Wednesday 16 October 2019

उसके साथ निभा लोगे ?

"तो फिर?" मैंने अपनी आँखों से आख़िरी बार उसकी आँखों की तलाशी लेनी चाही। शायद अब भी कहीं कुछ मिल जाये।

"फिर यही कि बच्चे तुम्हारे साथ रहेंगे और मैं मिलने आऊँगा हर महीने।" उसने भी ये शब्द बड़ी कठिनाई के साथ निकाले थे हलक से।

"ठीक है, फिर यही सही।" मैंने अपना पर्स उठाया और एक हारे हुये जुआरी की तरह टेबल छोड़ कर उठ गई। न मालूम क्यों लग रहा था। ये रोक लेगा। कह देगा ग़लती हो गयी। माफ़ कर दो। नहीं रह सकता तुम्हारे बिना। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मेरी सारी सेवा, कर्तव्यपरायणता, गृहस्थी बनाने की दिन रात की मेहनत और उससे भी ऊपर उसके लिये मेरा समर्पण सब व्यर्थ गया।

आँखों में आँसू टपकने के लिये जैसे बस प्रतीक्षा ही कर रहे थे कि ये दृश्य बदले तो लावा की तरह फूट पड़ें। अंदर से पूरी की पूरी नम हो चुकी थी। उस एक क्षण कितना ख़ाली कितना बेबस महसूस किया मैंने। कैसे कहूँ रोना भी है तो तुम्हारे ही कंधे पर।

'तुम्हारा कंधा' पर वो तो अब किसी और का हो चुका था। गृहस्थी और दो बच्चों में फँसी मैं ये देख ही नहीं पायी कि कितनी मोटी, बेडौल, अनाकर्षक हो गयी हूँ। दिन भर की थकी-मांदी बिस्तर पर उसका साथ ही नहीं दे पाती हूँ। पाँच मिनट उसके पास बैठ कर उससे बात करने का वक़्त ही नहीं है मेरे पास।

फिर....वो कब दूसरी की ओर झुकता चला गया पता ही नहीं चला।

वो अभी भी सिर झुकाए टेबल पर बैठा था। मैंने धीरे धीरे कदम दरवाजे की ओर बढ़ा दिये थे। हारा हुआ जुआरी भी एक आख़िरी चाल खेल कर जाता है शायद इस बार उसकी जीत हो जाये। शायद ये दाँव चल जाये।

मैं पीछे को पलटी। वो बिल पे करके उठने ही जा रहा था। मैं अपने अंदर की बरसात को जज़्ब करते हुये उसके पास पहुँची और उसकी आँखों में आँखें डाल कर मैंने पूछा- "बस इतना बता दो तुम इतने श्योर कैसे हो कि मेरे साथ निभा नहीं पाये, पर उसके साथ निभा लोगे?"

©® टि्वंकल तोमर सिंह
        लखनऊ।

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