है अकेला। कक्षा के कई बच्चे है जो कि जिस दिन रोटी मिलती है तो वो अपने घर ले जाते है कोई अपनी माँ के लिये , कोई अपने भाई के लिये, कोई अपनी बहन के लिये,कोई अपनी गाय के लिये.....
मैडम निःशब्द और स्तब्ध हो गईं। सोचने लगीं," मैं इन बच्चों को क्या साक्षर करूँ, ये तो पहले से ही साक्षर हैं, मानवता में, भारतीय संस्कृति में, हृदय की सरलता को जीवित रखने में।" नम हो आयीं आंखों को एक नई दृष्टि मिली थी। उनके प्रयास असफल क्यों होते रहें हैं, इसका उत्तर उन्हें मिल गया था।
बुद्ध ने कहा है न पहले भूखे को भोजन कराओ फिर उसको उपदेश दो। उसकी भूख मिटाना उसे उपदेश देने से ज़्यादा ज़रूरी है। आप ही सोचिये देश कैसे पूर्ण रूप से साक्षर होगा जब तक पेट की भूख दिमाग़ को कुंद करती रहेगी ?
©® टि्वंकल तोमर सिंह
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