जब पूरे शरीर में ज्वर सा अनुभव हो रहा हो, नाभि के नीचे से दर्द की लहरें पैरों में नीचे तक जा रहीं हो, कमर में बेतहाशा दर्द हो, और रक्त धार बन कर बह रहा हो।
हर दो घण्टे पर पैड बदलने पड़ रहे हों, रात को नींद बीच बीच में सिर्फ ये चेक करने के लिये टूटती रहती है कि कहीं कपड़े तो ख़राब नहीं हो गए, बिस्तर पर दाग़ तो नहीं लग गया?
ऐसे में स्वयँ ही मन नहीं करता कि बिस्तर से उठा जाए, मजबूरी न हो तो हर स्त्री यही चाहती है कि हैवी ब्लीडिंग के दो दिन उसे आराम मिले।
ऐसी हालत में कोई घर पर मिलने आ जाये तो मन नहीं करता ऐसी अस्त व्यस्त, मन अच्छा न महसूस करने वाली अवस्था में किसी से मिलें, नौकरी पर जाएं। ( हालांकि ये सब करना होता है), फिर ईश्वर से कैसे मिलने जायें?
पूजा पाठ करना, खाना बनाना न बनाना, अचार छूना न छूना जैसी मनाही आज के दौर में कोई नहीं मानता। मगर क्या आपको स्वयँ मन में एक अशुद्धि का भाव नहीं रहता? रसोई में सब्जी बनाते समय मन नीचे धार बन कर बह रहे रक्त पर नहीं रहता? मन अशुद्ध हो तो क्या स्वयँ ही पूजा में न बैठने का मन नहीं करता? क्या ये भय नहीं सताता कि जिस शुद्ध आसन पर हम बैठे हैं, उस पर कहीं दाग़ न लग जाये?
इन दिनों पूजा पाठ करने की आज़ादी, रसोई छूने की आज़ादी,अचार निकालने की आज़ादी में ही सारा वुमन लिब्रलाइजेशन घुसा हुआ है क्या? समझने की बात ये है कि
ये नियम सिर्फ स्वच्छता, शुद्धि और स्त्री को आराम देने के लिये है। सरकार भी महीने में एक दिन की पीरियड लीव देने का विचार कर रही है। आखिर क्यों?
~Twinkle Tomar Singh
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