धरती के श्रृंगार की ऋतु है बसंत। शिशिर ऋतु की ठिठुरन को पीछे धकेल कर बसंत आ कर जैसे सबको अपने आलिंगन में लेकर राहत देना चाह रहा है। हर तरफ बसंत के गुणगान गाते हुये लेख, कवितायें दिख रहीं हैं। आम्र मंजरियों की सुगंध, कोयल-पपीहे की टेर, पलाश के प्रेम के रंग, सरसों का उल्लास हर कविता का श्रृंगार बना हुआ है।
मोबाइल और किताबों से सिर उठा कर चारों ओर देखो तो जिस उल्लास से बसंत के स्वागत की दुंदुभी बज रही है, वैसा बसंत है कहाँ?
तारकोल की सड़क के किनारे, कंक्रीट के जंगल के बीच भय से सर उचका कर देखते हुये, किसी पार्क में हरियाली की जिम्मेदारी उठाये हुये इक्का दुक्का पेड़ों पर एक निर्धन स्त्री के श्रृंगार जैसा दिखता है बसंत।
बरसों बीत गए इतराती हुई तितलियों का झुंड देखे हुये। आगामी पीढ़ी के बच्चे नहीं जानते कैसी लगती है तितली हथेली पर पराग के रंगीन कण छोड़ कर जाती हुई। जुगनू को मुठ्ठी में बंद कर उन्हें टिमटिमाते देखना क्या होता है? आँगन में कूद कूद कर दाने चुगती हुई गौरैया कैसा सुख देती है? बुलबुल लाल कलगी की पगड़ी लगाये कितनी सुंदर दिखती है?
पर फिर भी बसंत मुस्कुरा रहा है। कम ही सही पेड़ों पर,बेलों पर नयी कोपलें जैसे अब तक सिर छुपा कर बैठी थीं, अब भय मुक्त होकर मुस्काती हुई सिर उठाने लगीं हैं।
हम खुश हैं कि गमलों में लगे बौने पौधे प्रसन्न दिख रहे हैं। क्यारियों में, टोकरियों में पाव भर फूलों की रंगत दिखने लगी हैं।
स्वागत है तुम्हारा ऋतुराज बसंत !
मर्मर की सुमधुर नूपुर-ध्वनि,
अलि-गुंजित पद्मों की किंकिणि,
भर पद-गति में अलस तरंगिणि,
तरल रजत की धार बहा दे
मृदु स्मित से सजनी!
विहँसती आ वसन्त-रजनी!
धीरे धीरे उतर क्षितिज से
आ वसन्त-रजनी!
(काव्य पंक्तियाँ- महादेवी वर्मा जी)
~ टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ।