Saturday 24 October 2020

कोलकाता कालीघाट मंदिर

कोलकाता का भ्रमण दक्षिणेश्वर में माता के दर्शन से शुरू होकर काली घाट मंदिर में स्थापित सिद्ध पीठ वाली माता पर समाप्त हुआ।

अष्टमी के दिन राम कृष्ण परमहंस जी की दक्षिणेश्वर वाली माता के दर्शन इतने आसान तो न थे। धूप तेज थी, तीन घंटे पंक्ति में लगा रहना पड़ा। न जाने कितने समय से हृदय में दबे विरह शूल से मुक्ति देकर आखिरकार माँ ने दर्शन दे ही दिए। थोड़ी निराशा हुई क्योंकि माँ ने सामने से नहीं साइड से दर्शन दिए। हम ही सामने वाली पंक्ति में नहीं लगे थे। गलती माँ की नहीं थी।

दर्शन के बाद हम मंदिर के सामने वाले मंडप में बैठ गए। ढोल बज रहा था। एक छोटा बालक मंजीरे पर साथ दे रहा था। कई भक्त हमारे साथ वहां बैठे इन अद्भुत क्षणों का आनंद उठा रहे थे।

तभी अचानक से हमारे सामने की भीड़ ,और मंदिर के सामने वाली पंक्ति की भीड़ छट गयी, और माँ ने अपने पूरे श्रृंगार और आकर्षण के साथ दर्शन दे दिए। एक जयकारा गूंजा पुरे परिसर में।

अद्भुत था वो क्षण, स्वतः ही अनवरत आँखों से अश्रु बहने लगे। 
हाँ, माँ थी वहाँ !

नवमी के दिन हमने कालीघाट वाली माँ के दर्शन करने चाहे। पर भीड़ ने हमारे हौसले की हवा निकाल दी। मैं सिर्फ सिन्दूर खेला का आनंद उठा कर होटल चली आयी।आखिरी दिन हमें सुबह मौका मिला माँ के दर्शनों का।

सिलसिला शुरू हुआ पंडो के प्रताड़ित करने से।
"दो मिनट में दर्शन करवा देंगे। आप अंग्रेज लोग कहाँ इतनी देर भीड़ में लाइन में लगेंगें।"

हमारा तर्क था-थोड़ा तो कष्ट सह लेना चाहिए।पर वो मक्खी की मंडरा कर, बरैया की तरह डंक मारने लगे।जब तक मैंने अपना आपा खोकर गुस्सा कर उन्हें अंट शंट बोलकर डाँट न लगा दी। नहीं मालूम था यही से मैंने उनकी शत्रुता मोल ले ली है।

ख़ैर एक घंटे पंक्ति में लग कर मंदिर के अंदर प्रवेश करने को मिला। माँ चुनरियों से ढकी थी। मजाल कि एक हलकी सी भी झलक मिल जाए। मैं निरंतर अपने मन में " ॐ जयंती मंगला काली भद्र काली कपालिनी दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमस्तुते !!" का जप कर रही थी।

हमारे सामने ही एक संपन्न से दिखने वाले दंपत्ति बिना पंक्ति के कहीं से प्रकट हुए, सीधे माँ के मुख के सामने ही उन्होंने लैंड किया। पुजारी जी ने उन्हें टीका लगाया, उनका नारियल फोड़ा, उनकी साडी माँ को पहनाई, दक्षिणा पर कुछ मोल भाव करके कुछ कड़क नोट अंदर किये और उन्हें मुस्कुरा कर विदा किया।

बाकी आम जनता को पुजारी जी ऐसे डाँट लगा रहे थे जैसे वो दर्शन करने आये हैं, तो उन्होंने कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया है। सही भी था,भीड़ से उत्पन्न होने वाली सारी गर्मी के जिम्मेदार भी हम ही लोग तो थे, जो उनके दिमाग में चढ़ रही थी।

दस दस रुपैया की दक्षिणा टोल टैक्स में वसूली जा रही थी सबसे। जो पहले से दस का नोट तैयार न रखे उस पर त्योरी चढ़ा कर गुस्से का चाबुक बरसा दिया जाता था। हमने डर के मारे दस का नोट तैयार रख लिया।

आखिरकार वो पल आया। जब माँ ने मुझे दर्शन दिए। बड़े बड़े विशाल नयन, बहुत ही सम्मोहनकारी मुख।

हमारी डोलची पंडित जी ने छुई भी नहीं, बस दस का नोट मेरे हाथ से ले लिया।

जैसे ही दर्शन हुए हमें आगे बढ़ने का इशारा किया गया। पर मैंने आँखें बंद की और अपने मन की अर्जी माँ के सामने लगानी शुरू की। एक वाक्य की मुराद थी, पर आधा ही बुदबुदा पायी कि किसी ने हाथ पकड़ के खींचा। आँखें खोली तो देखा एक बड़ी बड़ी आँखों वाली बंगाली पंडा महिला मुझे 10 सेकेण्ड तक वहां ठहर जाने के लिए बंगाली में नयनों में क्रोध विस्फारित करते हुए हड़का रही थी। इतने में मेरे पतिदेव का सब्र छूट गया और उन्होंने अपना एतराज जताया । पर एकता में बहुत शक्ति होती है। पंडे सारे एकजुट हो गए। हमने भी वहां से निकलना ही सही समझा।

ईश्वर दर्शन करते समय चरम का एक पल आता है, जहाँ आपकी आत्मा परम् आत्मा से एकसार हो जाती है। भले ही वो नैनो सेकेण्ड का हो।

पर क्योंकि हमने 1100 रुपये नहीं दिए , तो हम माँ के दरबार में वो चरम का नैनो सेकेण्ड खरीद नहीं पाये। माँ के सेवकों ने हमें वो एकाग्रता नसीब नहीं होने दी। 

बाहर निकलते निकलते मन कुछ अजीब से भावों से भर गया। 

मन ने पूछा - "माँ , तुम कहाँ थी?"

मैं मंदिर के नाभिक से दूर होती जा रही थी, मन में खुद ब खुद ये पंक्तियां चलती जा रही थी।

"खुदा के बन्दों को देखकर ही खुदा से मुनकिर है दुनिया।
कि ऐसे बंदे हैं जिस खुदा के वो कोई अच्छा खुदा नही है।"
(मुनकिर- नास्तिक) 

पर मन कहता है मेरी माँ अवश्य अच्छी होंगी। 

माँ ,मेरी ही एकाग्रता में कमी थी। आप तो अवश्य होगी वहां। ये मेरा विश्वास है। पर आवश्यक नहीं कि सबके मन में आस्था का सागर इतना अपरिमित हो। एक के भी मन में नास्तिकता का बीज पड़ा, तो ये रोग संक्रामक भी हो सकता है, माँ !

टि्वंकल तोमर सिंह,लखनऊ। 

No comments:

Post a Comment

द्वार

1. नौ द्वारों के मध्य  प्रतीक्षारत एक पंछी किस द्वार से आगमन किस द्वार से निर्गमन नहीं पता 2. कहते हैं संयोग एक बार ठक-ठक करता है फिर मुड़ कर...