Thursday 15 October 2020

अतीत के चलचित्र

पुस्तक समीक्षा

"दु:ख एक प्रकार श्रृंगार भी बन जाता है, इसी कारण दुःखी व्यक्तियों के मुख, देखने वाले की दृष्टि को बाँधे बिना नहीं रहते।"

ये पंक्तियां ऐसी थीं कि जब से पढ़ी मन के अंतरतम में धंस कर रह गयीं। वो सारे चेहरे आँखों के सामने से सजीव होकर गुज़र गये जिनकी आंखों में दुःख का अंजन तीक्ष्ण रेखा बनाता हुआ सजा था। 

ये पंक्ति है एक बेहद विस्मृत पुस्तक से , जिसके आवरण पर उसकी पहचान के तौर पर लिखा है 'अतीत के चलचित्र'। 

महादेवी जी को पद्य साम्राज्ञी के रूप में ही जाना। बचपन से कोर्स में उनका एक न एक क्लिष्ट शब्दों और अर्थ से सजा काव्य हमारे हिन्दी ज्ञान और प्रेम की परीक्षा लेता रहा। उनका लिखा एकमात्र गद्य जो विद्यार्थी जीवन में मैंने पढ़ा वो था - गिल्लू। बालमन पर उस छोटे से गिलहरी की कहानी अमिट छाप न छोड़े, संभव ही नहीं। उस समय उसकी कहानी आँखों को गीला तो कर ही गयी थी, उसके बाद कई चिड़ियों के बच्चों को बचाने में प्रेरणास्रोत के रूप में भी कार्य करती रही।

 मुझे जो भी पुस्तक अत्यधिक प्रिय होती है, उसे मैं क्रय करके अपने किसी मित्र को उपहार में दे डालती हूँ। पता नहीं मुझे इसमें क्या तुष्टि मिलती है। ऐसे ही अपनी एक परम मित्र से मैंने पूछा- अतीत के चलचित्र पढ़ी है? तो उसने थोड़ा हिचकते हुये पूछा- पद्य है? तात्पर्य ये है कि महादेवी जी की रचनाओं के प्रति कुछ यूँ धारणा बन जाती है जैसे गणित के दुरूह सवाल। इसलिए कोई जल्दी उनकी पुस्तकों पर हाथ नहीं धरता। 

इधर मैंने एक के बाद एक महादेवी जी की कई गद्य रचनायें पढ़ डालीं। उनके बारे में कुछ कहना थाली में जुगनू रखकर सूर्य की आरती उतारने समान है। फिर भी कह रही हूँ इतना रस, इतनी संतुष्टि, एक एक कहानी अपने आप में एक उपन्यास सरीखी, भाषा का चमत्कार, गद्य में पद्य की करिश्माई सुवास...मन महके बिना रहे तो कैसे? 

उदाहरण के लिये

"वैशाख नये गायक के समान अपनी अग्निवीणा पर एक-से-एक लम्बा आलाप लेकर संसार को विस्मित कर देना चाहता था। मेरा छोटा घर गर्मी की दृष्टि से कुम्हार का देहाती आवाँ बन रहा था। "

"
सूखी-सूखी पलकों में तरल-तरल आँखें ऐसी लगती हैं, मानो नीचे आँसुओं के अथाह जल में तैर रही हों और ऊपर हँसी की धूप से सूख गयी हों !" 

"उसे घर भेजने का प्रबन्ध कर मैं जब फाटक से लौटी, तब धरती और मेरे पैर लोहा-चुम्बक बन रहे थे।" 

ये तो मात्र झलकियां हैं। 

आज जब अमीश और चेतन भगत को पढ़ने वाली पीढ़ी पागलों की तरह उनकी नयी पुस्तक की प्रतीक्षा करती है, तो ऐसे में 'अतीत के चलचित्र ' जैसी पुस्तकें दुबकी हुई अतीत की ही किसी खिड़की से झाँकती हुई प्रतीत होती हैं।

~ टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ। 

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