Thursday 14 July 2022

अख़बार गाथा



अख़बार पढ़ने का शौक अधिकतर लोगों को होता है, पर खरीदने का नहीं। उनकी इस प्रवृत्ति से वो लोग मारे जाते हैं जिन्हें अख़बार खरीद कर पढ़ना पसंद होता है। जिन्हें अख़बार खरीदने का मन नहीं होता, पर पढ़ने का बहुत होता है, तो वे पड़ोसी के पेपर पर सूक्ष्म दृष्टि रखते हैं। ये स्थिति या तो उन घरों में होती है जहाँ एक से अधिक परिवार रहते हों या अक्सर यात्रा के दौरान ऐसा देखा जाता है।

 यात्रा के दौरान पड़ोसी के हाथ में पेपर ऐसा दिखता है जैसे कि दूसरे की थाली में घी। जितनी भी खबरों की हेडलाइन्स दिखाई देती रहती हैं, लगता है कि उनमें एकता कपूर के सीरियल जितना सारा मसाला भरा है। पर खेद की बात यह है कि पड़ोसी जब तक पूरा पेपर पढ़ कर डकार न ले ले, तब तक हिम्मत नहीं होती कि कह सकें कि भाईसाहब ,ज़रा पेपर दे दीजिएगा। सब्र करते हुये भी एक दो पन्ने पर प्रतीक्षारत व्यक्ति यूँ लटक जाता है जैसे कि छोटे बच्चे दूसरे के फलों के बाग में वृक्ष पर चोरी से लटक जाते हैं। 

जहाँ एक से अधिक परिवार साथ रहते हों और उनमें से कोई एक परिवार अखबार मंगवाता हो समझ लेना चाहिए कि उस समाचारपत्र की हालत यूँ रहती है जैसे कि एक सुंदर कन्या के चारों तरफ घूमता एक आवारा या कई आवारा। या चलिये कुछ अच्छा सा उदाहरण दे देते हैं। जैसे कि एक कुंजी के पीछे घूमता पढ़ने लिखने वाला लड़का या लड़के जो कुंजी खरीदना नहीं चाहते। ऐसे में ज्ञान की पिपासा को शांत करने के लिये पेपर के गिरने की पट से आवाज़ आयी नहीं कि वह मेधावी रोमियो बनकर पेपर-सुंदरी की ओर दौड़ गया।


कुछ लोग तो अख़बार पढ़ने-खरीदने के इतने बड़े रसिया होते हैं कि उनके घर चार-पाँच न्यूज़पेपर आते हैं। अब जिनके घर चार पाँच न्यूज़पेपर आते हैं उनके पड़ोसियों को तो लगता है इनमें से एक-आध पेपर पर तो हमारा कानूनन हक़ है। देखा जाए तो एक ही खबर को चार अखबारों में चार अलग अलग लेखकों/पत्रकारों की भाषा में पढ़ना एक प्रकार की मानसिक विकृति नहीं है तो और क्या है? या मान लो कि उनके घर चार पेपर इसलिए आते है कि उन्हें अलग अलग संपादकीय पढ़ना, कहानी पढ़ना, लेख पढ़ना पसंद हों। तो भी यह एक विकार से बढ़कर कुछ नहीं। आखिर चार अखबारों में संपादकीय पृष्ठ पढ़कर, किस्सा,कहानी,लेख आदि पढ़कर स्वयँ जो बुद्धिजीवी समझना विकार नहीं है तो और क्या है? 

इनके किसी एक पेपर को इनसे पहले हथिया कर पेपर का सारा सत्व सोख कर उसे तुड़ी-मुड़ी अवस्था में पहुँचा देने के पीछे एक सद्भावना ही होती है। उस तुड़ी-मुड़ी-भोगी हुई अवस्था वाले न्यूज़पेपर के प्रति उसके मालिक के मन में विरक्ति का भाव जागेगा। शायद उसे वो सबसे अंत में पढ़े या समय कम होने पर न भी पढ़े। आखिर एक कोरे अखबार की तहें खोलने में जो सुख है वह क्रीज़ खुल चुके अखबार में कहाँ? तो ऐसे में बुद्धिजीवी विकार के फलने-फूलने की संभावना एक अखबार की मात्रा बराबर कम हो जाएगी। 

कुछ लोग इतने बड़े परोपकारी होते हैं कि वे इस विकार के इस थोड़े से अंश को पनपने का कोई भी मार्ग अवशेष नहीं रखते। वो पेपर अपने साथ अपने घर ले जाते हैं। फिर पेपर का मालिक कहेगा- फलाना पेपर आया था? तो वे तत्काल खबरों भरी डकार लेते हुये कहेंगे - न जी न, हमने तो देखा भी नहीं। 

मालिक कहेगा - देख लीजिए , शायद बच्चे उठा ले गए होंगे। तब वे बड़ी मुश्किल से एक बलत्कृत अवस्था वाला अखबार फेंक देंगे। अगर उसमें कोई सन्डे मैगज़ीन आती होगी तो वो रोक लेंगे, आखिर परोपकार की भावना इतनी आसानी से मन से नहीं निकलेगी न!

तो मित्रों, आज भी मुझे मेरा समाचारपत्र प्राप्त नहीं हुआ। बस उसी के वियोग में ये उदगार निकले हैं। 

~ टि्वंकल तोमर सिंह

(यह लेख पूर्णतया लेखिका के अपने व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित है। इसका उद्देश्य किसी की भावना को ठेस पहुँचाना कदापि नहीं है। चित्र प्रतीकात्मक है।) 

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